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He fell asleep because we could sleep peacefully.It was an Indian soldier who got martyred today.Jai HindMilitaryThere are lights in our Diwali because someone is standing on the border in the dark.Jai Hindwhat did a soldier lose

हम चैन से सो पाए इसलिए ही वो सो गया, वो भारतीय फौजी ही था जो आज शहीद हो गया. जय हिन्द Army  हमारी दिवाली में रोशनी इसलिए हैं क्योंकि सरहद पर अँधेरे में कोई खड़ा हैं. जय हिन्द एक सैनिक ने क्या खूब कहा है. किसी गजरे की खुशबु को महकता छोड़ आया हूँ, मेरी नन्ही सी चिड़िया को चहकता छोड़ आया हूँ, मुझे छाती से अपनी तू लगा लेना ऐ भारत माँ, मैं अपनी माँ की बाहों को तरसता छोड़ आया हूँ। जय हिन्द जहाँ हम और तुम हिन्दू-मुसलमान के फर्क में लड़ रहे हैं, कुछ लोग हम दोनों के खातिर सरहद की बर्फ में मर रहे हैं. नींद उड़ गया यह सोच कर, हमने क्या किया देश के लिए, आज फिर सरहद पर बहा हैं खून मेरी नींद के लिए. जय हिन्द जहर पिलाकर मजहब का, इन कश्मीरी परवानों को, भय और लालच दिखलाकर तुम भेज रहे नादानों को, खुले प्रशिक्षण, खुले शस्त्र है खुली हुई शैतानी है, सारी दुनिया जान चुकी ये हरकत पाकिस्तानी है, जय हिन्द फ़ौजी की मौत पर परिवार को दुःख कम और गर्व ज्यादा होता हैं, ऐसे सपूतो को जन्म देकर माँ का कोख भी धन्य हो जाता हैं. जिसकी वजह से पूरा हिन्दुस्तान चैन से सोता हैं, कड़ी ठंड, गर्मी और बरसात में अपना धैर्य न खोता ह...

अध्याय 15अब तक का मेरा जीवन एक उपग्रह की तरह ही बीता, जिसको केन्द्र बनाकर घूमता रहा हूँ उसके निकट तक न तो मिला पहुँचने का अधिकार और न मिली दूर जाने की अनुमति। अधीन नहीं हूँ, लेकिन अपने को स्वाधीन कहने की शक्ति भी मुझमें नहीं। काशी से लौटती हुई ट्रेन में बैठा हुआ बार-बार यही सोच रहा था। सोच रहा था कि मेरी ही किस्मत में बार-बार यह क्यों घटित होता है? मरते दम तक अपना कहने लायक क्या किसी को भी न पा सकूँगा? क्या इसी तरह जिन्दगी काट दूँगा? बचपन की याद आई। दूसरे की इच्छा से दूसरे के घर में वर्ष के बाद वर्ष रहकर इस शरीर को तो किशोर से यौवन की ओर आगे बढ़ाता रहा, लेकिन, मन को न जाने किस रसातल की ओर खदेड़ता रहा। आज बार-बार पुकारने पर भी उस बिदा हुए मन की कोई आहट नहीं मिलती, हालाँकि कभी-कभी क्षीण कण्ठ का अनुसरण कान में आ लगता है, फिर भी, बि‍‍ना संशय के नहीं पहिचान पाता कि वह अपना ही है,- विश्वास करते डर लगता है।यह समझकर ही यहाँ आया हूँ कि आज मेरे जीवन में राजलक्ष्मी मृत है। नदी-किनारे खड़े होकर विसर्जित प्रतिमा के अन्तिम चिह्न तक को अपनी ऑंखों से देखकर लौटा हूँ- आशा करने का, कल्पना करने का, अपने को धोखा देने का कोई भी सूत्र शेष रखकर नहीं आया हूँ। उस तरफ सब शेष हो गया है, निश्चिन्त हो गया हूँ, पर यह शेष कितना शेष है, यह किससे कहूँ और कहूँ ही क्यों?पर कुछ दिन का ही तो जिक्र है। कुमार साहब के साथ शिकार खेलने गया। दैवात् पियारी का गाना सुनने के लिए बैठा, बैठते ही भाग्य में कुछ ऐसा मिला जो जितना आकस्मिक था उतना ही अपरिसीम। न अपने गुण से पाया और न अपनी गलती से खोया ही, फिर भी आज स्वीकार करना पड़ा कि मैंने उससे खो दिया- मेरे संसार में सब मिलाकर क्षति ही शेष रही। जा रहा हूँ कलकत्ते, पर वासना फिर एक दिन बर्मा पहुँचायगी। लेकिन यह मानों जुआरी का घर लौटना है। घर का चित्र अस्पष्ट, अप्रकृत है, सिर्फ पथ ही सत्य है। ऐसा लगता है मानों इस पथ पर चलने का कोई अन्त नहीं।“अरे, यह तो श्रीकान्त है!”यह खयाल ही न था कि गाड़ी स्टेशन पर ठहरी है। देखता हूँ कि हमारे गाँव के बाबा, राँगा दीदी तथा सतरह-अठारह साल की एक लड़की-तीनों गर्दन, सिर और कन्धों पर गठरी-पोटली लादे प्लेटफॉर्म पर दौड़ लगाते आये और खिड़की के सामने आकर एकाएक थम गये। बाबा बोले, “उफ, कैसी भीड़ है! जहाँ एक सुई के जाने की भी गुंजाइश नहीं वहाँ तीन-तीन आदमी हैं! तुम्हारा डब्बा तो काफी खाली है, चढ़ आवें?” “आइए, कहकर दरवाजा खोल दिया। वे तीनों जनें हाँफते-हाँफते ऊपर आये और जितना सामान था नीचे रख दिया। बाबा ने कहा, “यह शायद ज्यादा किराये का डब्बा है, दण्ड तो नहीं देना पड़ेगा?”मैंने कहा, “नहीं, मैं गार्ड से कह आता हूँ।”गार्ड को इत्तिला दे अपना कर्त्तव्य पूरा कर जब लौटा, तब वे लोग निश्चिन्त हो आराम से बैठे थे। गाड़ी के छूटने पर राँगा दीदी ने मेरी ओर नजर डाली, और चौंककर कहा, “तुम्हारा यह कैसा शरीर हो गया है श्रीकान्त? सारा मुँह सूखकर एकदम रस्सी जैसा हो गया है, कहाँ थे इतने दिन? कुछ भी हो, तुम अच्छे तो हो? जब से गये एक चिट्ठी तक नहीं दी? घरवाले सब सोच-फिक्र में मरे जाते हैं!”इस तरह के प्रश्नों के उत्तर की कोई आशा नहीं करता, जवाब न मिलने पर बुरा भी नहीं मानता।बाबा ने बताया कि तीर्थ करने के लिए यह सपत्नीक गया-धाम आये थे और यह लड़की उनकी बड़ी साली की नातिनी है,- बाप हजार रुपये गिन देने को तैयार है, लेकिन फिर भी अब तक कोई योग्य पात्र नहीं जुटा। मानती ही न थी इसलिए साथ लाना पड़ा। पूँटू, पेड़े की हाँड़ी तो खोल बेटी- क्यों जी, पूछता हूँ कि दही का बर्तन भूल तो नहीं आयी। हाँ तो पत्तो पर रख दो-दो-चार पेड़े, थोड़ा दही- ऐसा दही तुमने कभी खाया न होगा भैया, कसम खाकर कह सकता हूँ। नहीं-नहीं, लुटिया के पहले हाथ धो डालो, पूँटू, ऐरे-गैरे को तो दे नहीं रही हो- ऐसे लोगों को कैसे देना चाहिए यह सीखो।”पूँटू ने यथा आदेश कर्त्तव्य का सयत्न पालन किया। अतएव, ट्रेन में ही असमय में अयाचित दही-पेड़े मिल गये। खाते हुए सोचने लगा कि मेरे ही भाग्य में सारी अनहोनी हुआ करती है, सो इस बार कहीं पूँटू के लिए मैं ही हजार रुपये की कीमत का पात्र न चुन लिया जाऊँ! यह खबर उन्हें पहली बार ही मिल गयी थी कि मैं बर्मा में अच्छी नौकरी करने लगा हूँ।राँगा दीदी बहुत ज्यादा स्नेह करने लगीं, और आत्मीय ज्ञान की वजह से पूँटू भी घण्टे भर में ही घनिष्ठ हो गयी, क्योंकि, मैं कोई दूसरा तो था नहीं!लड़की अच्छी है। साधारण भद्र गृहस्थ घराने की, रंग गोरा तो नहीं था लेकिन देखने में सुन्दर थी। हालत यह हुई कि बाबा उसके गुणों का बखान खत्म ही न कर पा रहे थे। लिखने-पढ़ने के बारे में राँगा दीदी ने कहा, “वह ऐसी सुन्दर चिट्टी लिख सकती है कि आजकल के तुम्हारे नाटक और नॉविल भी हार मान जाँय। उस घर की नन्दरानी को एक ऐसी चिट्ठी लिख दी थी कि जमाई महाशय सात दिन के बजाय पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर आ पहुँचे।”राजलक्ष्मी का उल्लेख किसी ने इंगित से भी नहीं किया जैसे उस तरह की कभी कोई बात हुई थी, यह किसी को याद तक नहीं!दूसरे दिन गाँव के स्टेशन पर गाड़ी ठहरी तो मुझे भी उतरना पड़ा। उस वक्त करीब दस बजे थे। ठीक वक्त पर स्नानाहार न होने पर पित्त भड़क जाने की आशंका से वे दोनों जनें चिन्तित हो उठे। मकान पहुँचने पर मेरी खातिरदारी की सीमा न रही। पाँच-सात दिन के अन्दर ही गाँव-भर में किसी को यह सन्देह न रहा कि पूँटू का वर मैं ही हूँ। यहाँ तक कि पूँटू को भी सन्देह न रहा।बाबाजी ने चाहा कि यह शुभ कार्य आगामी वैशाख महीने में ही सम्पन्न हो जाय। पूँटू के रिश्तेदार जो जहाँ थे उन्हें बुला लेने की बात भी उठी। राँगा दीदी ने पुलकित हृदय से कहा, “देखते हो, किसी के भाग्य में कौन बदा है, यह पहले से कोई भी नहीं बता सकता!”मैं पहले उदासीन था, फिर चिन्तित हुआ, और उसके बाद डरा। क्रमश: अपने ऊपर ही सन्देह होने लगा कि कहीं मैंने मंजूरी तो नहीं दे दी! मामला ऐसा बेढब हो गया कि कहीं पीछे कोई बुरी घटना न घट जाय इसलिए ना कहने का साहस ही न रहा। पूँटू की माँ यहीं थी। एक दिन रविवार को एकाएक उसके पिता के भी दर्शन हो गये। मुझे कोई नहीं जाने देना चाहता, आमोद-प्रमोद और हँसी-मजाक भी होने लगा- पूँटू मेरे ही सिर पड़ेगी, सिर्फ थोड़े दिनों की देर है- शनै:-शनै: ऐसे लक्षण ही चारों ओर स्पष्ट नजर आने लगे। जाल में फँसा जा रहा हूँ, मन को शान्ति नहीं मिलती- जाल तोड़कर बाहर भी नहीं निकल पाता। ऐसे वक्त अचानक एक सुयोग मिला। बाबा ने पूछा, “तुम्हारी कोई जन्मपत्री है या नहीं? उसकी तो जरूरत है।”जोर लगाकर सारे संकोचों को दूर करके कह बैठा, “आप लोगों ने पूँटू के साथ मेरा विवाह करना क्या सचमुच स्थिर कर लिया है?”बाबा मुँह फाड़कर थोड़ी देर तक अचम्भे से देखते रहे, फिर बोले, “वाकई? सुन लो इनकी बात!”“पर मैं तो अभी तक स्थिर नहीं कर पाया हूँ।”“नहीं कर पाये तो अब कर लो। लड़की की उम्र मैं चाहे बारह-तेरह वर्ष की बताऊँ या और कुछ, लेकिन असल में वह सतरह-अठारह साल की है। इसके बाद हम इस लड़की की शादी कैसे करेंगे?”“पर वह मेरा दोष तो नहीं है?”“तो फिर किसका है? शायद मेरा?”इसके बाद लड़की की माँ और राँगा दीदी से शुरू करके पास पड़ौस की लड़कियाँ तक आ गयीं। रोना-धोना, अनुयोग अभियोगों का अन्त नहीं रहा। मुहल्ले के पुरुषों ने कहा, “ऐसा शैतान आज तक नहीं देखा, इसे अच्छा सबक देना चाहिए।”पर दण्ड देना और बात है और लड़की की शादी करना दूसरी बात है। फलत: बाबा चुप हो रहे। इसके बाद अनुनय-विनय की पारी आई। पूँटू को अब नहीं देखता हूँ। शायद वह गरीब शर्म से मुँह छिपाए कहीं पड़ी है। क्लेश होने लगा। कैसा दुर्भाग्य लेकर ये हमारे घरों में पैदा होती हैं। सुना कि ठीक यही बात उसकी माँ भी कह रही है- ओ अभागिन, हम सबको खाने के बाद जायेगी। इसकी ऐसी तकदीर है कि समुद्र पर दृष्टि डाले तो समुद्र तक सूख जाय और जली हुई शोल मछली भी पानी में भाग जाए। इसका ऐसा हाल न होगा तो किसका होगा!कलकत्ते जाने के पहले बाबा को बुलाकर अपने घर का पता बता दिया। कहा, “मेरे लिए एक व्यक्ति की राय लेना जरूरी है, उनके कहने पर मैं राजी हो जाऊँगा।” बाबा मेरा हाथ पकड़कर गद्गद कण्ठ से बोले, “देखो भाई, लड़की को मत मारो। उन्हें जरा समझा-बुझाकर कहना कि वे अपनी असम्मति न दें।” मैं बोला, “मेरा विश्वास है कि वे असम्मति प्रकट न करेंगे। बल्कि खुश होकर ही सम्मति देंगे।”बाबा ने आशीर्वाद दिया, “तुम्हारे मकान पर कब आऊँ, भैया?”“पाँच-छ: दिन बाद ही आइए।”पूँटू की माँ और राँगा दीदी ने रास्ते तक आकर ऑंसुओं के साथ मुझे बिदा किया।मन ही मन कहा, तकदीर! किन्तु यह अच्छा ही हुआ कि एक प्रकार से वचन दे आया। मैंने इस बात पर नि:संशय विश्वास कर लिया कि इस विवाह में राजलक्ष्मी लेशमात्र भी आपत्ति न करेगी।♦♦ • ♦♦स्टेशन पर पहुँचते ही ट्रेन छूट गयी। दूसरी ट्रेन आने में दो घण्टे की देर थी। समय काटने का उपाय खोज रहा था कि एक मित्र मिल गये। एक मुसलमान युवक ने कुछ देर तक मेरी ओर देखते रहकर पूछा, “आप श्रीकान्त हैं?”“हाँ।”“मुझे नहीं पहिचान सके? मैं गौहर हूँ।” कहकर उसने मेरा हाथ जोर से दबा दिया, पीठ पर सशब्द चपत लगाई और जोर से गले लिपटकर कहा, “चलो, हमारे घर चलो। कहाँ जा रहे थे- कलकत्ते? अब जाने की जरूरत नहीं- चलो।”यह मेरा पाठशाला का मित्र है, उम्र में कोई चार साल बड़ा होगा, हमेशा से ही कुछ आधा पागल जैसा। ऐसा लगा कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसका वह पागलपन कम होने की बजाय बढ़ गया है। पहले भी उसकी जबरदस्ती से बचने का उपाय न था, अत: यह खयाल कर मेरी दुश्चिन्ता की सीमा न रही कि कम-से-कम आज रात को वह मुझे किसी तरह नहीं छोड़ेगा। यह कहना व्यर्थ है कि उसकी आत्मीयता और उल्लास में हिस्सा बाँटने की शक्ति आज मुझमें नहीं है। पर वह छोड़ने वाला जीव नहीं था। मेरा बैग उसने खुद उठा लिया और कुली बुलाकर उसके सिर पर बिछौना रख दिया। फिर जबरदस्ती खींचता हुआ बाहर लाया और गाड़ी का भाड़ा ठीक कर मुझसे बोला, “चलो।”बचने का कोई उपाय नहीं है, तर्क करना फिजूल है।यह कह चुका हूँ कि गौहर मेरा पाठशाला का साथी है। हमारे गाँव से उसका मकान एक कोस दूर था, एक ही नदी के किनारे। बचपन में बन्दूक चलाना उसी से सीखा था। उसके पिता की एक पुरानी बन्दूक थी, उसी को लेकर नदी किनारे, आम के बगीचों में और झाड़-झंखाड़ों में घूमकर हम दोनों चिड़ियों का शिकार किया करते थे। बचपन में अनेक बार उसी के यहाँ रात काटी है- उसकी माँ चिवड़ा, गुड़, दूध और केला लाकर मुझे फलाहार करा देती थी। उनकी जमीन-जायदाद, खेती-बारी बहुत थी। गाड़ी में बैठकर गौहर ने प्रश्र किया, “इतने दिनों तक कहाँ थे, श्रीकान्त?”जहाँ जहाँ था, उसका एक संक्षिप्त विवरण दे दिया। पूछा, “तुम अब क्या करते हो, गौहर?”“कुछ भी नहीं।”“तुम्हारी माँ अच्छी तरह हैं?”“माँ-बाप दोनों की मृत्यु हो गयी- मकान में अकेला मैं ही हूँ।”“शादी नहीं की?”“वह भी मर गयी।”मन ही मन सोचा कि शायद इसीलिए चाहे जिसे पकड़ ले जाने का इतना आग्रह है! जब कोई बात करने को नहीं मिला तो पूछा, “तुम्हारी वह पुरानी बन्दूक है?”गौहर ने हँसकर कहा, “देखता हूँ कि तुम्हें उसकी याद है! वह है, और उसके सिवाय और भी एक अच्छी बन्दूक खरीदी थी। तुम शिकार खेलने जाना चाहो तो साथ चला चलूँगा। किन्तु अब मैं चिड़ियाँ नहीं मारता-बहुत दु:ख होताहै।”“यह क्या गौहर, तब तो तुम दिन-रात इसी के पीछे पागल थे।”“यह सच है। लेकिन अब बहुत दिनों से छोड़ दिया है।”गौहर का एक परिचय और है कि वह कवि है। उन दिनों वह मुँह-जुबानी अनर्गल ग्राम-गीत बना सकता था- किसी भी वक्त और किसी भी विषय पर। छन्द, मात्रा और ध्वानि इत्यादि काव्य-शास्त्र के कानून-कायदों को मानता था या नहीं, इसका ज्ञान मुझे न तब था और न अब है। पर मुझे याद है कि मैं उन दिनों मणिपुर का युद्ध और टिकेन्द्र जीत सिंह के वीरत्व की कहानी उसके मुँह से सुनकर पुन:-पुन: उत्तेजित हो उठता था। पूछा, “गौहर, उन दिनों तुम्हें कृत्तिवास से भी सुन्दर रामायण लिखने का शौक था, वह संकल्प अब भी है या गया है?” गौहर क्षण-भर में गम्भीर हो गया। बोला, “वह शौक क्या कभी जा सकता है रे? उसी के बल पर तो बचा हुआ हूँ। जब तक जिन्दा रहूँगा तब तक उसे लिये रहूँगा। कितना लिखा है, चलो न, आज सारी रात तुम्हें सुनाऊँगा तो भी खत्म न होगा।”“कहते क्या हो गौहर?”“नहीं तो क्या तुमसे झूठ कहता हूँ?”प्रदीप्त कवि-प्रतिभा से उसकी ऑंखो और मुँह चमक उठे। सन्देह नहीं किया था, सिर्फ विस्मय जाहिर किया था। तथापि, कहीं केंचुआ खोजते हुए साँप न निकल आये- मुझे जबरदस्ती बैठाकर सारी रात काव्य-चर्चा ही न करता रहे- मेरे भय की सीमा नहीं रही।खुश करने के लिए कहा, “नहीं गौहर, यह थोड़े ही कहता हूँ। तुम्हारी अद्भुत शक्ति को सभी स्वीकार करते हैं, पर बचपन की बातें याद हैं या नहीं, यही जानने के लिए पूछा है। तो ठीक- वह बंगाल की एक कीर्ति होकर रहेगी।”“कीर्ति? अपने मुँह से क्या कहूँ भाई, पहले सुन तो लो, फिर ये सब बातें होंगी।”किसी भी तरह छुटकारा नहीं। कुछ देर स्थिर रहकर मानो कुछ-कुछ अपने आप ही कहा, “सुबह से ही तबियत खराब हो रही है। ऐसा लगता है कि अगर नींद आ जाती...”गौहर ने इस पर ध्या न ही न दिया। कहा, “पुष्पक रथ पर बैठकर सीताजी जब रोते-रोते गहने फेंक रही हैं- इस अंश को जिन जिनने सुना है वे अपने ऑंसू नहीं रोक सके हैं श्रीकान्त।”ऑंखों का जल मैं भी रोक सकूँगा, इसकी सम्भावना कम है। कहा,“किन्तु...” गौहर ने कहा, “हमारे उस बूढ़े नयन चाँद चक्रवर्ती की तुम्हें याद है न? उसके मारे नाक में दम है। वक्त-बे-वक्त आकर कहता है, “गौहर, जरा वह अंश पढ़ो न, सुनूँगा।” कहता है, “बेटा, तुम मुसलमान की सन्तान कभी नहीं हो। ऐसा लगता है कि तुम्हारे शरीर में असली ब्राह्मण-रक्त प्रवाहित है।” 'नयनचाँद' नाम हर जगह नहीं होता, इसीलिए याद आ गया। मकान भी गौहर के गाँव में ही है। पूछा, “वही बूढ़ा चक्रवर्ती? उसके साथ तो तुम्हारे पिताजी का बड़ा झगड़ा हुआ था- लाठियाँ चलीं थीं और मामला भी?”गौहर ने कहा, “हाँ। लेकिन पिताजी के सामने उसकी क्या चलती? उन्होंने उसकी जमीन, बगीचा, तालाब इत्यादि सबको कर्जमध्दे नीलाम करवा लिया था। लेकिन मैंने उसका तालाब और मकान लौटा दिया है। बहुत गरीब है। रात-दिन रोता था- यह क्या अच्छा होता श्रीकान्त?”अच्छा तो नहीं होता, परन्तु चक्रवर्ती के काव्य-प्रेम से कुछ ऐसा ही अन्दाज लगा रहा था। कहा, “अब तो रोना बन्द हो गया है?”गौहर ने कहा, “लेकिन आदमी वाकई अच्छा है। कर्जे के मारे उसने उस वक्त जो कुछ किया था, वैसा बहुत लोग करते हैं। उसके मकान के पास ही डेढ़ बीघे का आम का बगीचा है, उसके हरेक पेड़ को चक्रवर्ती ने अपने हाथों से लगाया है। नाती-पोते बहुत से हैं, खरीदकर खाने के लिए पैसे नहीं हैं। फिर, मेरा ही कौन है, कौन खाने वाला है?”“यह ठीक है। उसे भी लौटा दो।”“लौटा देना ही ठीक है, श्रीकान्त। ऑंखों के सामने ही आम पकते हैं, लड़के-बच्चे ठण्डी आहें भरते हैं- मुझे बहुत दु:ख होता है भाई! आम के दिनों में मेरे सब बगीचे व्यापारी लोग ले लेते हैं, सिर्फ वह बगीचा नहीं बेचता। कह दिया है, चक्रवर्ती, तुम्हारे नाती तोड़-तोड़कर खायें। क्या कहते हो ठीक किया न?”'बिल्कुटल ठीक।” मन-ही-मन कहा, बैंकुण्ठ के खाते की जय हो! उसकी बदौलत यदि गरीब नयन चाँद पत्किंचित् लाभ उठा सके तो नुकसान ही क्या है? इसके अलावा गौहर कवि है। कवि की इतनी सम्पत्ति किस मतलब की अगर रसग्राही रसिक सुजनों के काम में न आय?लगभग चैत्र के बीचोंबीच की बात है। गाड़ी की खिड़की को एकाएक अन्त तक खोलकर गौहर ने बाहर सिर निकालते हुए कहा, “दक्षिणी हवा का अनुभव हो रहा है श्रीकान्त?”“हो रहा है।”गौहर ने कहा, “वसन्त को पुकारते हुए कवि ने कहा है- 'खोल दे आज दखिन का द्वार'।”कच्ची मिट्टी का रास्ता है। मलय पवन के एक झोंके ने रास्ते की सूखी धूल को जमीन पर नहीं रहने दिया, उससे समस्त मुँह और सिर को भर दिया। मैं अप्रसन्न होकर बोला, “कवि ने वसन्त को नहीं बुलाया। वह कहता है कि इस वक्त यम का दक्षिण द्वार खुला है- अत: गाड़ी को बन्द न करोगे, तो शायद वही आकर हाजिर हो जायेगा।”गौहर ने हँसकर कहा, “चलकर देखोगे एक बार। चकोतरे के दो पेड़ों पर फूल खिले हैं, कोई आधा कोस से उनकी गन्ध आती है। सामने वाला जामुन का पेड़ माधवी फूलों से भर गया है, उसकी एक डाल पर मालती की लता है। फूल अभी नहीं खिले हैं, कलियों के गुच्छे के गुच्छे लटक रहे हैं। हमारे चारों ही ओर आम के बगीचे हैं और अबकी बार बौर से आम के झाड़ छा गये हैं। कल सुबह मधुमक्खियों का मेला देखना। कितने नीलकण्ठ, कितनी बुलबुलें और कितनी कोयलों के गान! इस वक्त चाँदनी रात है, इस कारण रात को भी कोयल की कूक नहीं रुकती। बाहर के कमरे की दक्षिण वाली खिड़की यदि खुली रखोगे तो फिर तुम्हारी पलकें न झपेंगी। लेकिन इस बार यों ही नहीं छोड़ दूँगा भाई, यह पहले से यह देता हूँ। इसके अलावा खाने की भी कोई फिक्र नहीं, चक्रवर्ती महाशय को एक बार खबर मिलने-भर की देर है। तुम्हारा आदर गुरु की तरह करेंगे।”आमन्त्रण की अकपट आन्तरिकता से मुग्ध हो गया। कितनी मुद्दतों बाद मुलाकात हुई है, लेकिन वह ठीक उस दिन जैसा ही गौहर है- जरा भी नहीं बदला है- वैसा ही बचपन है, मित्र-मिलने में वैसा ही अकृत्रिम उल्लास है।गौहर मुसलमान फकीर-सम्प्रदाय का है। सुना गया है कि उसके पितामह बाउल थे। वे रामप्रसादी और दूसरे गीत गा-गाकर भिक्षा माँगते थे। उनकी पाली हुई सारिका की अलौकिक संगीत-पारदर्शिता की कहानी उन दिनों इधर बहुत प्रसिद्ध थी। लेकिन गौहर के पिता पैतृक-वृत्ति छोड़कर तिजारत और पाठ का कारबार करने लगे और अपने लड़के के लिए बहुत-सी जायदाद खरीदकर छोड़ गये। परन्तु लड़के में बाप जैसी व्यापारी बुद्धि नहीं है- बल्कि बाबा का काव्य और संगीत के प्रति अनुराग ही उसमें है। अत: पिता की जी-तोड़ मेहनत से संचित जमीन-जायदाद और खेती-बारी का अन्त में क्या परिणाम होगा, यह शंका और सन्देह का विषय है।खैर, जो हो, उन लोगों का मकान बचपन में देखा था। ठीक से याद नहीं। अब वह शायद कवि की वाणी-साधना के तपोवन में रूपान्तरित हो गया हो। उसे एक बार ऑंखों से देखने की इच्छा हुई।उसके ग्राम के पथ से मैं परिचित हूँ, उसकी दुर्गमता भी याद आती है। किन्तु थोड़ी ही देर बाद मालूम हो गया कि शैशव की उस याद के साथ आज की ऑंखों से देखने की कतई तुलना नहीं हो सकती। बादशाही जमाने की सड़क है अतिशय सनातन। मिट्टी पत्थरों की परिकल्पना यहाँ के लिए नहीं है! कोई करेगा, ऐसी दुराशा भी कोई नहीं करता। इतना ही नहीं, संस्कार या मरम्मत की सम्भावना भी लोगों के मन से बहुत समय पहले ही पुंछ गयी है। गाँव वाले जानते हैं कि शिकायत या अभियोग फिजूल है- उनके लिए किसी भी दिन राजकोष में रुपये नहीं होंगे। वे जानते हैं कि पुरुषानुक्रम से सड़क के लिए सिर्फ सड़क-टैक्स देना पड़ता है पर वह सड़क कहाँ है और किसके लिए है, यह सब सोचना भी उनके लिए ज्यादती है।¹ बाउल-बंगाल में वैरागी सन्तों का एक सम्प्रदाय। कबीर, दादू आदि हिन्दी के सन्त-कवियों की वाणी गा-गाकर ये घर-घर भिक्षा माँगते हैं।उस सड़क पर बहुकाल से संचित और स्तूपीकृत बालू और मिट्टी की रुकावट को हटाती हुई हमारी गाड़ी सिर्फ चाबुक के जोर से अग्रसर हो रही थी। ऐसे ही वक्त गौहर एकाएक बड़े जोर से चिल्ला उठा, “गाड़ीवान! और नहीं- और नहीं, ठहरो-एकदम रोको!”उसने यह इस तरह कहा जैसे पंजाब-मेल का मामला हो-जैसे पल-भर में ही सब वैक्युम ब्रेक अगर बन्द न किये जा सके तो सर्वनाश की सम्भावना हो।गाड़ी रुक गयी। बाँयें हाथवाला रास्ता उनके गाँव जाने का है। उतरकर गौहर ने कहा, “श्रीकान्त, उतर आओ। मैं बैग ले लेता हूँ, तुम बिछौना उठाओ, चलो।”“शायद गाड़ी और आगे नहीं जायेगी?”“नहीं। देखो न, रास्ता नहीं है।”यह सही है। दक्षिण बाँयीं ओर काँटेदार पेड़ और बेत-कुंजकी घनी तथा सम्मिलित शाखा-प्रशाखाओं के कारण गाँव की वह गली अतिशय संकीर्ण हो गयी है। गाड़ी को अन्दर घुसाने का तो प्रश्न ही अवैध था, क्योंकि अगर आदमी भी होशियारी के साथ झुककर न घुसे तो काँटों में फँसकर उसके कपड़ों का फटना अनिवार्य है- अतएव, कवि के कथनानुसार वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अनिर्वचनीय था। उसने बैग को कन्धों पर रखा और मैंने बिछौने को बगल में दबाया। इस तरह हम लोग गोधूलि की बेला में गाड़ी से उतरे। कवि-गृह में जब पहुँचा तो शाम हो चुकी थी। अन्दाज लगाया कि आकाश में वसन्त-रात्रि का चन्द्रमा भी निकल आया है। शायद पूर्णिमा के आस-पास की तिथि थी, अतएव इस आशा में था कि गम्भीर निशीथ में चन्द्रदेव सिर के ऊपर आ जाँय तो तिथि के बारे में नि:संशय हो जाऊँ। मकान के चारों ओर बाँसों का घना वन है। बहुत सम्भव है कि इसी जंगल में उसका कोयल नीलकण्ठ और बुलबुलों का झुण्ठ रहता हो और उन्हीं की अहर्निश पुकार तथा गाना कवि को व्याकुल बना देता हो। बाँस के पके सूखे हुए असंख्य पत्तों ने झड़झड़ कर ऑंगन और चबूतरे को चारों ओर से परिव्याप्त कर रखा है। इन पर नज़र पड़ते ही इस प्रेरणा से सारा मन क्षणभर में ही गर्जना कर उठता है कि झड़े हुए पत्तों का गीत गाया जाय। नौकर ने आकर बाहर की बैठक खोल दी और बत्ती जला दी। गौहर ने तख्त दिखाते हुए कहा, “तुम इसी कमरे में रहो। देखना, कैसी सुन्दर हवा आती है।”असम्भव नहीं है। देखा, कि दक्षिण की हवा की वजह से देशभर की सूखी हुई लताओं और पत्तों ने गवाक्ष-पथ से भीतर घुसकर कमरे को भर दिया है, तख्त को भी छा दिया है। फर्श पर पैर पड़ते ही शरीर सनसना उठा। खाट के पाये के पास चूहे ने अपना बिल बनाकर मिट्टी जमा कर रक्खी है। मैंने उसे दिखाकर कहा, “गौहर, कमरे में तुम लोग क्या कभी झाँकते भी नहीं?”गौहर ने जवाब दिया, “नहीं, जरूरत ही नहीं पड़ती। मैं अन्दर ही रहता हूँ। कल सब साफ करा दूँगा।”“साफ तो हो जाएगा, लेकिन इस बिल में साँप भी तो रह सकते हैं?”नौकर ने कहा, “दो थे, लेकिन अब नहीं हैं। ऐसे दिनों में वे नहीं रहते, हवा खाने के लिए बाहर चले जाते हैं।”पूछा, “यह कैसे मालूम हुआ मियाँ?”गौहर ने हँसते हुए कहा, “यह मियाँ नहीं है, अपना नवीन है। पिताजी के जमाने का आदमी है। गाय-भैंस, खेती-बारी देखता है और मकान की हिफाजत भी करता है। हमारे यहाँ क्या है, और क्या नहीं है, इसे सब पता है।” नवीन बंगाली हिन्दू है और है पिता के जमाने का आदमी। इस घर की गाय-भैसें, खेती-बारी से लेकर मकान तक का सारा हाल जानना उसके लिए असम्भव नहीं है। तथापि साँप के बारे में उसकी बातों से निश्चिन्त न हो सका। यहाँ तो मकान-भर को दक्षिणी हवा लग गयी है! सोचा, इसमें शक नहीं कि हवा के लोभ में सर्प-युग्ल बाहर जा सकते हैं, परन्तु, उन्हें लौटते भी कितनी देर लग सकती है?गौहर ने ताड़ लिया कि मुझे तसल्ली नहीं हुई है। कहा, “तुम तो खाट पर रहोगे, फिर तुम्हें डर किस बात का? इसके अलावा वे कहाँ नहीं रहते? भाग्य में लिखा था, इससे राजा परीक्षित को भी रिहाई नहीं मिली, फिर हम तो तुच्छ हैं। नवीन, कमरे में झाडू लगाकर एक ईंट से बिल को ढक देना, भूलना नहीं। पर श्रीकान्त, कहो तो, तुम खाओगे क्या?”मैंने कहा, “जो कुछ मिल जाए।”नवीन बोला, “दूध, चिवड़ा और अच्छी ईख का गुड़ है। आज के लायक-”मैंने कहा, “ठीक है, ठीक है। इस मकान में ये ही चीजें खाने की मुझे आदत है, और कुछ जुटाने की जरूरत नहीं, भाई। बल्कि, तुम कहीं से एक हल्की ईंट ले आओ। बिल को मजबूती से ढक दो, जिससे दक्षिण की हवा से पेट भरकर जब वे घर लौटें तो फिर एकाएक इसमें न घुस सकें।” हाथ में रोशनी लेकर नवीन कुछ देर तक तख्त के नीचे झाँकता रहा। फिर बोला, “नहीं, नहीं हो सकता।”“क्या नहीं हो सकता जी?”उसने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, यह नहीं हो सकता। बिल का मुँह क्या अकेला है बाबू? पजाबा-भर ईंटें चाहिए। चूहों ने जमीन को एकबारगी पोला कर डाला है।”गौहर विशेष विचलित न हुआ। उसने आदमी लगाकर कल अवश्य मरम्मत करा देने का हुक्म दे दिया।नवीन हाथ पैर धोने के लिए पानी देकर फलाहार का आयोजन करने जब भीतर चला गया तो मैंने पूछा, “और तुम क्या खाओगे गौहर?”“मैं? मेरी एक बूढ़ी मौसी हैं, वे ही खाना बनाती हैं। खैर, यह खाना-पीना खत्म हो जाए तो अपनी रचनाएँ तुम्हें सुनाऊँ।” वह अपने काव्य के ध्या न में ही मग्न था। अतिथि के आराम और सुविधा का खयाल शायद उसने किया ही नहीं। बोला, “बिछौना बिछा दूँ, क्या कहते हो? रात को हम दोनों एक साथ ही रहेंगे-क्यों?”यह एक और आफत आई। कहा, “नहीं भाई गौहर, तुम अपने कमरे में जाकर सोओ। आज मैं बहुत थका हुआ हूँ, कल सुबह ही तुम्हारी रचना सुनूँगा।”“कल सुबह? तब क्या वक्त रहेगा?”“अवश्य रहेगा।”गौहर चुप होकर कुछ सोचता रहा। बोला, “अच्छा श्रीकान्त, एक काम किया जाए तो कैसा हो! मैं पढ़ता हूँ और तुम लेटे-लेटे सुनते रहना। नींद आने पर मैं चला जाऊँगा। क्या कहते हो? यह ठीक है न- क्यों?”मैंने विनती करते हुए कहा, “नहीं भाई गौहर, इससे तुम्हारी किताब की मर्यादा नष्ट होगी। कल मैं पूरा ध्या-न लगाकर सुनूँगा।”गौहर ने क्षुब्ध चेहरे से बिदा ली, पर बिदा करके मेरा मन भी प्रसन्न नहीं हुआ।यह एक ही पागल है। पहले इसके इशारों से तो मैंने यही समझा था कि अपने काव्य-ग्रन्थ को वह प्रकाशित करना चाहता है और उसे आशा है कि उससे संसार में एक धूम मच जायेगी। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। पाठशाला और स्कूल में उसने सिर्फ थोड़ी-सी बंगला और अंगरेज़ी सीखी थी। इच्छा भी नहीं थी, और शायद समय भी नहीं मिला। शैशव में न जाने कब और कैसे वह कविता से प्रेम कर बैठा। सम्भव है कि वह प्रेम उसकी शिराओं के खून में ही बह रहा हो-इसके बाद संसार का सब कुछ उसकी नजरों में अर्थहीन हो गया है। अपनी अनेक रचनाएँ उसे याद हैं। गाड़ी में बैठा हुआ बीच-बीच में वह गुनगुनाकर आवृत्ति भी करता था। उस वक्त सुनकर यह नहीं सोचा था कि इस अक्षय भक्त को वाग्देवी अपने स्वर्ण-पद्म की एक पंखुड़ी देकर किसी दिन पुरस्कृत करेंगी। पर अक्लान्त आराधना के एकाग्र आत्म निवेदन में इस बेचारे को विराम नहीं, विश्राम नहीं। बिछौने पर लेटा हुआ सोचने लगा कि बारह साल बाद मुलाकात हुई है। इन बारह वर्षों से उसने सब पार्थिव स्वार्थों को जलांजलि देकर और एक रचना के बाद दूसरी गूँथ करके श्लोकों का पहाड़ जमा कर लिया है। पर यह सब किस काम में आयेगा? जानता हूँ कि काम में नहीं आएगा। गौहर आज नहीं है पर उसकी दुश्चर तपस्या की अकृतार्थता स्मरण कर आज भी मन दुखी होता है। सोचता हूँ कि न जाने कितने शोभाहीन, गन्धहीन फूल लोक-चक्षुओं के अन्तराल में खिलते हैं और फिर अपने आप ही मुरझा जाते हैं। परन्तु, विश्व-विधान में यदि उनकी कोई सार्थकता है, तो शायद गौहर की साधना भी व्यर्थ नहीं हुई होगी।गौहर ने बहुत सबेरे ही पुकारकर मेरी नींद खोल दी। तब शायद सात बजे थे, या न भी बजे हों। उसकी इच्छा थी कि वसन्त के दिनों में बंगाल के निभृत गाँवों के लोकोत्तर शोभा-सौन्दर्य को अपनी ऑंखों से देखकर धन्य होऊँ। उसका भाव कुछ ऐसा था कि मानो मैं विलायत से लौटकर आया हूँ। उसका आग्रह पागलों जैसा था। अनुरोध टालने का उपाय नहीं था। अतएव हाथ-मुँह धोकर तैयार होना पड़ा। प्राचीर से सटे हुए एक अधमरे जामुन के पेड़ के अधिक हिस्से में माधवी और अधिक में मालती लता लिपटी थी। यह कवि की अपनी योजना है। अत्यन्त निर्जीव शकल-तथापि, एक में थोड़े से फूल खिले हैं और दूसरी में अभी कलियाँ फूटी हैं। उसकी इच्छा थी कि थोड़े से फूल मुझे उपहार दे, पर पेड़ में इतने लाल चींटे थे कि छूने का कोई उपाय नहीं सूझा। उसने मुझे यह कहकर सान्त्वना दी कि कुछ देर बाद उन्हें ऑंकड़ी से अनायास ही झड़ा दिया जायेगा। अच्छा, चलो।प्रात:क्रिया ठीक तौर से निष्पन्न हो सके (अर्थात् कब्ज न रहे,) इसके उद्योग-पर्व में नवीन चिलम हाथ में लिये दम लगाकर बड़े जोर से खाँस रहा था। थूककर, खखारकर और बहुत कुछ सँभालकर हाथ हिलाकर उसने मना किया। कहा, “जंगल में कहीं गायब मत हो जाइएगा, कहे देता हूँ।”गौहर ने नाराजगी से कहा, “क्यों रे?”नवीन ने जवाब दिया, “कोई दो-तीन सियार पागल हो गये हैं; ढोर-आदमियों को काटते डोल रहे हैं।”मैं डर के मारे पीछे हट गया।“कहाँ रे नवीन?”“यह क्या मैंने देखा है कि कहाँ हैं? कहीं-न-कहीं झाड़ी-आड़ी में छिपे होंगे। अगर जाते हो तो ऑंखें खोलकर जाना।”“तो भाई, जाने का काम नहीं गौहर।”“वाह रे! इस वक्त कुत्ते और सियार जरा पागल हो ही जाते हैं- सिर्फ इसी वजह से क्या लोग रास्ता चलना बन्द कर देंगे? खूब कहा।”यह भी दक्षिण की हवा का मामला है। अतएव, प्रकृति की शोभा देखने साथ में जाना ही पड़ा। रास्ते में दोनों ओर आम के बगीचे हैं। करीब पहुँचते ही असंख्य छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े चड़-चड़ पट-पट आवाज करते हुए आम्र-मुकलों को छोड़कर ऑंख, नाक, मुँह और कपड़ों के भीतर घुस गये। सूखे पत्तों पर आम का मधु गिरकर चिपकनी लेई की तरह हो गया था, वह जूते के तलों में चिपकने लगा। सँकरे रास्ते का बहुत-सा हिस्सा बेदखल कर विराजमान मुकलित-विकसित फूलों के भार से लदीं घनी करौंदे की झाड़ियाँ- इसी समय यदि आ गयीं नवीन की चेतावनी। गौहर के मतानुसार यह वक्त पागल होने लायक ही है, इसलिए करौदे के फूलों की शोभा और किसी दिन समय के अनुसार उपभोग की जायेगी। आज गौहर और मैं- यानी नवीन के 'ढोर आदमी' ने जरा तेज कदम से ही स्थान त्याग किया।मैं कह चुका हूँ कि हमारे गाँव की नदी इस गाँव की सीमा में भी होकर बहती है। वर्षा की चौड़ी जलधारा वसन्त के समागम से पतली शीर्ण हो गयी है। उस समय धार के साथ बहकर आई अपरिमेय सिवार और काई शुष्क तट-भूमि पर फैल गयी है और शिशिर और धूप में सड़कर उसने सारी जगह को दुर्गेन्ध से नरक-कुण्ड बना दिया है। नदी के उस पार कुछ दूर से मरके पेड़ में सैकड़ों लाल फूल खिले हुए थे। उन पर पड़ी, लेकिन इस वक्त कवि को भी उस ओर दृष्टि आकर्षित करना ठीक नहीं लगा। उसने कहा, “चलो, घर लौट चलें।”“अच्छा, चलो।”“मेरा खयाल था कि ये सब चीजें अच्छी लगेंगी।”कहा, “अच्छी लगेंगी भाई, लगेंगी। अच्छे-अच्छे शब्दों में तुम इनको कविता में लिखो, मैं पढ़कर खुश हूँगा।”“शायद इसीलिए गाँव के आदमी एक बार भूलकर भी इन्हें नहीं देखते।”“नहीं। देखते-देखते उन्हें अरुचि हो गयी है। भाई, ऑंखों की रुचि और कानों की रुचि एक नहीं है। जो यह सोचते हैं कि कवि के वर्णन को अपनी ऑंखों देखने पर लोग मोहित हो जाते हैं, वह नहीं जानते सत्य क्या है। दुनिया के हर काम में यह बात लागू है। ऑंखों के लिए जो एक साधारण घटना या बहुत मामूली-सी वस्तु है वही कवि की भाषा में 'नयी सृष्टि' हो जाती है। तुम जो देखते हो वह भी सत्य है, और जो मैं नहीं देख सका वह भी सत्य है। इसके लिए तुम दुखी मत होना गौहर।'तो भी लौटते समय रास्ते में उसने न जाने कितनी और क्या-क्या वस्तुएँ दिखाने की चेष्टा की। पथ का प्रत्येक वृक्ष, प्रत्येक लता पौधा तक मानो उसका पहिचाना हुआ है। न जाने कब एक पेड़ की छाल औषधि के लिए कोई छीलकर ले गया था और उससे चिपकनेवाला पदार्थ अब भी झर रहा था। सहसा उसे देखकर गौहर सिहर-सा उठा। उसकी ऑंखें छलछला आयीं, मैं उसके मुँह की ओर देखकर यह स्पष्टतया समझ गया कि अन्तर में उसने कितनी वेदना का अनुभव किया है। चक्रवर्ती जो अपनी सब खोई हुई चीजें पुन: वापस प्राप्त कर रहा था, सो केवल अपनी होशियारी के कारण नहीं, इसका कारण तो गौहर के स्वभाव में ही है। ब्राह्मण के प्रति मेरा क्रोध बहुत कुछ अपने आप ही कम हो गया। चक्रवर्ती से मुलाकात नहीं हुई, क्योंकि सुना गया कि उसके घर में उसके दो नातियों पर शीतला-माता की कृपा हुई है। अब तक गाँव-गाँव में विसूचिका-माता के दर्शन नहीं हुए हैं- वे सड़ी हुए तलैयों के पानी के थोड़ा और सूख जाने की राह देख रही हैं।खैर, घर पहुँचकर गौहर ने अपना पोथा मेरे सामने हाजिर कर दिया। ऐसा आदमी संसार में बिरला ही होगा जिसे उसका परिणाम देखकर भय न लगता। बोला, “बिना पढ़े छुट्टी नहीं मिलेगी श्रीकान्त, और तुम्हें अपनी सच-सच राय देनी होगी।”यह आशंका तो थी ही। साफ-साफ राजी हो सकूँ, इतना साहस नहीं था, तो भी कवि की वाटिका में इस यात्रा के, एक के बाद एक, मेरे सात दिन काव्यालोचना में ही कट गये। काव्य की बात जाने दो, किन्तु सघन साहचर्य में इस मनुष्य का जो परिचय मिला, व जितना सुन्दर था उतना ही विस्मयकारक।एक दिन गौहर ने कहा, “श्रीकान्त, तुम्हें बर्मा जाने की क्या जरूरत है? हम दोनों के ही अपना कहने लायक कोई नहीं है, तो आओ ने हम दोनों भाई यहीं एक साथ जीवन बिता दें!”हँसकर कहा, “मैं तो तुम्हारी तरह कवि नहीं हूँ भाई, न पेड़-पौधों की भाषा ही समझता हूँ, और न उनसे बातचीत कर सकता हूँ, फिर इस जंगल में कैसे रह सकूँगा? दो दिन में ही हाँफ जाऊँगा”गौहर ने गम्भीर होकर कहा, “किन्तु मैं उनकी भाषा वाकई समझता हूँ। वे सचमुच बोलते हैं- क्या तुम लोग विश्वास नहीं करते?”मैंने कहा, “यह तो तुम भी समझते हो कि विश्वास करना मुश्किल है?”गौहर ने सरलता से स्वीकार कर लिया, कहा, “हाँ, हाँ, यह तो समझता हूँ।”एक दिन सुबह अपनी रामायण का अशोक-वन वाला अध्या य कुछ देर तक पढ़ने के बाद उसने हठात् किताब बन्द कर दी और मेरी ओर घूमकर प्रश्न किया, “अच्छा श्रीकान्त, तुमने कभी किसी को प्यार किया है?”कल बहुत रात तक जागकर राजलक्ष्मी को शायद अपनी अन्तिम चिट्टी- लिखी थी। उसमें बाबा की बातें, पूँटू की कथा और उसके दुर्भाग्य का समस्त विवरण था। उन लोगों को वचन दिया था कि एक आदमी की अनुमति माँग लूँगा- सो वह भिक्षा भी उसमें माँगी थी। चिट्ठी भेजी नहीं थी, उस वक्त पॉकेट में ही पड़ी हुई थी। गौहर के प्रश्न के उत्तर में हँसकर कहा, “नहीं।”गौहर ने कहा, “यदि कभी प्यार करो, यदि कभी ऐसा दिन आये तो मुझे जताना श्रीकान्त।”“जानकर क्या करोगे?”“कुछ भी नहीं। तब सिर्फ तुम लोगों के बीच जाकर कुछ दिन काट आऊँगा।”“अच्छा।”“और अगर उस वक्त रुपयों की जरूरत हो तो मुझे खबर दे देना। बाबूजी बहुत रूपये छोड़ गये हैं, वह मेरे काम में तो लगा नहीं- किन्तु शायद तुम लोगों के काम में लग जाये।”उसके कहने का तरीका कुछ ऐसा था कि सुनते ही ऑंखों से अश्रु निकल पड़े। कहा, “अच्छा, यह भी खबर दूँगा। पर आशीर्वाद दो कि इसकी कभी जरूरत न पड़े।”मेरे जाने के दिन गौहर फिर मेरा बैग उठाकर प्रस्तुत हो गया। इसकी जरूरत न थी, नवीन तो शर्म से प्राय: अधमरा हो गया, पर उसने एक न सुनी। ट्रेन में बैठाकर वह औरतों की तरह रो उठा, बोला, “मेरे सिरकी कसम है श्रीकान्त, चले जाने के पहले एक दिन फिर आना ताकि फिर एक बार मुलाकात हो जाय।”आवेदन की उपेक्षा नहीं कर सका, वचन दिया कि मिलने के लिए फिर एक बार आऊँगा।“कलकत्ता पहुँचकर कुशल-संवाद दोगे न?”यह वचन भी दिया। मानो न जाने कितनी दूर चला जा रहा हूँ!कलकत्ते के मकान में जब पहुँचा, तब प्राय: संध्याल हो गयी थी। चौखट पर पैर रखते ही जिसके दर्शन हुए, वह और कोई नहीं स्वयं रतन था।“यह क्या रे, तू है?”“हाँ, मैं ही हूँ और कल से बैठा हूँ। एक चिट्ठी है।” समझ गया कि उसी प्रार्थना का उत्तर है। कहा, “डाक से भेजने पर भी तो चिट्ठी मिल जाती?”रतन ने कहा, “यह व्यवस्था किसान, मजदूर और साधारण गृहस्थ के लिए है। माँ की चिट्ठी अगर एक आदमी बिना खाये-पीये और सोये पाँच-सौ मील हाथ में लिए दौड़ता हुआ न लाये, तो खो न जायेगी? आप तो सब जानते हैं, क्यों झूठ-मूठ पूछ रहे हैं?”बाद में सुना कि रतन का यह अभियोग झूठा है। क्योंकि खुद ही उद्यत होकर वह यह चिट्ठी अपने हाथ लाया है। मालूम हुआ कि ट्रेन की भीड़ और आहार वगैरह की अव्यवस्था के कारण उसका मिजाज बिगड़ गया है। हँसकर कहा, “ऊपर आ। चिट्ठी पीछे पढ़ूँगा, चल, पहले तेरे खाने का इन्तजाम कर दूँ।”रतन ने पैरों की धूल लेकर प्रणाम किया और कहा, “चलिए।”♦♦ • ♦♦डकार से चौंकाता हुआ रतन दाखिल हुआ।“कह रतन, पेट भर गया?”“जी हाँ। आप चाहे कुछ भी कहें बाबू, लेकिन हमारे कलकत्ते के बंगाली ब्राह्मणों के अलावा और कोई रसोई बनाना नहीं जानता। उनके आगे तो इन मारवाड़ी महाराजों को जानवर ही कहा जा सकता है।”मुझे याद नहीं कि दोनों प्रान्तों की रसोई की अच्छाई-बुराई या रसोइये की कला के बारे में रतन से कभी मैंने बहस की हो, पर रतन की जितना जानता हूँ उससे यही खयाल हुआ कि सुप्रचुर भोजन से वह खूब सन्तुष्ट हुआ है। अगर यह बात न होती तो वह पश्चिमी रसोइयों के बारे में ऐसी निरपेक्ष राय न दे सकता। उसने कहा, “गाड़ी में धक्के तो कम नहीं लगे, हाथ-पैर फैलाकर लेटे बिना...”“तो अच्छा है रतन, चाहे कमरे में चाहे बरामदे में बिछौना बिछाकर सो जा, कल सब बातें होंगी।”न जाने क्यों चिट्ठी के लिए उत्कण्ठा न थी। ऐसा लग रहा था कि उसमें जो कुछ लिखा होगा वह तो मालूम ही है।रतन ने फतूई की जेब से एक लिफाफा निकालकर मेरे हाथ में दे दिया। चपड़े से सील-मोहर किया हुआ था। बोला, “बरामदे की इस दक्षिणवाली खिड़की के बगल में बिछौना बिछा लूँ? मसहरी लगाने की झंझट नहीं होगी। कलकत्ते के अलावा ऐसा सुख और कहाँ है। जाता हूँ...”“किन्तु सब खबर अच्छी है न रतन?”रतन ने मुँह गम्भीर कर कहा, “ऐसा ही तो लगता है। गुरुदेव की कृपा से मकान का बाहरी हिस्सा गुलजार है। भीतर दास-दासियों, बंकू बाबू, और नयी बहू ने आकर घर-द्वार रोशन कर दिया है, और सबके ऊपर स्वयं माँ हैं जो मकान की मालकिन हैं। ऐसी गृहस्थी की बुराई कौन करेगा? लेकिन मैं बहुत पुराना नौकर हूँ, जाति का नाई हूँ- रतन को इतनी जल्दी भुलावा नहीं दिया जा सकता बाबू। इसीलिए तो उस दिन स्टेशन पर ऑंखों के अश्रु न रोक सका। यह निवेदन किया था कि परदेश में नौकरों की कमी होने पर रतन को एक बार खबर जरूर दे दें। जानता हूँ कि आपकी सेवा करने पर भी उसी माँ की सेवा होगी। धर्म का पतन नहीं होगा।”मैं कुछ भी नहीं समझा, सिर्फ चुपचाप ताकता रहा। वह कहने लगा, “बंकू बाबू की अब उम्र भी हो गयी, थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर आदमी भी बन गये हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरे के अधीन किसलिए रहा जाय। दानपत्र के जोर से सब मार तो लिया ही है। मानता हूँ कि मोटे तौर पर उन्होंने काफी हाथ साफ किया है, पर वह कितने दिनों का है बाबू?”बात अब भी साफ न हुई, पर एक धुँधली छाया ऑंखों के सामने तैर गयीं। वह फिर कहने लगा, “आपने तो खुद अपनी ऑंखों से देखा है कि महीने में कम-से-कम दो दफा मेरी नौकरी छूट जाती है। हालत बुरी नहीं है, नाराज होकर जा भी सकता हूँ, लेकिन क्यों नहीं जाता? जा नहीं सकता। इतना जानता हूँ कि जिसकी दया से सब कुछ हुआ है, उसके एक नि:श्वास से ही आश्विन के मेघ की तरह सब लोप हो जायेगा, वह पलक मारने की भी फुर्सत नहीं देगा। यह माँ की नाराजगी नहीं है, यह तो मेरे देवता का आशीर्वाद है।”यहाँ पाठकों को यह स्मरण करा देना आवश्यक है कि बचपन में रतन थोड़े दिनों तक प्राइमरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर चुका है।कुछ रुककर कहा, “माँ ने मना कर दिया है, इसीलिए कभी कहता नहीं। घर में जो कुछ था बाबा ने ले लिया, यजमानों का एक घर तक नहीं दिया। एक छोटा लड़का और लड़की, और उनकी माँ को छोड़कर पेट के लिए एक दिन गाँव छोड़कर बाहर निकल पड़ा। पर पहले जन्म की तपस्या थी, मेरी नौकरी इन माँ के ही घर लग गयी। सारा दुखड़ा उन्होंने सुना, लेकिन उस वक्त कुछ नहीं कहा। एक वर्ष के बाद मैंने निवेदन किया, “माँ, बच्चों को देखने की इच्छा है, अगर कुछ दिनों की छुट्टी मिल जाती। हँसकर बोलीं, “फिर आओगे न?” जाने के दिन हाथ में एक पोटली देते हुए कहा, “रतन, बाबा से लड़ाई-झगड़ा मत करना भैया, जो कुछ तुम्हारा चला गया है उसे इसके द्वारा फेर लेना।” गठरी खोलकर देखता हूँ तो पाँच-सौ रुपये हैं! पहले तो अपनी ऑंखों पर विश्वास नहीं हुआ। ऐसा लगा, मानो मैं जागृत अवस्था में स्वप्न देख रहा हूँ। मेरी उसी माँ से बंकू बाबू अब उलटी-सीधी बातें कहते हैं, आड़ में खड़े होकर फुस-फुस करते हैं, सोचता हूँ कि अब इनके ज्यादा दिन नहीं हैं, क्योंकि अब माँ-लक्ष्मी जाने ही वाली हैं!”मैंने यह आशंका नहीं की थी, चुपचाप सुनने लगा।ऐसा लगा कि कुछ दिनों से क्रोध और क्षोभ से रतन फूल रहा है। बोला, “माँ जब देती हैं तो दोनों हाथों से उड़ेल देती हैं। बंकू को भी दिया है, इसीलिए उसने यह सोच लिया है कि मधु निचोड़े हुए छत्ते की क्या कीमत?- इस वक्त तो ज्यादा-से-ज्यादा उसे जलाया ही जा सकता है। इसलिए उसको वे इतनी अप्रिय हो रही हैं। मूरख यह नहीं जानता कि आज भी माँ का एक गहना बेचने पर ऐसे पाँच मकान तैयार हो सकते हैं।”मैं भी यह न जानता था। हँसकर कहा, “ऐसी बात है? पर वह सब हैं कहाँ?”रतन भी हँसा। बोला, “उन्हीं के पास है। माँ ऐसी बेवकूफ नहीं। सिर्फ आप ही के चरणों पर सर्वस्व लुटाकर वे भिखारिणी हो सकती हैं, किन्तु और किसी के भी लिए नहीं। बंकू नहीं जानता है कि आपके जिन्दा रहते माँ को आश्रय की कमी न होगी, और जब तक रतन जीवित है तब तक उन्हें नौकर के लिए भी सोचने की जरूरत नहीं। उस दिन काशी से आपके इस तरह चले आने की वजह से माँ के हृदय में कैसा तीर चुभा है, इसकी खबर क्या बंकू बाबू रखते हैं? गुरु महाराज को भी उसकी खोज-खबर कहाँ से मिल सकती है?”“पर मुझे तो उन्होंने ही खुद बिदा किया था, इसकी खबर तो रतन, तुम्हें है?”जीभ निकालकर रतन शर्म से गड़ गया। उसमें इतनी विनय इसके पहले कभी न देखी थी। कहा, “बाबू, हम तो नौकर-चाकर हैं, ये सब बातें हमारे कानों को नहीं सुननी चाहिए। यह झूठ है।”रतन थकावट मिटाने के लिए चला गया। शायद कल आठ बजे के पहले उसके शरीर में स्फूर्ति नहीं आयेगी।दो बड़ी खबरें मिलीं। एक तो यह कि बंकू अब बड़ा हो गया है। पटने में जब पहली बार मैंने उसे देखा था तो उस वक्त उसकी उम्र सोलह-सतरह थी। अब इक्कीस वर्ष का युवक है। बल्कि इन पाँच-छह वर्षों में पढ़-लिखकर वह आदमी बन गया है। अत: शैशव का वह सकृतज्ञ स्नेह यदि आज यौवन के आत्मसम्मान-बोध में सामंजस्य न रख पाता हो, तो इसमें विस्मय की कौन-सी बात है?दूसरी खबर राजलक्ष्मी की गम्भीर वेदना का पता न तो बंकू को और न गुरुदेव को ही आज तक मिला है।मेरे मन में ये ही दो बातें बहुत देर तक घूमती रहीं।बड़े यत्न से अंकित चमड़े की सील-मोहर को देखकर चिट्ठी खोली। उसके हाथ की लिखावट ज्यादा देखने का मौका नहीं मिला है, पर, यह खयाल आया कि अक्षर ऐसे तो नहीं हैं कि पढ़ने में तकलीफ हो, लेकिन फिर भी अच्छे नहीं हैं। पर यह पत्र उसने बहुत सावधानी से लिखा है। शायद उसे डर था कि मैं चिढ़कर फेंक न दूँ, बल्कि शुरू से आखिर तक सब कुछ आसानी से पढ़ जा सकूँ।आचार और आचरण में राजलक्ष्मी उस युग की प्राणी है। प्रणय-निवेदन की अधिकता तो दूर की बात है, बल्कि यह भी याद नहीं आता कि उसने मेरे सामने कभी कहा हो कि 'प्रेम करती हूँ।' उसने चिट्ठी लिखी है- मेरी प्रार्थना के अनुकूल अनुमति देकर। तो भी, न जाने क्या है, पढ़ने में जाने क्यों डर लगने लगा। उसके बाल्य-काल की याद आ गयी। उस दिन गुरुमहाशय की पाठशाला में उसका पढ़ना-लिखना बन्द हो गया था। बाद में शायद घर पर ही थोड़ा-बहुत पढ़-लिख लिया होगा। अतएव, भाषा का इन्द्रजाल, शब्दों की झनकार, पद-विन्यास की मधुरता की उसके पत्र में आशा करना अन्याय है। कुछ मामूली प्रचलित बातों में ही मन के भाव व्यक्त करने के अलावा वह और क्या करेगी? अनुमति देकर मामूली शुभ-कामना की दो लाइनें होंगी- यही तो? पर लिफाफा खोलकर पढ़ना शुरू करते ही कुछ देर के लिए बाहर का और कुछ भी याद न रहा। पत्र लम्बा नहीं है, लेकिन भाषा और भंगी जितनी सरल और सहज समझी थी, उतनी नहीं है। मेरे आवेदन का उत्तर उसने इस तरह दिया है-“काशीधाम“प्रणाम के उपरान्त सेविका का निवेदन।“इस बार मिलाकर कुल सौ दफा तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी। तो भी यह समझ में नहीं आया कि तुम पागल हो गये हो या मैं। तुमने शायद यह खयाल किया है कि मैंने तुम्हें पड़ा हुआ पा लिया था। परन्तु तुम कहीं पड़े हुए नहीं थे, तुम बहुत तपस्या के बाद मिले थे, बहुत आराधाना के बाद। इसीलिए, बिदा देने के मालिक तुम नहीं। मुझे त्याग करने का मालिकाना स्वत्वाधिकार तुम्हारे हाथों में नहीं है।“तुम्हें याद नहीं, फूलों के बदले वन से करौंदे तोड़, उनकी माला गूँथकर, किस शैशव में तुम्हें वरण किया था। हाथों में काँटे चुभ जाने की वजह से खून बहने लगता था, लाल माला का वह लाल रंग तुम नहीं पहिचान सके थे। बालिका की पूजा का अर्घ्य उस दिन तुम्हारे गले में था। परन्तु तुम्हारे हृदय पर रक्त-रेखा से जो लेखा अंकित कर देती थी, वह तुम्हारी नज़रों में नहीं पड़ी। पर जिसकी नजरों से संसार का कुछ भी छिपा नहीं रह सकता, उनके पाद-पद्मों में मेरा वह निवेदन पहुँच गया था।“उसके बाद आई दुर्योग की रात। काले मेघों ने मेरे आकाश की ज्योत्स्ना ढँक दी। किन्तु वास्तव में वह मैं हूँ या और कोई, इस जीवन में यथार्थ रूप में वे सब बातें हुई थीं या सोते-सोते स्वप्न देख रही थी-यह सोचते ही बहुधा मुझे डर लगता है मैं पागल हो जाऊँगी। तब सब भूलकर जिसका ध्यादन लगाकर बैठती हूँ, उसका नाम नहीं लिया जाता। किसी से कहने की बात नहीं है। उनकी क्षमा ही मेरे जगदीश्वर की क्षमा है। इसमें गलती नहीं है, सन्देह नहीं। यहाँ मैं निर्भय हूँ।“हाँ, कहा था कि इसके बाद मेरे बुरे दिनों की रात आयी, दोनों ऑंखों की सारी रोशनी को कलंक ने बुझा दिया। पर वही क्या मनुष्य का समस्त परिचय है? उस अखण्ड ग्लानि के घने आवरण के बाहर उसका क्या और कुछ भी बाकी नहीं है?“है। अव्याहत अपराध के बीच-बीच उसे मैंने बार-बार देखा है। अगर ऐसा न होता, विगत दिनों का राक्षस यदि मेरे समस्त अनागत मंगल को नि:शेष ग्रास कर लेता, तो तुम फिर मुझे कैसे मिलते? मेरे ही हाथों में लाकर फिर तुम्हें कौन सौंप जाता?“मुझसे तुम चार-पाँच वर्ष बड़े हो, तो भी तुम्हें जो अच्छा लगता है वह मुझे शोभा नहीं देता। मैं बंगाली घर की लड़की हूँ, जीवन के सत्ताईस वर्ष पार कर चुकने के बाद यौवन का दावा और नहीं करती। मुझे तुम गलत मत समझना- चाहे जितनी ही अधम क्यों न होऊँ। अगर वह बात तुम्हारे मन में क्षणभर के लिए घुणाक्षर न्याय से भी आये, तो इससे बढ़कर शर्म की बात मेरे लिए और कोई नहीं है। बंकू जिन्दा रहे, वह बड़ा हो गया है। उसकी बहू आ गयी है- तुम्हारी शादी के बाद उन लोगों के सामने मैं किस मुँह से निकलूँगी? यह अपमान कैसे सहूँगी?“यदि तुम कभी बीमार पड़ो तो सेवा कौन करेगा-पूँटू? और मैं तुम्हारे मकानके बाहर से ही नौकर के मुँह से खबर पूँछकर लौट आऊँगी? इसके बाद भी जीवित रहने के लिए कहते हो?“शायद प्रश्न करोगे, तो क्या हमेशा ही ऐसा नि:संग जीवन काटूँ? पर प्रश्न चाहे कुछ भी हो, उसका जवाब देने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं है, तुम्हारे ऊपर है। फिर भी अगर तुम बिल्कुनल ही कुछ न सोच सको- बुद्धि का इतना क्षय हो गया हो तो मैं उधार दे सकती हूँ, वह लौटानी नहीं पड़ेगी- लेकिन देखो, ऋण को कहीं अस्वीकार मत कर देना!“तुम सोचते हो कि गुरुदेव ने मुझे मुक्ति का मन्त्र दिया है, शास्त्रों ने पथ का संधान दिया है, सुनन्दा ने धर्म की प्रवृत्ति दी है, और तुमने दिया है सिर्फ भार-बोझा। ऐसे ही अन्धे हो तुम लोग!“पूछती हूँ, तुम्हें तो मैंने तेईस वर्ष की उम्र में पा लिया था, पर इसके पहले ये सब कहाँ थे? तुम इतना ज्यादा सोच सकते हो और यह नहीं सोच सकते?”“मुझे आशा थी कि एक दिन मेरे सब पापों का अन्त हो जायेगा, मैं निष्पाप हो जाऊँगी। यह लोभ क्यों है, जानते हो? स्वर्ग के लिए नहीं- वह मुझे नहीं चाहिए। मेरी कामना है कि मरने के बाद फिर आकर जन्म ले सकूँ। इसके मानी समझ सकते हो?“सोचा था कि पानी की धारा में कीचड़ मिल गयी है- मुझे उसे निर्मल करना ही पड़ेगा। पर आज अगर उसका मूल स्रोत ही सूख जाय, तो पड़ा रह जायेगा मेरा जप-तप, पूजा-अर्चना, रह जायेगी सुनन्दा, पड़े रहेंगे मेरे गुरुदेव।स्वेच्छा से मैं मरना नहीं चाहती। पर मेरे अपमान करने का ही कूट कौशल अगर तुमने रचा हो तो इस विचार को छोड़ दो। अगर तुम विष दोगे तो मैं पी लूँगी, पर उसे न ले सकूँगी। मुझे जानते हो, इसलिए यह बता दिया कि जो सूर्य अस्त होगा उसके पुन: उदय की अपेक्षा में बैठे रहने का वक्त अब मेरे पास नहीं है। इति।राजलक्ष्मी।”छुटकारा मिला। सुनिश्चित कठोर अनुशासन की चरम-लिपि भेजकर उसने एक ओर से मुझे बिल्कुाल निश्चिन्त कर दिया। इस जीवन में उस विषय में सोचने के लिए अब और कुछ नहीं रहा। पर नि:संशयपूर्वक यह तो मालूम हुआ कि क्या नहीं कर सकूँगा। पर इसके बाद मुझे क्या करना होगा, इस बारे में राजलक्ष्मी बिल्कुाल चुप है। शायद उपदेशों से भरी हुई एक चिट्ठी और किसी दिन लिखेगी, अथवा सशरीर मुझे ही तलब करेगी। लेकिन इस वक्त जो व्यवस्था हो गयी है वह बहुत ही सुन्दर है। इधर बाबा-महोदय सम्भवत: कल सुबह ही आकर हाजिर होंगे। उन्हें भरोसा दे आया हूँ कि फिक्र करने की जरूरत नहीं, अनुमति मिलने में कोई विघ्न न होगा। पर जो कुछ आ पहुँचा, वह निर्विघ्न अनुमति ही तो है। रतन नाई के हाथ उसने कपड़े और मौर मुकुट नहीं भेजा, यही बहुत है।दूसरी ओर देश के मकान में विवाह का आयोजन निश्चय ही अग्रसर हो रहा होगा। पूँटू के आत्मीय स्वजनों में से कोई कोई शायद आकर हाजिर हो रहे होंगे, तथा प्राप्त वयस्क अपराधी लड़की को इतने दिनों तक लांछना और भर्त्सना के बदले अब कुछ आदर मिल रहा होगा। यह जानता हूँ कि बाबा से क्या कहूँगा। पर वह बात कैसे कहूँगा, यही समझ में नहीं आता। उनके निर्मम तकाजों, लज्जाहीन युक्तियों और वकालत के बारे में मन ही मन सोचकर एक ओर हृदय जितना तिक्त हो उठा, दूसरी ओर व्यर्थ प्रत्यावर्तन की निराशा से चिढ़े हुए परिवार वालों के उस अभागी लड़की को और भी ज्यादा उत्पीड़ित करने की बात सोचते ही हृदय को उतनी ही व्यथा पहुँची। पर उपाय क्या है? बिछौने पर लेटा हुआ बहुत रात तक जागता रहा। पूँटू की बात भूलने में देर नहीं लगी, पर गंगामाटी की याद बराबर आने लगी। जन-विरल उस क्षुद्र गाँव की स्मृति कभी मिट नहीं सकती। इस जीवन की गंगा-जमुना की धारा एक दिन यहीं आकर मिली थी, और थोड़े अरसे तक पास-पास प्रवाहित हो एक दिन यहीं फिर अलग हो गयी थी। एक साथ रहने के वे क्षणस्थायी दिन श्रद्धा से गहरे, स्नेह से मधुर, आनन्द से उज्ज्वल और उनकी ही तरह नि:शब्द वेदना से अत्यधिक स्तब्ध हैं। विच्छेद के दिन भी हमने प्रवंचना की निन्दा से एक दूसरे को कलंक नहीं लगाया, नफे-नुकसान के फिजूल के वाद-विवाद से गंगामाटी के शान्त गृह को हम धूमाच्छन्न करके नहीं आया। वहाँ के सब लोग यही जानते हैं कि फिर एक दिन हम लौट आयँगे, फिर हँसी-खुशी शुरू होगी और फिर आरम्भ होगी भूस्वामिनी की दीन-दुखियों की सेवा और सत्कार। पर वह सम्भावना तो खत्म हो गयी है-प्रभात की विकसित मल्लिका दिन के अन्त का हुक्म मानकर चुप हो गयी है- यह बात वे स्वप्न में भी नहीं सोचेंगे।ऑंखों में नींद नहीं है, निद्राहीन रजनी प्रात:काल की ओर जितनी आगे बढ़ने लगी, उतनी ही यह इच्छा होने लगी कि यह रात खत्म ही न हो! सिर्फ यही एक चिन्ता मानो मुझे मोहाच्छन्न करके रखे रही।बीती हुई कहानी घूम-फिरकर मन में आ जाती है। वीरभूमि‍ जिले की वह तुच्छ कुटिया मन पर भूत की तरह चढ़ जाती है, हमेशा काम-काज में फँसी हुई राजलक्ष्मी के दोनों स्निग्ध हाथ ऑंखों के सामने साफ नजर आते हैं, इस जीवन में परितृप्ति का ऐसा आस्वादन कभी किया है, यह याद नहीं आता।अभी तक पकड़ा ही गया हूँ, पकड़ नहीं पाया हूँ। पर राजलक्ष्मी की सबसे बड़ी कमजोरी कहाँ है, आज पकड़ ली। वह जानती है कि मैं नि‍रोग नहीं हूँ, किसी भी दिन बीमार पड़ सकता हूँ। तब न जाने कहाँ की एक पूँटू मुझे घेरकर बैठी है, राजलक्ष्मी का कोई प्रभुत्व ही नहीं है- इतनी बड़ी दुर्घटना को वह अपने मन में स्थान नहीं दे सकती। संसार की सब चीजों से वह अपने को वंचित कर सकती है पर यह वस्तु असम्भव है- यह उसके लिए असाध्यु है। मौत तुच्छ है, इसके निकट एक ओर रह गये गुरुदेव और एक ओर रह गये उसके जप-तप और व्रत-उपवास। चिट्ठी में उसने मुझे झूठा डर नहीं दिखाया है।सुबह के वक्त शायद सो गया था। रतन की पुकार सुनकर जब उठा तो काफी वक्त हो गया था। उसने कहा, “न जाने कौन एक बूढ़े महाशय घोड़ागाड़ी करके अभी आये हैं।”वे बाबा हैं। पर गाड़ी किराये की करके? सन्देह हुआ।रतन ने कहा, “साथ में एक सतरह-अठारह साल की लड़की है।”वह पूँटू है। यह बेशर्म आदमी उसे कलकत्ते के मकान तक घसीट लाया है। सुबह का प्रकाश तिक्तता से म्लान हो गया। कहा, “उन्हें उस कमरे में लाकर बैठाओ रतन, मैं मुँह-हाथ धोकर आता हूँ।” यह कहकर मैं नीचे के स्नान-घर में चला गया।घण्टे-भर बाद लौटते ही बाबा ने मेरी सादर अभ्यर्थना की, मानो मैं ही उनका अतिथि हूँ, “आओ बेटा, आओ। तबियत अच्छी है न?”मैंने प्रणाम किया। बाबा ने पुकार मचाई “पूँटू, कहाँ गयी?”पूँटू खिड़की के किनारे खड़ी होकर रास्ता देख रही थी, उसने पास आकर मुझे नमस्कार किया।बाबा ने कहा, “इसकी बुआ शादी के पहले एक बार देखना चाहती थी। फूफा तो हाकिम हैं, पाँच सौ रुपया महीना पाते हैं। डायमण्ड हारबर में तबादला हुआ है- घर गृहस्थी छोड़कर बाहर जाने की फुर्सत बुआ को नहीं है। इसलिए साथ लेता आया। सोचा कि दूसरे के हाथों में सौंपने के पहले उन्हें एक बार दिखा लाऊँ। इसकी दादी-माँ ने आशीर्वाद देकर कहा, “पूँटू, ऐसा ही भाग्य तेरा भी हो।”मेरे कुछ कहने के पहले ही खुद बोले, “मैं इतनी जल्दी नहीं छोड़ूँगा भैया। हाकिम हों चाहें और कुछ हों, हैं तो रिश्तेदार-खड़े होकर काम पूरा कराना होगा- तब उन्हें छुट्ठी मिलेगी। जानते तो हो बेटा, कि शुभ कार्य में बहुत विघ्न होते हैं- शास्त्रर में कहा ही है, 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि।' ऐसे एक आदमी के खड़े रहने पर किसी की चूँ तक करने की मजाल नहीं होगी। हमारे गाँव के लोगों का तो विश्वास है नहीं- वे सब कुछ कर सकते हैं। पर वे तो हाकिम हैं, उनकी तो राशि ही न्यारी है।पूँटू के फूफा हैं। समाचार अवान्तर नहीं है- मतलब का है।नया हुक्का खरीदकर रतन सयत्न चिलम सजाकर दे गया। थोड़ी देर तक गौर से देखने के बाद बाबा ने कहा, “ऐसा लगता है कि इस आदमी को कहीं देखा है?”रतन ने फौरन ही कहा, “जी हाँ, देखा क्यों नहीं है। देश के मकान में जब बाबू बीमार थे...”“ओ, तभी तो कहा कि पहिचाना हुआ चेहरा है।”“जी हाँ।” कहकर रतन चला गया।बाबा का मुँह अत्यन्त गम्भीर हो गया। धूर्त्त आदमी ठहरे, शायद उन्हें सारी बातें याद आ गयीं। चुपचाप चिलम के दम लगाते हुए बोले, “आने के लिए दिन देखकर आया था। बहुत अच्छा दिन है। मेरी इच्छा है कि आशीर्वाद का काम ऐसे ही खत्म कर जाऊँ। नूतन बाजार में तो सभी चीजें बिकती हैं। नौकर को एक बार भेज नहीं सकते? क्या कहते हो?”जब कुछ भी कहने को न मिला तो किसी तरह सिर्फ कह दिया, “नहीं।”“नहीं? नहीं क्यों? बारह बजे तक दिन बहुत अच्छा है। पंचांग है?”मैंने कहा, “पंचांग की जरूरत नहीं। मैं विवाह नहीं कर सकता।”बाबा ने हुक्के को दीवार से लगाकर रख दिया। चेहरा देखकर मैं ताड़ गया कि वह युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं। गले को बहुत शान्त और गम्भीर बनाकर कहा, “सारा आयोजन एक तरह से पूरा हो गया है। लड़की के ब्याह की बात है, हँसी-मजाक का मामला तो है नहीं। बचन दे आने पर अब ना करने पर कैसे काम चलेगा?”पूँटू पीठ किये खिड़की के बाहर देख रही है और दरवाजे की आड़ में रतन कान लगाये खड़ा है, यह अच्छी तरह मालूम हो गया।मैंने कहा, “वचन देकर तो नहीं आया था, यह आप भी जानते हैं और मैं भी। कहा था कि एक व्यक्ति की अनुमति मिल जाने पर राजी हो सकता हूँ।”“अनुमति नहीं मिली?”“नहीं।”बाबा एक क्षण ठहरकर बेले, “पूँटू के पिता कहते हैं कि सब मिलाकर वह एक हजार रुपये देंगे। ज्यादा जोर लगाने पर और भी सौ-दो सौ दे सकते हैं; क्या कहते हो?”रतन ने कमरे में घुसकर कहा, “तम्बाकू क्या एक बार और बदल दूँ?”“बदल दो। तुम्हारा नाम क्या है जी?”“रतन।”“रतन? बड़ा सुन्दर नाम है, कहाँ रहते हो?'“काशी में।”“काशी? देवी आजकल शायद काशी में रहती है? वहाँ क्या करती है।”रतन ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “उस समाचार से आपको मतलब?”बाबा जरा हँसकर बोले, “नाराज क्यों होते हो बापू, क्रोध करने की तो कोई बात नहीं। गाँव की लड़की है न, इसीलिए खबर जानने की इच्छा होती है। शायद उसके पास भी कभी जा पड़ना पड़े। खैर, वह अच्छी तरह तो है?”रतन बिना कोई जवाब दिये ही चला गया, और कोई दो मिनट बाद ही चिलम को फूँकता हुआ लौट आया और हुक्का हाथ में थमाकर चला जा रहा था कि बाबा बड़े जोर से कई दम लगाकर ही उठ खड़े हुए। बोले, “ठहरो तो भई, जरा पाखाना दिखा दो। सुबह ही निकल पड़ा हूँ न! कहते-कहते वे रतन के आगे ही बहुत तेजी के साथ कमरे से बाहर निकल गये।”पूँटू ने मुँह फिराकर देखा और कहा, “बाबा की बातों पर आप एतबार मत कीजिए। पिताजी के पास हजार रुपये कहाँ हैं जो देंगे? किसी तरह दूसरों के गहने मँगनी माँगकर जीजी की शादी की थी- अब वे लोग जीजी को नहीं बुलाते। कहते हैं कि हम लड़के की दूसरी शादी करेंगे।”इस लड़की ने इतनी बातें मुझसे पहले नहीं कही थीं। कुछ चकित होकर पूछा, “तुम्हारे पिताजी वाकई हजार रुपये नहीं दे सकते?”पूँटू ने सिर हिलाकर कहा, “कभी नहीं। पिताजी को रेल में सिर्फ चालीस रुपये मिलते हैं। स्कूल की फीस की वजह से ही मेरे छोटे भाई की पढ़ाई बन्द हो गयी। वह कितना रोता है!” कहते-कहते उसकी दोनों ऑंखें छलछला आयीं।प्रश्न किया, “सिर्फ रुपये के कारण ही तुम्हारी शादी नहीं हो रही है?”पूँटू ने कहा, “हाँ इसी वजह से। हमारे गाँव के अमूल्य बाबू के साथ पिताजी ने सम्बन्ध पक्का किया था। उनकी लड़कियाँ भी मुझसे बहुत बड़ी हैं। इस पर माँ पानी में डूब मरने को गयी, तो शादी रुक गयी। इस बार शायद पिताजी किसी की कुछ न सुनेंगे, वहीं मेरी शादी कर देंगे।”पूछा, “पूँटू, मैं तुम्हें पसन्द हूँ?”पूँटू ने लज्जा से मुँह नीचा कर जरा सिर हिला दिया।“पर मैं भी तो तुमसे चौदह-पन्द्रह साल बड़ा हूँ?”पूँटू ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया।पूछा, “तुम्हारा क्या और कहीं कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था?”पूँटू ने खुश होकर मुँह ऊपर उठाते हुए कहा, “हुआ तो था। आप अपने गाँव के कालिदास बाबू को जानते हैं? उनके छोटे लड़के ने बी.ए. पास किया है। उम्र भी मुझसे थोड़ी ही ज्यादा है। उसका नाम शशधर है।”“वह तुम्हें पसन्द है?”पूँटू हठात् हँस पड़ी।मैंने कहा, “पर शशधर अगर तुम्हें पसन्द न करे?”पूँटू ने कहा, “पसन्द क्यों न करेगा? हमारे मकान के सामने होकर बार-बार आता-जाता रहता है। राँगा दीदी हँसी में कहती थीं कि वह सिर्फ मेरे लिए ही चक्कर काटता है।”“तो यह शादी क्यों नहीं हुई?”पूँटू का चेहरा मलिन हो गया। कहा, “उसके पिता हजार रुपये नकद और हजार रुपये के गहने माँगते थे। ऊपर से शादी में भी पाँच सौ रुपये खर्च न हो जाते? इतना तो जमींदार के घर की लड़की के लिए ही हो सकता है। सच है न? वे बड़े आदमी हैं, उनके पास बहुत रुपये हैं मेरी माँ उनके यहाँ गयी और बहुत हाथ-पैर जोड़े, पर उन्होंने एक नहीं सुनी।”“शशधर ने कुछ नहीं कहा?”“नहीं, कुछ नहीं। पर वह भी तो बहुत बड़ा नहीं है- उसके माँ-बाप जिन्दा हैं न?”'यही सही है। शशधर की शादी हो गयी?”पूँटू ने व्यग्र होकर कहा, “नहीं, अभी नहीं हुई। सुना है कि जल्दी ही होगी।”“अच्छा, वहाँ तुम्हारी शादी हो जाने पर अगर वे लोग तुमसे प्रेम न करें?”“मुझसे? प्रेम क्यों नहीं करेंगे? मैं रसोई बनाना, सिलाई करना और गृहस्थी के सारे काम जानती हूँ? मैं अकेली ही उनका सारा काम कर दूँगी।”इससे ज्यादा बंगाली घराने की लड़की और क्या जानती है? शारीरिक परिश्रम द्वारा ही वह सब कमियों की पूर्ति करना चाहती है। पूछा, “उन लोगों का सब काम अवश्य करोगी न?”“हाँ, निश्चय करूँगी।”“तो तुम अपनी माँ से जाकर कह दो कि श्रीकान्त दादा ढाई हजार रुपये भेज देंगे।”“आप भेज देंगे? तो फिर वायदा कीजिए कि शादी के दिन आयेंगे?”“अच्छा, आऊँगा।”दरवाजे की देहली पर बाबा की आवाज़ सुनाई दी।उन्होंने लाँग से मुँह पोंछते-पोंछते प्रवेश किया और कहा, “तुम्हारा पायखाना तो बहुत अच्छा है भैया! सो जाने की इच्छा होती है। गया कहाँ रतन, और एक चिलम तम्बाकू सजा दे न।”

अध्याय 15 अब तक का मेरा जीवन एक उपग्रह की तरह ही बीता, जिसको केन्द्र बनाकर घूमता रहा हूँ उसके निकट तक न तो मिला पहुँचने का अधिकार और न मिली दूर जाने की अनुमति। अधीन नहीं हूँ, लेकिन अपने को स्वाधीन कहने की शक्ति भी मुझमें नहीं। काशी से लौटती हुई ट्रेन में बैठा हुआ बार-बार यही सोच रहा था। सोच रहा था कि मेरी ही किस्मत में बार-बार यह क्यों घटित होता है? मरते दम तक अपना कहने लायक क्या किसी को भी न पा सकूँगा? क्या इसी तरह जिन्दगी काट दूँगा? बचपन की याद आई। दूसरे की इच्छा से दूसरे के घर में वर्ष के बाद वर्ष रहकर इस शरीर को तो किशोर से यौवन की ओर आगे बढ़ाता रहा, लेकिन, मन को न जाने किस रसातल की ओर खदेड़ता रहा। आज बार-बार पुकारने पर भी उस बिदा हुए मन की कोई आहट नहीं मिलती, हालाँकि कभी-कभी क्षीण कण्ठ का अनुसरण कान में आ लगता है, फिर भी, बि‍‍ना संशय के नहीं पहिचान पाता कि वह अपना ही है,- विश्वास करते डर लगता है। यह समझकर ही यहाँ आया हूँ कि आज मेरे जीवन में राजलक्ष्मी मृत है। नदी-किनारे खड़े होकर विसर्जित प्रतिमा के अन्तिम चिह्न तक को अपनी ऑंखों से देखकर लौटा हूँ- आशा करने का, कल्पना करने का, अपने...

❤️,श्रीकांत"❤️ अध्ध्याय 14 संध्या तो हो आई, पर रात के अन्धकार के घोर होने में अब भी कुछ विलम्ब था। इसी थोड़े से समय के भीतर किसी भी तरह से हो, कोई न कोई ठौर-ठिकाना करना ही पड़ेगा। यह काम मेरे लिए कोई नया भी न था, और कठिन होने के कारण मैं इससे डरा भी नहीं हूँ। परन्तु, आज उस आम-बाग के बगल से पगडण्डी पकड़ के जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा तो न जाने कैसी एक उद्विग्न लज्जा से मेरा मन भीतर से भर आने लगा। भारत के अन्यान्य प्रान्तों के साथ किसी समय घनिष्ठ परिचय था; किन्तु, अभी जिस मार्ग से चल रहा हूँ, वह तो बंगाल के राढ़-देश का मार्ग है। इसके बारे में तो मेरी कुछ भी जानकारी नहीं है। मगर यह बात याद नहीं आई कि सभी देश-प्रदेशों के बारे में शुरू-शुरू में ऐसा ही अनभिज्ञ था, और ज्ञान जो कुछ प्राप्त किया है वह इसी तरह अपने आप अर्जन करना पड़ा है, दूसरे किसी ने नहीं करा दिया।असल में, किसलिए उस दिन मेरे लिए सर्वत्र द्वार खुले हुए थे, और आज, संकोच और दुविधा से वे सब बन्द से हो गये, इस बात पर मैंने विचार ही नहीं किया। उस दिन के उस जाने में कृत्रिमता नहीं थी; मगर आज जो कुछ कर रहा हूँ, यह तो उस दिन की सिर्फ नकल है। उस दिन बाहर के अपरिचित ही थे मेरे परम आत्मीय-उन पर अपना भार डालने में तब किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं आई; पर वही भार आज व्यक्ति-विशेष पर एकान्त रूप से पड़ जाने से सारा का सारा भार-केन्द्र ही अन्यत्र हट गया है। इसी से आज अनजान अपरिचितों के बीच में से चलने में मेरे हर कदम पर उत्तरोत्तर भारी होते चले जा रहे हैं। उन दिनों की उन सब सुख-दु:ख की धारणाओं से आज की धारणा में कितना भेद है, कोई ठीक है! फिर भी चलने लगा। अब तो मेरे अन्दर इस जंगल में रात बिताने का न साहस ही रहा, और न शक्ति ही बाकी रही। आज के लिए कोई आश्रय तो ढूँढ़ निकालना ही होगा।तकदीर अच्छी थी, ज्यादा दूर न चलना पड़ा। पेड़ के घने पत्तों में से कोई एक पक्का मकान-सा दिखाई दिया। थोड़ी दूर घूमकर मैं उस मकान के सामने पहुँच गया।था तो पक्का मकान, पर मालूम हुआ कि अब उसमें कोई रहता नहीं। सामने लोहे का गेट था, पर टूटा हुआ- उसकी अधिकांश छड़ें लोग निकाल ले गये हैं। मैं भीतर घुस गया। खुला हुआ बरामदा है, बड़े-बड़े दो कमरे हैं, एक बन्द है, और दूसरा जो खुला है, उसके दरवाजे के पास पहुँचते ही उसमें से एक कंकाल-सा आदमी निकलकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ। देखा कि उस कमरे के चारों कोनों में चार लोहे के गेट हैं, किसी दिन उसमें गद्दे बिछे रहते थे, परन्तु कालक्रम से अब उनके ऊपर का टाट तक लुप्त हो गया है। बाकी बची हैं सिर्फ नारियल की जटाएँ, सो भी बहुत कम। एक तिपाई है, कुल टीन और कलई के बरतन हैं, जिनकी शोभा और मौजूदा हालत वर्णन के बाहर पहुँच चुकी है। जो अनुमान की थी वही बात है। यह मकान अस्पताल है। यह आदमी परदेशी है। नौकरी करने आया था सो बीमार पड़ गया है। पन्द्रह दिन से वह यहाँ का इन्डोर पेशेण्ट हैं। उस भले आदमी से जो बातचीत हुई उसका एक चित्र नीचे दिया जाता है-“बाबू साहब, चारेक पैसा देंगे?”“क्यों, किसलिए?”“भूख के मारे मरा जाता हूँ बाबूजी, कुछ चबेना-अवेना खरीद के खाना चाहता हूँ।”मैंने पूछा, “तुम मरीज आदमी हो, अंट-संट खाने की तुम्हें मनाई नहीं है?”“जी नहीं।”“यहाँ से तुम्हें खाने को नहीं मिलता?”उसने जो कुछ कहा, उसका सार यह है- सबेरे एक कटोरा साबू दिए गये थे, सो कभी के खा चुका। तब से वह गेट के पास बैठा रहता है- भीख में कुछ मिल जाता है तो शाम को पेट भर लेता है, नहीं तो उपास करके रात काट देता है। एक डॉक्टर भी हैं, शायद उन्हें बहुत ही थोड़ा हाथ-खर्च के लिए कुल मिला करता है। सबेरे एक बार मात्र उनके दर्शन होते हैं। और एक आदमी मुकर्रर है, उसे कम्पाउण्डरी से लेकर लालटेन में तेल भरने तक का सभी काम करना पड़ता है। पहले एक नौकर था, पर इधर छह-सात महीने से तनखा न मिलने के कारण वह भी चला गया है। अभी तक कोई नया आदमी भरती नहीं हुआ।मैंने पूछा, “झाड़ु-आड़ु कौन लगाता है?"उसने कहा, “आजकल तो मैं ही लगाता हूँ। मेरे चले जाने पर फिर जो नया रोगी आयेगा वह लगायगा- और कौन लगायगा?”मैंने कहा, “अच्छा इन्तजाम है! अस्पताल यह है किसका, जानते हो?”वह भला आदमी मुझे उस तरफ के बरामदे में ले गया। छत की कड़ी में लगे हुए तार से एक टीन की लालटेन लटक रही थी। कम्पाउण्डर साहब उस सिदौसे ही जलाकर काम खत्म करके अपने घर चले गये हैं। दीवार में एक बड़ा भारी पत्थर जड़ा हुआ है, जिसपर सुनहरी अंगरेजी हरूफों में ऊपर से नीचे तक सन् अंगरेजी तारीख आदि खुदे हुए हैं- यानी पूरा शिलालेख है। जिले के जिन साहब मजिस्ट्रेट ने अपरिसीम दया से प्रेरित होकर इसका शिलारोपण या द्वारोद्धाटन सम्पन्न किया था, सबसे पहले उनका नाम-धाम है, और सबसे नीचे है प्रशस्ति-पाठ। किसी एक राव बहादुर ने अपनी रत्नगर्भा माता की स्मृति-रक्षार्थ जननी-जन्मभूमि पर इस अस्पताल की प्रतिष्ठा कराई है। इसमें सिर्फ माता-पुत्र का ही वर्णन नहीं बल्कि ऊधर्वतन तीन-चार पीढ़ियों का भी पूरा विवरण है। अगर इसे छोटी कुल-कारिका कहा जाय, तो शायद अत्युक्ति न होगी। इसके प्रतिष्ठाता महोदय राज-सरकार की रायबहादुरी के योग्य पुरुष थे, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं। कारण रुपये बरबाद करने की ओर से उन्होंने कोई त्रुटि नहीं की। ईंट और काठ तथा विलायती लोहे के बिल चुकाने के बाद अगर कुछ बाकी बचा होगा, तो वह साहब-शिल्पकारों के हाथ से वंग-गौरव लिखवाने में ही समाप्त हो गया होगा। डॉक्टर और मरीजों के औषधि‍-पथ्यादि की व्यवस्था करने के लिए शायद रुपये भी न बचे होंगे और फुरसत भी न हुई होगी।मैंने पूछा, “रायबहादुर रहते कहाँ हैं?”उसने कहा, “ज्यादा दूर नहीं, पास ही रहते हैं।”“अभी जाने से मुलाकात होगी?”“जी नहीं, घर पर ताला लगा होगा, घर के सबके सब कलकत्ते रहते हैं।”मैंने पूछा, “कब आया करते हैं, जानते हो?”असल में वह परदेशी है, ठीक-ठीक हाल नहीं बता सका। फिर भी बोला कि तीनेक साल पहले एक बार आए थे- डॉक्टर के मुँह सुना था उसने। सर्वत्र एक ही दशा है, अतएव दु:खित होने की कोई खास बात नहीं थी।इधर अपरिचित स्थान में संध्याी बीती जा रही थी और अंधेरा बढ़ रहा था; लिहाजा, रायबहादुर के कार्य-कलापों की पर्यालोचना करने की अपेक्षा और भी जरूरी काम करना बाकी था। उस आदमी को कुछ पैसे देकर मालूम किया कि पास ही चक्रवर्तियों का एक घर मौजूद है। वे अत्यन्त दयालु हैं, उनके यहाँ कम-से-कम रात भर के लिए आश्रय तो मिल ही जायेगा। वह खुद ही राजी होकर मुझे अपने साथ वहाँ ले चला; बोला, “मुझे मोदी की दुकान पर तो जाना ही है, जरा-सा घूमकर आपको पहुँचा दूँगा, कोई बात नहीं।”चलते-चलते बातचीत से समझ गया कि उक्त दयालु ब्राह्मण-परिवार से उसने भी कितनी ही शाम पथ्यापथ्य संग्रह करके गुप्तरूप से पेट भरा है।दसेक मिनट पैदल चलकर चक्रवर्ती की बाहर वाली बैठक में पहुँच गया। मेरे पथ-प्रदर्शक ने आवाज दी, “पण्डितजी घर पर हैं?”कोई जवाब नहीं मिला। सोच रहा था, किसी सम्पन्न ब्राह्मण के घर आतिथ्य ग्रहण करने जा रहा हूँ; परन्तु, घर-द्वार की शोभा देखकर मेरा मन बैठ-सा गया। उधर से कोई जवाब नहीं, और इधर से मेरे साथी के अपराजेय अध्यजवसाय का कोई अन्त नहीं। अन्यथा यह गाँव और यह अस्पताल बहुत दिन पहले ही उसकी रुग्ण आत्मा को स्वर्गीय बनाकर छोड़ता। वह आवाज पर आवाज लगाता ही रहा।सहसा जवाब आया, “जा जा, आज जा। जा, कहता हूँ।”मेरा साथी किसी भी तरह विचलित नहीं हुआ, बोला, “कौन आये हैं, निकल के देखिए तो सही।”परन्तु मैं विचलित हो उठा। मानो चक्रवर्ती का परम-पूज्य गुरुदेव घर पवित्र करने अकस्मात् आविर्भूत हुआ हो।नेपथ्य का कण्ठ-स्वर क्षण में मुलायम हो उठा, “कौन है रे भीमा?”यह कहते हुए घर-मालिक दरवाजे के पास आये दिखाई दिये। मैली धोती पहने हुए थे, सो भी बहुत छोटी। अन्धकारप्राय संध्यां की छाया में उनकी उमर मैं न कूत सका, मगर बहुत ज्यादा तो नहीं मालूम हुई। फिर उन्होंने पूछा, “कौन है रे भीमा?”समझ गया कि मेरे संगी का नाम भीम है। भीम ने कहा, “भले आदमी हैं, ब्राह्मण महाराज हैं। रास्ता भूलकर अस्पताल में पहुँच गये थे। मैंने कहा, “डरते क्यों हैं, चलिए, मैं पण्डितजी के यहाँ पहुँचाए देता हूँ, गुरु की सी खातिरदारी में रहिएगा।”वास्तव में भीम ने अतिशयोक्ति नहीं की, चक्रवर्ती महाशय ने मुझे परम समादर के साथ ग्रहण किया। अपने हाथ से चटाई बिछाकर बैठने के लिए कहा, और तमाखू पीता हूँ या नहीं, पूछकर भीतर जाकर वे खुद ही हुक्का भर लाये।बोले, “नौकर-चाकर सब बुखार में पड़े हैं- क्या किया जाय!”सुनकर मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा। सोचा, एक चक्रवर्ती के घर से निकलकर दूसरे चक्रवर्ती के घर आ फँसा। कौन जानें, यहाँ का आतिथ्य कैसा रूप धारण करेगा। फिर भी हुक्का हाथ में पाकर पीने की तैयारी कर ही रहा था कि इतने में सहसा भीतर से एक तीक्ष्ण कण्ठ का प्रश्न आया, “क्यों जी, कौन आदमी आया है?”अनुमान किया कि यही घर की गृहिणी हैं। जवाब देने में सिर्फ चक्रवर्ती का ही गला नहीं काँपा, मेरा हृदय भी काँप उठा।उन्होंने झटपट कहा, “बड़े भारी आदमी हैं जी, बड़े भारी आदमी। ब्राह्मण हैं- नारायण। रास्ता भूलकर आ पड़े हैं- सिर्फ रातभर रहेंगे- भोर होने के पहले, तड़के ही चले जाँयगे।”भीतर से जवाब आया, “हाँ हाँ, सभी कोई आते हैं रास्ता भूलकर। मुँहजले अतिथियों का तो नागा ही नहीं। घर में न तो एक मुट्ठी चावल है, न दाल-खिलाऊँगी क्या चूल्हे की भूभड़?”मेरे हाथ का हुक्का हाथ में ही रह गया। चक्रवर्तीजी ने कहा, “ओहो, तुम यह सब क्या बका करती हो! मेरे घर में दाल-चावल की कमी! चलो चलो, भीतर चलो, सब ठीक किये देता हूँ।”चक्रवर्ती-गृहिणी भीतर चलने के लिए बाहर नहीं आई थीं। बोलीं, “क्या ठीक कर दोगे, सुनूँ तो सही? सिर्फ मुट्ठीभर चावल है, सो बच्चों के पेट में भी तो राँधकर डालना है। उन बेचारों को उपास रखकर मैं उसे लीलने दूँगी? इसका खयाल भी न लाना।”माता धारित्री, फट जा, फट जा! 'नहीं-नहीं' कहके न-जाने क्या कहना चाहता था परन्तु चक्रवर्ती जी के विपुल क्रोध में वह न जाने कहाँ बह गया। उन्होंने 'तुम' छोड़कर फिर 'तू' कहना शुरू किया। और अतिथि-सत्कार के विषय को लेकर पति-पत्नी में जो वार्तालाप शुरू हुआ, उसकी भाषा जैसी थी, गम्भीरता भी वैसी ही थी- उसकी उपमा नहीं मिल सकती। मैं रुपये लेकर नहीं निकला था- जेब में जो थोड़े-से पैसे पड़े थे, वे भी खर्च हो चुके थे। कुरते में सोने के बटन अलबत्ता थे। पर वहाँ कौन किसकी सुनता है! व्याकुल होकर एक बार उठके खड़े होने की कोशिश करने पर चक्रवर्तीजी ने जोर से मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा, “आप अतिथि-नारायण हैं। विमुख होकर चले जाँयगे तो मैं गले में फाँसी लगा लूँगा।”गृहिणी इससे रंचमात्र भी भयभीत नहीं हुई, उसी वक्त चैलेद्बज एक्सेप्ट करके बोलीं, “तब तो जी जाऊँ। भीख माँग-मूँगकर अपने बच्चों का पेट भर सकूँगी।”इधर मेरी लगभग हिताहित-ज्ञान-शून्य होने की नौबत आ पहुँची थी; मैं सहसा कह बैठा, “चक्रवर्तीजी, से न हो तो और किसी दिन सोच-विचार कर धीरे सुस्ते लगाइएगा- लगाना ही अच्छा है- मगर, फिलहाल या तो मुझे छोड़ दीजिए, और न हो तो मुझे भी एक फाँसी की रस्सी दे दीजिए, उसमें लटककर आपको इस आतिथ्य-दाय से मुक्त कर दूँ।”चक्रवर्तीजी ने अन्त:पुर की तरफ लक्ष्य करके जोर से चिल्लाकर कहा, “अब कुछ शिक्षा हुई? पूछता हूँ, सीखा कुछ?”जवाब आया, “हाँ।”और कुछ ही क्षण बाद भीतर से सिर्फ एक हाथ बाहर निकल आया। उसने धम्म से एक पीतल का कलसा जमीन पर धर दिया, और साथ-ही-साथ आदेश दिया, “जाओ, श्रीमन्त की दुकान से, इसे रखकर, दाल-चावल-घी-नामक ले आओ। जाओ। देखना कहीं वह हाथ में पाकर सब पैसे न काट ले।”चक्रवर्ती खुश हो उठे। बोले, “अरे, नहीं, नहीं, यह क्या बच्चे के हाथ का लडुआ है?”चट से हुक्का उठाकर दो-चार बार धुऑं खींचने के बाद वे बोले, “आग बुझ गयी। सुनती हो जी, जरा चिलम तो बदल दो, एक बार पीकर ही जाऊँ। गया और आया, देर न होगी।”यह कहते हुए उन्होंने चिलम हाथ में लेकर भीतर की ओर बढ़ा दी।बस, पति-पत्नी में सन्धि हो गयी। गृहिणी ने चिलम भर दी, और पतिदेव ने जी भरके हुक्का पिया। फिर वे प्रसन्न चित्त से हुक्का मेरे हाथ में थमाकर कलसा लेकर बाहर चले गये।चावल आयी, दाल आयी, घी आया, नमक आया, और यथासमय रसोईघर में मेरी पुकार हुई। भोजन में रंचमात्र भी रुचि नहीं थी, फिर भी चुपचाप उठकर उस ओर चल दिया। कारण, आपत्ति करना सिर्फ निष्फल ही नहीं बल्कि 'ना' कहने में खतरे की भी आशंका हुई। इस जीवन में बहुत बार बहुत जगह मुझे बिन-माँगे आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा है। सर्वत्र ही मेरा समादर हुआ है यह कहना तो झूठ होगा; परन्तु, ऐसा स्वागत भी कभी मेरे भाग्य में नहीं जुटा था। मगर अभी तो बहुत सीखना बाकी था। जाकर देखा कि चूल्हा जल रहा है, और वहाँ भोजन के बदले केले के पत्तों पर चावल-दाल-आलू और एक पीतल की हँड़िया रक्खी है।चक्रवर्ती ने बड़े उत्साह के साथ कहा, “बस चढ़ा दीजिए हँड़िया, चटपट हो जायेगा सब। मसूर की खिचड़ी, आलू-भात है ही, मजे की होगी खाने में। घी है ही, गरम-गरम।”चक्रवर्ती महाशय की रसना सरस हो उठी। परन्तु मेरे लिए यह घटना और भी जटिल हो गयी। मैंने, इस डर से कि मेरी किसी बात या काम से फिर कहीं कोई प्रलय-काण्ड न उठ खड़ा हो, तुरन्त ही उनके निर्देशानुसार हँड़िया चढ़ा दी। चक्रवर्ती-गृहिणी नेपथ्य में छिपी खड़ी थीं। स्त्री की ऑंखों से मेरे अपटु हाथों का परिचय छिपा न रहा। अब तो उन्होंने मुझे ही लक्ष्य करके कहना शुरू किया। उनमें और चाहे जो भी दोष हो, संकोच या ऑंखों का लिहाज आदि का अतिबाहुल्य-दोष नहीं था, इस बात को शायद बड़े से बड़ा निन्दाकारी भी स्वीकार किये बिना न रह सकेगा। उन्होंने कहा, “तुम तो बेटा, राँधना जानते ही नहीं।”मैंने उसी वक्त उनकी बात मान ली, और कहा, “जी नहीं।”उन्होंने कहा, “वे कह रहे थे, परदेसी आदमी हैं, कौन जानेगा कि किसने राँधा और किसने खाया! मैंने कहा, सो नहीं हो सकता, एक रात के लिए मुट्ठीभर भात खिलाकर मैं आदमी की जात नहीं बिगाड़ सकती। मेरे बाप अग्रदानी ब्राह्मण हैं।”मेरी हिम्मत ही न हुई कि कह दूँ कि मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं, बल्कि इससे भी बढ़कर बड़े-बड़े पाप मैं इसके पहले ही कर चुका हूँ- क्योंकि डर था कि इससे भी कहीं कोई उपद्रव न उठ खड़ा हो। मन में सिर्फ एक ही चिन्ता थी कि किस तरह रात बीतेगी और कैसे इस घर के नागपाश से छुटकारा मिलेगा। लिहाजा, उनके निर्देशानुसार खिचड़ी भी बनाई और उसका पिण्ड-सा बनाकर घी डालकर- उस तोहफे को लीलने की कोशिश भी की। इस असाध्यर को मैंने किस तरह साध्ये या सम्पन्न किया, सो आज भी मुझसे छिपा नहीं है। बार-बार यही मालूम होने लगा कि वह चावल-दाल का पिण्डाकार तोहफा पेट के भीतर जाकर पत्थर का पिण्ड बन गया है।अध्य वसाय से बहुत कुछ हो सकता है। परन्तु उसकी भी एक हद है। हाथ-मुँह धोने का भी अवसर न मिला, सब बाहर निकल गया! मारे डर के मेरी सिट्टी गुम हो गयी; क्योंकि, उसे मुझे ही साफ करना पड़ेगा, इसमें तो कोई शक नहीं। मगर उतनी ताकत भी अब न रह गयी। ऑंखों की दृष्टि धुँधली हो आयी। किसी तरह मैं इतना कह सका, “चार-छह मिनट में अपने को सँभाले लेता हूँ, फिर सब साफ कर दूँगा।”सोचा था कि जवाब में न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा। मगर आश्चर्य है कि उस महिला का भयानक कण्ठ-स्वर अकस्मात् ही कोमल हो गया। वे अंधेरे में से निकलकर मेरे सामने आ गयीं। बोलीं, “तुम क्यों साफ करोगे बेटा, मैं ही सब किये देती हूँ। बाहर के बिछौना तो अभी कर नहीं पाई, तब तक चलो तुम, मेरी ही कोठरी में चलकर लेट रहो।”'ना' कहने का सामर्थ्य मुझमें न था। इसलिए, चुपचाप उनके पीछे पीछे जाकर, उन्हीं की शतछिन्न शय्या पर ऑंख मींचकर पड़ रहा।बहुत अबेर में जब नींद खुली, तब ऐसे जोर से बुखार चढ़ रहा था कि मुझमें सिर उठाने की भी शक्ति न थी। सहज में मेरी ऑंखों से ऑंसू नहीं गिरते, पर आज, यह सोचकर कि इतने बड़े अपराध की अब किस तरह जवाबदेही करूँगा, खालिस और निरवछिन्न आतंक से ही मेरी ऑंखें भर आयीं। मालूम हुआ कि बहुत बार बहुत-सी निरुद्देश यात्राएँ मैंने की हैं, परन्तु इतनी बड़ी विडम्बना जगदीश्वर ने और कभी मेरे भाग्य में नहीं लिखी। और फिर एक बार मैंने जी-जान से उठने की कोशिश की, किन्तु किसी तरह सिर सीधा न कर सका और अन्त में ऑंख मींचकर पड़ रहा।आज चक्रवर्ती-गृहिणी से रू-ब-रू बातचीत हुई। शायद अत्यन्त दु:ख में से ही नारियों का सच्चा और गहरा परिचय मिला करता है। उन्हें पहिचान लेने की ऐसी कसौटी भी और कुछ नहीं हो सकती, और पुरुष के पास उनका हृदय जीतने के लिए इतना बड़ा अस्त्र भी और कोई नहीं होगा।मेरे बिछौने के पास आकर वे बोलीं, “नींद खुली बेटा?”मैंने ऑंखें खोलकर देखा। उनकी उमर शायद चालीस के लगभग होगी- कुछ ज्यादा भी हो सकती है। रंग काला है, पर नाक-ऑंख साधारण भद्र-गृहस्थ-घर की स्त्रियों के समान ही हैं, कहीं भी कुछ रूखापन नहीं, कुछ है तो सिर्फ सर्वांगव्यापी गम्भीर दारिद्य और अनशन के चिह्न-दृष्टि पड़ते ही यह बात मालूम हो जाती है।उन्होंने फिर पूछा, “अंधेरे में दिखाई नहीं देता बेटा, पर, मेरा बड़ा लड़का जीता रहता तो तुम-सा ही बड़ा होता।”इसका क्या उत्तर दूँ? उन्होंने चट से मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा, “बुखार तो अब भी खूब है।”मैंने ऑंखें मींच ली थीं। ऑंखें मींचे ही मींचे कहा, “कोई जरा सहारा दे दे, तो शायद, अस्पताल तक पहुँच जाऊँगा- कोई ज्यादा दूर थोड़े ही है।”मैं उनका चेहरा तो न देख सका, पर इतना तो समझ गया कि मेरी बात से उनका कण्ठस्वर मानो वेदना से भर आया। बोलीं, “दु:ख की जलन से कल कई एक बातें मुँह से निकल गयी हैं, इसी से, बेटा, गुस्सा होकर उस जमपुरी में जाना चाहते हो? और तुम जाना भी चाहोगे तो मैं जाने कब दूँगी?” इतना कहकर वे कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं, फिर धीरे से बोलीं, “रोगी से नियम नहीं बनता बेटा, देखो न, जो लोग अस्पताल में जाकर रहते हैं, उन्हें वहाँ किस-किसका छुआ हुआ नहीं खाना पड़ता है, बताओ? पर उससे जात थोड़े ही जाती है। मैं साबू बार्ली बनाकर दूँ, तो तुम न खाओगे?”मैंने गरदन हिलाकर जताया कि इसमें मुझे रंचमात्र भी आपत्ति नहीं और सिर्फ बीमार हूँ इसलिए नहीं, अत्यन्त निरोग अवस्था में भी मुझे इससे कोई परहेज नहीं।अतएव, वहीं रह गया। कुल मिलाकर शायद चारेक दिन रहा। फिर भी उन चार दिनों की स्मृति सहज में भूलने की नहीं। बुखार एक ही दिन में उतर गया, पर बाकी दिनों में, कमजोर होने के कारण, उन्होंने मुझे वहाँ से हिलने भी न दिया। कैसे भयानक दारिद्रय में इस ब्राह्मण-परिवार के दिन कट रहे हैं, और उस दुर्गति को बिना किसी कुसूर के हजार-गुना कड़घआ कर रक्खा है समाज के अर्थहीन पीड़न ने। चक्रवर्ती-गृहिणी अपनी अविश्रान्त मेहनत के भीतर से भी जरा सी फुरसत पाने पर, मेरे पास आकर बैठ जाती थीं। सिर और माथे पर हाथ फेर देती थीं। तैयारियों के साथ रोग का पथ्य न जुटा सकती थीं, पर उस त्रुटि को अपने व्यवहार और जतन से पूरा कर देने के लिए कैसी एकाग्र चेष्टा उनमें पाता था।पहले इनकी अवस्था कामचलाऊ अच्छी थी। जमीन-जायदाद भी ऐसी कुछ बुरी नहीं थी। परन्तु, उनके अल्पबुद्धि पति को लोगों ने धोखा दे-देकर आज उन्हें ऐसे दु:ख में डाल दिया है। वे आकर रुपये उधार माँगते थे; कहते थे- हैं तो यहाँ बहुत-से बड़े आदमी, पर कितनों की छाती पर इतने बाल हैं? लिहाजा छाती के उन बालों का परिचय देने के लिए कर्ज करके कर्ज दिया करते थे। पहले तो हाथ चिट्ठी लिखाकर और बाद में स्त्री से छिपाकर जमीन गहने रखकर कर्ज देने लगे। नतीजा अधिकांश स्थलों पर जैसा होता है, यहाँ भी वैसी ही हुआ।यह कुकार्य चक्रवर्ती के लिए असाध्य् नहीं, इस बात पर मुझे, एक ही रात की अभिज्ञता से, पूरा विश्वास हो गया। बुद्धि के दोष से धन-सम्पत्ति बहुतों की नष्ट हो जाती है, उसका परिणाम भी अत्यन्त दु:खमय होता है, परन्तु यह दु:ख समाज की अनावश्यक और अन्धी निष्ठुरता से कितना ज्यादा बढ़ सकता है, इसका मुझे चक्रवर्ती-गृहिणी की प्रत्येक बात से, नस-नस में, अनुभव हो गया। उनके यहाँ सिर्फ दो सोने की कोठरियाँ हैं, एक में लड़के-बच्चे रहते हैं और दूसरी पर बिल्कुयल और बाहर का आदमी होते हुए भी मैंने दखल जमा लिया। इससे मेरे संकोच की सीमा न रही। मैंने कहा, “आज तो मेरा बुखार उतर गया है और आप लोगों को भी बड़ी तकलीफ हो रही है। अगर बाहर वाली बैठक में मेरा बिस्तर कर दें, तो मुझे बहुत सन्तोष हो।”गृहिणी ने गरदन हिलाकर जवाब दिया, “सो कैसे हो सकता है बेटा! बादल घिर रहे हैं, अगर वर्षा हुई तो उस कमरे में ऐसी जगह ही न रहेगी जहाँ सिर भी रखा जा सके। तुम अभी कमजोर ठहरे, इतना साहस तो मुझसे न होगा।”उनके ऑंगन में एक तरफ कुछ पुआल पड़ा था, उस पर मैंने गौर किया था। उसी की तरफ इशारा करके मैंने पूछा, “पहले से मरम्मत क्यों नहीं करा ली? ऑंधी-मेह के दिन तो आ भी गये।”इसके उत्तर में मालूम हुआ कि मरम्मत कराना कोई आसान बात नहीं। पतित ब्राह्मण होने से इधर का कोई किसान-मजूर उनका काम नहीं करता। आन गाँव में जो मुसलमान काम करने वाले हैं, वे ही घर छा जाते हैं। किसी भी कारण से हो, इस साल वे आ नहीं सके। इसी प्रसंग में वे सहसा रो पड़ीं, बोली, “बेटा, हम लोगों के दु:ख का क्या कोई अन्त है? उस साल मेरी सात-आठ साल की लड़की अचानक हैजे में मर गयी; पूजा के दिन थे, मेरे भइया गये थे काशीजी घूमने, सो और कोई आदमी न मिलने से छोटे लड़के के साथ अकेले इन्हीं को मसान जाना पड़ा। सो भी क्या किरिया-करम ठीक से हो सका? लकड़ी तक किसी ने काटने न दी। बाप होकर गङ्ढा खोद के गाड़-गूड़कर इन्हें घर लौट आना पड़ा।” कहते-कहते उनका दबा हुआ पुराना शोक एकबारगी नया होकर दिखाई दे गया। ऑंखें पोंछती हुई जो कुछ कहने लगीं, उसमें मुख्य शिकायत यह थी कि उनके पुरखों में किसी समय किसी ने श्राद्ध का दान ग्रहण किया था- बस यही कसूर हो गया- और श्राद्ध तो हिन्दू का अवश्य कर्त्तव्य है, कोई तो उसका दान लेगा ही, नहीं तो वह श्राद्ध ही असिद्ध और निष्फल हो जायेगा। फिर दोष इसमें कहाँ है? और दोष अगर हो ही, तो आदमी को लोभ में फँसाकर उस काम में प्रवृत्त ही क्यों किया जाता है?इन प्रश्नों का उत्तर देना जितना कठिन है, इतने दिनों बाद इस बात का पता लगाना भी दु:साध्यन है कि उन पुरखों की किस दुष्कृति के दण्डस्वरूप उनके वंशधरों को ऐसी विडम्बना सहनी पड़ रही है। श्राद्ध का दान लेना अच्छा है या बुरा, सो मैं नहीं जानता। बुरा होने पर भी यह बात सच है कि व्यक्तिगत रूप से इस काम को वे नहीं करते, इसलिए वे निरपराध हैं। अफसोस तो इस बात का है कि मनुष्य, पड़ोसी होकर, अपने दूसरे पड़ोसी की जीवन-यात्रा का मार्ग, बिना किसी दोष के, इतना दुर्गम और दु:खमय बना दे सकता है, ऐसी हृदयहीन निर्दय बर्बरता का उदाहरण दुनिया में शायद सिर्फ हिन्दू समाज के सिवा और कहीं न मिलेगा।उन्होंने फिर कहा, “इस गाँव में आदमी ज्यादा नहीं हैं, मलेरिया बुखार और हैजे से आधे मर गये हैं। अब सिर्फ ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूतों के घर बचे हैं। हम लोग तो लाचार हैं बेटा, नहीं तो जी चाहता है कि कहीं किसी मुसलमानों के गाँव में जा रहें।”मैंने कहा, “मगर वहाँ तो जात जा सकती है?”उन्होंने इस प्रश्न का ठीक जवाब नहीं दिया, बोलीं, “नाते में मेरे एक चचिया-ससुर लगते हैं, वे दुमका गये थे, नौकरी करने, सो ईसाई हो गये थे। उन्हें अब कोई तकलीफ नहीं है।”मैं चुप रह गया। कोई हिन्दू-धर्म छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करने को मन ही मन उत्सुक हो रहा है, यह सुनकर मुझे बड़ा दु:ख होता है। मगर उन्हें सान्त्वना भी देना चाहूँ तो दूँ क्या कहकर? अब तक मैं यही समझता था कि सिर्फ अस्पृश्य नीच जातियाँ ही हिन्दू-समाज में अत्याचार सहा करती हैं, मगर आज समझा कि बचा कोई भी नहीं है। अर्थहीन अविवेचन से परस्पर एक-दूसरे के जीवन को दूभर कर डालना ही मानो इस समाज का मज्जागत संस्कार है। बाद में बहुतों से मैंने पूछा है, और बहुतों ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा है, कि यह अन्याय है, यह गर्हित है, बुरी बात है; फिर भी इसके निराकरण का वे कोई भी मार्ग नहीं बतला पाते। वे इस अन्याय के बीच में से जन्म से लेकर मौत तक चलने के लिए राजी हैं, पर प्रतिकार की प्रवृत्ति या साहस- इन दोनों में से कोई भी बात उनमें नहीं। जानने-समझने के बाद भी अन्याय के प्रतिकार कर नेकी शक्ति जिनमें से इस तरह बिला गयी है, वह जाति अधिक दिनों तक कैसे जीवित रह सकती है, यह सोच-समझ सकना मुश्किल ही है।तीन दिन के बाद, स्वस्थ होकर, मैं जब सबेरे ही जाने को तैयार हुआ, तो मैंने कहा, “माँ, आज मुझे विदा दीजिए।”चक्रवर्ती-गृहिणी की दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये। कहा, “दु:खियों के घर बहुत दु:ख पाया बेटा, तुम्हें कड़घई बातें भी कम सुननी पड़ीं।”इस बात का उत्तर ढूँढे न मिला। “नहीं, नहीं सो कोई बात नहीं- मैं बड़े आराम से रहा, मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।” इत्यादि मामूली शराफत की बातें कहने में भी मुझे शरम होने लगी। वज्रानन्द की बात याद आयी। उसने एक दिन कहा था, “घर त्याग आने से क्या होता है? इस देश में घर माँ-बहिनें मौजूद हैं, हमारी मजाल क्या है कि हम उनके आकर्षण से बचकर निकल जाँय।” बात असल में कितनी सत्य है!अत्यन्त गरीबी और कमअक्ल पति के अविचारित रम्य या ऊटपटाँग कार्यकलापों ने इस गृहस्थ-घर की गृहिणी को लगभग पागल बना दिया है, परन्तु जब उनको अनुभव हुआ कि मैं बीमार हूँ, लाचार हूँ- तब तो उनके लिए सोचने की कोई बात ही नहीं रह गयी। मातृत्व के सीमाहीन स्नेह से मेरे रोग तथा पराये घर ठहरने के सम्पूर्ण दु:ख को मानो उन्होंने अपने दोनों हाथों से एकबारगी पोंछकर अलग कर दिया।चक्रवर्तीजी कोशिश करके कहीं से एक बैलगाड़ी जुटा लाये। गृहिणी की बड़ी भारी इच्छा थी कि मैं नहा-धो और खा-पीकर जाऊँ, परन्तु धूप और गरमी बढ़ जाने की आशंका से वे ज्यादा अनुरोध न कर सकीं। चलते समय सिर्फ देवी-देवताओं का नाम-स्मरण करके ऑंखें पोंछती हुई बोलीं, “बेटा, यदि कभी इधर आओ, तो एक बार यहाँ जरूर हो आना ।”उधर जाना भी कभी नहीं हुआ, और वहाँ जरूर हो आना भी मुझसे न बन सका। बहुत दिनों बाद सिर्फ इतना सुना कि राजलक्ष्मी ने कुशारी महाशय के हाथ से उन लोगों का बहुत-सा कर्जा अपने ऊपर ले लिया है।,♦♦ • ♦♦करीब तीसरे पहर गंगामाटी, घर पर पहुँचा। द्वार के दोनों तरफ कदलीवृक्ष और मंगल-घट स्थापित थे। ऊपर आम्र-पल्लवों के बन्दनवार लटक रहे थे। बाहर बहुत से लोग इकट्ठे बैठे तमाखू पी रहे थे। बैलगाड़ी की आहट से उन लोगों ने मुँह उठाकर देखा। शायद इसी के मधुर शब्द से आकृष्ट होकर और एक साहब अकस्मात् सामने आ खड़े हुए- देखा तो वज्रानन्द हैं। उनका उल्लसित कलरव उद्दाम हो उठा, और तब कोई आदमी दौड़कर भीतर खबर देने भी चला गया। स्वामीजी कहने लगे कि “मैंने आकर सब हाल सबसे कह सुनाया है। तबसे बराबर चारों तरफ आदमी भेजकर तुम्हें ढूँढ़ा जा रहा है- एक ओर जैसे कोशिश करने में कोई बात उठा न रखी गयी, वैसे ही दूसरी ओर दुश्चिन्ता की भी कोई हद नहीं रही। आखिर माजरा क्या था? अचानक कहाँ डुबकी लगा गये थे, बताइए तो? गाड़ीवान छोकरे ने तो जाकर कहा कि आपको वह गंगामाटी के रास्ते में उतारकर चला आया है।”राजलक्ष्मी काम में व्यस्त थी, उसने आकर पैरों के आगे माथा टेककर प्रणाम किया और कहा, “घर-भर को, सबको तुमने कैसी कड़ी सजा दी है, कुछ कहने की नहीं।” फिर वज्रानन्द को लक्ष्य करके कहा, “मेरा मन जान गया था कि आज ये आयेंगे ही।”मैंने हँसकर कहा, “द्वार पर केले के थम्भ और घट-स्थापना देखकर ही मैं समझ गया कि मेरे आने की खबर तुम्हें मिल गयी है।” दरवाजे की ओट में रतन आकर खड़ा था। वह चट से बोल उठा, “जी नहीं, इसलिए नहीं- आज घर पर ब्राह्मण-भोजन होगा न, इसीलिए। वक्रनाथ के दर्शन कर आने के बाद से माँ...”राजलक्ष्मी ने डाँट लगाकर उसे जहाँ का तहाँ रोक दिया, “अब व्याख्या करने की जरूरत नहीं, तू जा, अपना काम देख।”उसके सुर्ख चेहरे की तरफ देखकर वज्रानन्द हँस दिया, बोला, “समझे नहीं भाई साहब, किसी भी काम में लगे रहने से मन की उत्कण्ठा बहुत बढ़ जाती है। सही नहीं जाती। यह ब्राह्मण-भोजन का आयोजन सिर्फ इसीलिए है। क्यों जीजी, है न यही बात?”राजलक्ष्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, “वह गुस्सा होकर वहाँ से चल दी। वज्रानन्द ने पूछा, “बड़े दुबले-से मालूम पड़ते हो भाई साहब, इस बीच में क्या बात हो गयी थी, बताइए तो? घर न आकर अचानक गायब क्यों हो गये थे?”गायब होने का कारण विस्तार के साथ सुना दिया। सुनकर आनन्द ने कहा, “भविष्य में अब कभी इस तरह न भागियेगा। किस तरह इनके दिन कटे हैं, सो ऑंख से देखे बगैर विश्वास नहीं किया जा सकता।”यह मैं जानता था। लिहाजा, ऑंखों से बिना देखे ही मैंने विश्वास कर लिया। रतन चाय और हुक्का दे गया। आनन्द ने कहा, “मैं भी बाहर जाता हूँ भाई साहब। इस वक्त आपके पास बैठे रहने से कोई एक जनी शायद इस जनम में मेरा मुँह न देखेंगी।” यह कहकर हँसते हुए उन्होंने प्रस्थान किया।कुछ देर बाद राजलक्ष्मी ने प्रवेश करके अत्यन्त स्वाभाविक भाव से कहा, “उस कमरे में गरम पानी, अंगौछा, धोती, सब रख आई हूँ- सिर्फ सिर और देह अंगौछकर कपड़े बदल डालो जाकर। बुखार में, खबरदार, सिर पर पानी न डाल लेना, कहे देती हूँ।”मैंने कहा, “मगर स्वामीजी से तुमने गलत बात सुनी है; बुखार मुझे नहीं है।”राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं है तो न सही, पर होने में देर कितनी लगती है?”मैंने कहा, “इसकी खबर तो तुम्हें ठीक दे नहीं सकता, पर मारे गर्मी के मेरा तो सारा शरीर जला जा रहा है, नहाना जरूरी है मेरे लिए।”राजलक्ष्मी ने कहा, “जरूरी है क्या? तो फिर अकेले तुमसे न बन पड़ेगा। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ।” इतना कहकर वह खुद ही हँस पड़ी और बोली, “क्यों झगड़ा करके मुझे तकलीफ दे रहे हो और खुद भी परेशानी उठा रहे हो। इतनी अबेर में मत नहाओ, मान जाओ, तुम्हें मेरी कसम है।”इस ढंग की बात करने में राजलक्ष्मी बेजोड़ है। अपनी इच्छा को ही जबर्दस्ती दूसरे के कन्धों पर लाद देने के कड़घएपन को वह स्नेह के मधुर रस से इस तरह भर दे सकती है कि उस जिद के विरुद्ध किसी का भी कोई संकल्प सिर नहीं उठा सकता। बात बिल्कुाल तुच्छ है, स्नान न करने से भी मेरा चल जायेगा; किन्तु जिन्हें किये बिना नहीं चल सकता ऐसे कामों में भी, बहुत बार देखा है कि, उसकी इच्छा-शक्ति को अतिक्रम करके चलने की शक्ति मुझमें नहीं। मुझमें ही क्यों, किसी में भी वह शक्ति मैंने नहीं देखी। मुझे उठाकर वह भोजन लाने चली गयी। मैंने कहा, “पहले तुम्हारे ब्राह्मण-भोजन का काम निबट जाने दो न?”राजलक्ष्मी ने आश्चर्य के साथ कहा, “माफ करो तुम, वह काम निबटते-निबटते तो साँझ हो जायेगी।”“सो हो जाने दो।”राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, “ठीक है। ब्राह्मण-भोजन को मेरे ही सिर रहने दो, उसके लिए तुम्हें भूखा रखने से मेरी स्वर्ग की सीढ़ी ऊपर के बदले बिल्कुकल पाताल की ओर चली जायेगी।” यह कहकर वह भोजन लेने चल दी।कुछ ही समय बाद जब वह मेरे पास भोजन कराने बैठी, तब देखा कि सामने रोगी का पथ्य है। ब्रह्मभोज की सारी गुरुपाक वस्तुओं के साथ उसका कोई सम्बन्ध न था। मालूम हुआ कि मेरे आने के बाद ही उसने उसे अपने हाथ से तैयार किया है। फिर भी, जबसे आया हूँ, उसके आचरण में- उसकी बातचीत के ढंग से, कुछ ऐसा अनुभव कर रहा था जो केवल अपरिचित ही नहीं था, अतिशय नूतन भी था। वही खिलाने के समय बिल्कुरल स्पष्ट हो गया, परन्तु वह कैसे और किस तरह सुस्पष्ट हो गया, कोई पूछता तो मैं उसे अस्पष्टता से भी न समझा सकता। शायद यही बात प्रत्युत्तर में कह देता कि जान पड़ता है मनुष्य की अत्यन्त व्यथा की अनुभूति को प्रकाश करने की भाषा अब भी आविष्कृत नहीं हुई। राजलक्ष्मी खिलाने बैठी, किन्तु खाने-न खाने के सम्बन्ध में उसकी पहले जैसी अभ्यस्त जबर्दसती नहीं थी, था सिर्फ व्याकुल अनुनय। जोर नहीं, भिक्षा। बाहर के नेत्रों से वह चीज नहीं पकड़ी जाती, केवल मनुष्य की निभृत हृदय की अपलक ऑंखें ही देख सकती हैं।भोजन समाप्त हो गया। राजलक्ष्मी बोली, “तो अब मैं जाऊँ?”अतिथि सज्जन बाहर इकट्ठे हो रहे थे। मैंने कहा, “जाओ।”मेरे जूठे बर्तन हाथ में लेकर जब वह धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गयी; तब बहुत देर तक मैं अन्यमनस्क होकर उस ओर चुपचाप देखता रहा। खयाल आने लगा कि राजलक्ष्मी को जैसा छोड़ गया था, इन थोड़े से दिनों में ठीक वैसा तो उसे नहीं पाया। आनन्द कहता था कि दीदी कल से ही एक तरह से उपवास कर रही हैं, आज भी जलस्पर्श नहीं किया है; और कल कब उनका उपवास टूटेगा इसका भी कोई निश्चय नहीं। यह असम्भव नहीं। हमेशा से ही देखता आ रहा हूँ कि उसका धर्मपिपासु चित्त कभी किसी भी कृच्छ साधना से पराङ्मुख नहीं रहा। यहाँ आने के बाद से तो सुनन्दा के साहचर्य से उसकी वह अविचलित निष्ठा बढ़ती ही जा रही थी। आज उसे थोड़ी ही देर देखने का अवकाश पाया है, किन्तु जिस दुर्जेय रहस्मय मार्ग पर वह अविश्रान्त द्रुतगति से पैर उठाती हुई चल रही है; उसे देखते हुए खयाल आया कि उसके निन्दित जीवन की संचित कालिमा चाहे जितनी अधिक हो वह उसके समीप तक नहीं पहुँच सकती। किन्तु मैं? उसके मार्ग के बीच उत्तुंग गिरिश्रेणी के समान सब कुछ रोककर खड़ा हूँ।काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी ने जब नि:शब्द पैर रखते हुए घर में प्रवेश किया तब शायद दस बज चुके थे। रोशनी कम करके, बहुत ही सावधानी से मेरी मशहरी खींचकर वह अपनी शय्या पर सोने जा रही थी कि मैंने कहा, “तुम्हारा ब्रह्मभोज तो संध्याा के पहले ही समाप्त हो गया था; फिर इतनी रात कैसे हो गयी?”राजलक्ष्मी पहले चौंकी, फिर हँसकर बोली, “मेरी तकदीर! मैं तो डरती-डरती आ रही हूँ कि तुम्हारी नींद न टूट जाय, परन्तु तुम तो अब तक जाग रहे हो, नींद नहीं आई?”“तुम्हारी आशा से ही जाग रहा हूँ।”“मेरी आशा से? तो बुलवा क्यों न लिया?” यह कहकर वह पास आई और मसहरी का एक किनारा उठाकर मेरी शय्या के सिरहाने बैठ गयी। फिर हमेशा के अभ्यास के अनुसार मेरे बालों में उसने अपने दोनों हाथों की दसों अंगुलियाँ डालते हुए कहा, “मुझे बुलवा क्यों न लिया?”“बुलाने से क्या तुम आतीं? तुम्हें कितना काम रहता है!”“रहे काम! तुम्हारे बुलाने पर 'ना' कह सकूँ यह मेरे वश की बात है?”इसका कोई उत्तर न था। जानता हूँ, सचमुच ही मेरे आह्नान की परवा न करने की शक्ति उसमें नहीं है। किन्तु, आज इस सत्य को भी सत्य समझने की शक्ति मुझमें कहाँ है?राजलक्ष्मी ने कहा, “चुप क्यों हो रहे?”“सोच रहा हूँ।”“सोच रहे हो? क्या सोच रहे हो?” यह कहकर उसने धीरे से मेरे कपाल पर अपना मस्तक झुकाकर आहिस्ते से कहा, “मुझ पर गुस्सा होकर घर से चले गये थे?”“तुमने यह कैसे जाना कि गुस्सा होकर चला गया था?”राजलक्ष्मी ने मस्तक नहीं उठाया, आहिस्ते से कहा, “यदि मैं गुस्सा होकर चली जाऊँ तो क्या तुम नहीं जान पाओगे?”बोला, “शायद जान लूँगा।”राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम 'शायद' जान पाओ, परन्तु मैं तो निश्चयपूर्वक जान सकती हूँ और तुम्हारे जानने की अपेक्षा बहुत ज्यादा जान सकती हूँ।”मैंने हँसकर कहा, “ऐसा ही होगा। इस विवाद में तुम्हें हराकर मैं विजयी नहीं होना चाहता लक्ष्मी, स्वयं हार जाने की अपेक्षा तुम्हारे हारने से मेरी बहुत अधिक हानि है।”राजलक्ष्मी ने कहा, “यदि जानते हो तो फिर कहते क्यों हो?”मैं बोला, “कहाँ कहता हूँ! कहना तो बहुत दिनों से बन्द कर दिया है, यह बात शायद तुम्हें मालूम नहीं।”राजलक्ष्मी चुप हो रही। पहले होता तो राजलक्ष्मी मुझे सहज में न छोड़ती- हजारों प्रश्न करके इसकी कैफियत तलब करके ही मानती, किन्तु इस समय वह मौन-मुख से स्तब्ध ही रही। कुछ समय बाद मुँह उठाकर उसने दूसरी बात छेड़ दी। पूछा, “तुम्हें क्या इस बीच ज्वर आ गया था? घर पर मुझे खबर क्यों न भेजी?”खबर न भेजने के कारण बतलाए। एक तो खबर लाने वाला आदमी नहीं था, दूसरे, जिनके पास खबर भेजनी थी वे कहाँ हैं यह भी मालूम न था। किन्तु मैं कहाँ और किस हालत में था, यह सविस्तार बतलाया। चक्रवर्ती-गृहिणी के पास से आज सवेरे ही विदा लेकर आया हूँ। उस दीन-हीन गृहस्थ परिवार में जिस हाल में मैं आश्रय लिया था और जिस प्रकार बेहद गरीबी में गृहिणी ने अज्ञात कुलशील रोगग्रस्त अतिथि की पुत्र से भी अधिक स्नेह-शुश्रूषा की थी वह कहने लगा तो कृतज्ञता और वेदना से मेरी ऑंखें ऑंसुओं से भर गयीं।राजलक्ष्मी ने हाथ बढ़ाकर मेरे ऑंसू पोंछ दिये और कहा, “तो वे ऋणमुक्त हो जाँय, इसके लिए उन्हें कुछ रुपये क्यों नहीं भेज देते?”मैंने कहा, “रुपये होते तो भेजता, पर मेरे पास रुपये तो हैं नहीं।”मेरी इन बातों से राजलक्ष्मी को मर्मान्तक पीड़ा होती थी। आज भी वह मन ही मन उतनी ही दु:खित हुई, लेकिन, उसका सब पैसा-रुपया मेरा ही है, यह बात आज उसने उतने जोर से प्रकट नहीं की। पहले तो इस बात पर वह कलह करने के लिए तैयार हो जाया करती थी। वह चुप रही।उसमें आज यह नयी बात देखी। मेरी इस बात पर उसका इस प्रकार शान्त चुपचाप बैठे रहना मुझे भी अखरा। थोड़ी देर बाद वह एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर सीधे बैठ गयी। मानो इस दीर्घ नि:श्वास से उसने अपने चारों ओर छाये हुए वाष्पाच्छन्न आवरण को फाड़ देना चाहा। घर की धीमी रोशनी में उसका चेहरा अच्छी तरह नहीं देख सका; लेकिन, जिस समय उससे बात की उससे कण्ठ-स्वर में मैंने एक आश्चर्यजनक परिवर्तन पाया। राजलक्ष्मी बोली, बर्मा से तुम्हारी चिट्ठी का जवाब आया है। दफ्तर का बड़ा लिफाफा है, जरूरी समझकर आनन्द से पढ़वा लिया है।”“उसके बाद?”“बड़े साहब ने तुम्हारी दरखास्त मंजूर कर ली है और जतलाया है कि वापस जाने पर पहली नौकरी फिर मिल जायेगी।”“अच्छा?”“हाँ। लाऊँ वह चिट्ठी?”“नहीं, ठहरो। कल सुबह देखूँगा।”फिर हम दोनों चुप हो रहे। क्या कहूँ, किस तरह यह चुप्पी भंग करूँ, यह न सोच सकने के कारण मन ही मन उद्विग्न होने लगा। अकस्मात् मेरे सिर पर ऑंसू की एक बूँद टपक पड़ी। मैंने धीरे से पूछा, “मेरी दरखास्त मंजूर हुई है, यह तो बुरी खबर नहीं है। लेकिन तुम रो क्यों पड़ीं?”राजलक्ष्मी ऑंचल से ऑंसू पोंछकर बोली, “तुम फिर अपनी नौकरी के लिए विदेश चले जाने की चेष्टा कर रहे हो, यह बात तुमने मुझे बतलाई क्यों नहीं? क्या तुमने समझा था कि मैं रोकूँगी?”मैंने कहा, “नहीं, बल्कि बतलाने पर तो तुम और उत्साहित करतीं। लेकिन, इसलिए नहीं- मालूम होता है कि मैंने सोचा था कि इन सब छोटी बातों के सुनने के लिए तुम्हारे पास समय न होगा।”राजलक्ष्मी चुप हो रही। लेकिन उसने अपना उच्छ्वसित नि:श्वास रोकने के लिए प्राण-पण से जो कोशिश की, वह मुझसे छिपी न रही। पर यह हालत क्षण भर ही रही। उसके बाद उसने मीठे स्वर में कहा, “इस बात का जवाब देकर अपने अपराध का बोझ और न बढ़ाऊँगी। तुम जाओ, मैं बिल्कुथल न रोकूँगी।”यह कहकर वह थोड़ी ही देर चुप रहकर फिर बोली, “तुम यहाँ न आते तो ऐसा मालूम होता है कि मैं कभी यह जान ही न पाती कि मैं तुम्हें कैसी दुर्गति मैं खींच लाई हूँ। यह गंगामाटी का अन्धकूप स्त्रियों के लिए गुजारे लायक हो सकता है, लेकिन पुरुषों के लिए नहीं। यहाँ का बेकार और उद्देश्यहीन जीवन तो तुम्हारे लिए आत्महत्या के समान है। यह मैंने तुम्हारी ऑंखों से स्पष्ट देखा है।”मैंने पूछा, “या तुम्हें किसी ने दिखा दिया है?”राजलक्ष्मी बोली, “नहीं। मैंने खुद ही देखा है। तीर्थयात्रा की थी, पर भगवान को नहीं देख पाई। उसके बदले केवल तुम्हारा लक्ष्य-भ्रष्ट नीरस चेहरा ही दिन-रात दिखाई देता रहा। मेरे लिए तुम्हें बहुत त्याग करना पड़ा है; किन्तु अब और नहीं।”इतनी देर तक मेरे मन में एक जलन ही थी; किन्तु उसके कण्ठ-स्वर की अनिर्वचनीय करुणा से मैं विह्वल हो गया। बोला, “तुम्हें क्या कम त्याग करना पड़ा है लक्ष्मी? गंगामाटी तुम्हारे लायक भी तो नहीं है?”लेकिन, यह बात कहकर मैं संकोच से भर गया, क्योंकि, मेरे मुख से लापरवाही से भी जो गर्हित बात निकल गयी, वह इस तीक्ष्ण बुद्धिशालिनी रमणी से छिप न सकी। पर आज उसने मुझे माफ कर दिया। मालूम होता है, बात की अच्छाई बुराई पर मान अभिमान का जाल बुनकर नष्ट करने के लिए उसके पास समय ही नहीं था, बोली, “बल्कि मैं ही गंगामाटी के योग्य नहीं हूँ- सभी यह बात नहीं समझ सकेंगे; पर तुम्हें यह समझना चाहिए कि मुझे सचमुच ही कुछ त्याग नहीं करना पड़ा। लोगों ने एक दिन पत्थर की तरह मेरी छाती पर जो भार रख दिया था क्या सिर्फ वही दूर हो गया है? नहीं। आजीवन तुम्हीं को चाहा था, इसलिए, तुम्हें पाकर जो मुझे त्याग से असंख्य गुना बदला मिल गया है, सो क्या तुम नहीं जानते?”जवाब न दे सका। जैसे कोई अन्तरतम का वासी मुझसे यह बात कहने लगा, “भूल हुई है, तुमसे भारी भूल हुई है। उसे न समझकर तुमने बड़ा अविचार किया है।”राजलक्ष्मी ने ठीक इसी तार पर चोट की। कहा, “सोचा था कि तुम्हारे ही लिए कभी यह बात तुम्हें न बतलाऊँगी; लेकिन, आज मैं अपने को और नहीं रोक सकी। मुझे सबसे अधिक दु:ख इसी बात का हो रहा है कि तुम अनायास ही यह कैसे सोच सके कि पुण्य के लोभ का मुझे ऐसा उन्माद हो गया है कि मैंने तुम्हारी उपेक्षा करनी शुरू कर दी है? क्रुद्ध होकर चले जाने के पहले यह बात तुम्हें एक बार भी याद न आई कि इस काल और पर काल में राजलक्ष्मी के लिए तुम्हारी अपेक्षा लाभ की चीज और कौन-सी है!”यह कहते-कहते उसकी ऑंखों के ऑंसू झर-झर के मेरे मुँह पर आ पड़े।बातों से तसल्ली देने की भाषा उस समय मन में न आ सकी, सिर्फ माथे के ऊपर रक्खा हुआ उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में ले लिया। राजलक्ष्मी बायें हाथ से ऑंसू पोंछकर कुछ देर चुपचाप बैठी रही।उसके बाद बोली, “मैं देख आऊँ, लोगों का खाना-पीना हो चुका या नहीं। तुम सो जाओ।”यह कहकर वह आहिस्ते से हाथ छुड़ाकर बाहर चली गयी। उसे पकड़ रखना चाहता तो रख सकता था; लेकिन चेष्टा नहीं की। वह भी फिर लौटकर नहीं आई। जब तक नींद नहीं आई तब तक यही बात सोचता रहा कि जबर्दस्ती रोक रखता तो लाभ क्या होता? मेरी ओर से तो कभी कोई जोर था ही नहीं; सारा जोर उसकी तरफ से था। आज अगर वही बन्धन खोलकर मुझे मुक्त करते हुए अपने आपको भी मुक्त करना चाहती है, तो मैं उसे किस तरह रोकूँ?सुबह जागने पर पहले उसकी खाट की ओर नजर डाली तो मालूम हुआ कि राजलक्ष्मी कमरे में नहीं है। रात को वह आई ही नहीं, या बड़े तड़के ही उठकर बाहर चली गयी, यह भी मैं न समझ सका। बाहरी कमरे में जाकर देखा तो वहाँ कुछ कोलाहल-सा हो रहा है। रतन केटली से गरम चाय पात्र में डाल रहा है और उसके पास ही बैठी राजलक्ष्मी स्टोव पर सिंघाड़े और कचौरियाँ तल रही है। वज्रानन्द खाद्य-सामग्री की ओर अपनी निस्पृह निरासक्त दृष्टि से देख रहे हैं। मुझे आते देख राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर ऑंचल खींच लिया और वज्रानन्द कलरव कर उठे, “आ गये भाई, आपको देरी होते देख समझा था कि कहीं सब कुछ ठण्डा न हो जाय।”राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “हाँ, तुम्हारे पेट में जाकर सब ठण्डा हो जाता।”आनन्द ने कहा, “बहन, साधु-सन्यासी का आदर करना सीखिए। ऐसी कड़ी बात न कहिए।”फिर मुझसे कहा, “कहो, तबीयत तो ठीक नहीं दिखती, जरा हाथ तो देखूँ।”राजलक्ष्मी ने घबराकर कहा, “रहने दो आनन्द, तुम्हारी डॉक्टरी की जरूरत नहीं है; उनकी तबीयत ठीक है।”“यही निश्चय करने के लिए तो एक बार हाथ...”राजलक्ष्मी बोली, “नहीं, तुम्हें हाथ देखने की जरूरत नहीं। तुम्हें क्या लगता है, अभी साबूदाने की व्यवस्था दे दोगे।”मैंने कहा, “साबूदाना मैंने बहुत खाया है, इसलिए, मैं उसकी व्यवस्था देने पर भी नहीं सुनूँगा।”“तुम्हें सुनने की जरूरत भी नहीं है।” कहकर राजलक्ष्मी ने थोड़े से गरम सिंघाड़ों और कचौरियों की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी और फिर रतन से कहा, “अपने बाबू को चाय दे।”वज्रानन्द ने सन्यासी होने के पहले डॉक्टरी पास की थी, अत: वे सहज ही हार मानने वाले नहीं थे; गर्दन हिलाते हुए बोलने लगे, “लेकिन बहन, आप पर एक उत्तरदायित्व...”राजलक्ष्मी ने बीच ही में उनकी बात काट दी, “लो सुनो, इनका उत्तरदायित्व मुझ पर नहीं तो क्या तुम पर है? आज तक जितना उत्तरदायित्व कन्धों पर लेकर इन्हें खड़ा रखा गया है, उसे यदि सुनते तो बहिन के पास डॉक्टरी करने न आते।”यह कहकर राजलक्ष्मी ने बाकी की सारी की सारी खाद्य-सामग्री एक थाल में रखकर उनकी ओर सरकाते हुए हँसकर कहा, “अब खाओ यह सब, बातें बन्द करो।”आनन्द 'हें हें' करते हुए बोला, “अरे, क्या इतना खाया जा सकता है?”राजलक्ष्मी ने कहा, “न खाया जायेगा तो सन्यासी बनने क्यों गये थे? और पाँच भले-मानसों की तरह गृहस्थ बने रहते!”आनन्द की दोनों ऑंखें सहसा भर आयीं। बोला, “आप जैसी बहिनों का दल इस बंगाल में है तभी तो सन्यासी बना हूँ, नहीं तो, कसम खाकर कहता हूँ कि यह गेरुआ-एरुआ अजया के जल में बहाकर घर चला जाता। लेकिन, मेरा एक अनुरोध है बहिन। परसों से ही तुमने एक तरह से उपास कर रक्खा है, इसलिए आज पूजा-पाठ आदि से जरा जल्दी ही निबट लेना। इन चीजों में अब भी कोई स्पर्श-दोष नहीं लगा है। यदि आप कहें- न हो तो” कहकर उन्होंने सामने की भोज्य सामग्री पर नजर डाली।राजलक्ष्मी डरकर ऑंखें फाड़ती हुई बोली, “यह कहते क्या हो आनन्द, कल तो हमारे सारे ब्राह्मण आ नहीं सके थे!”मैंने कहा, “तो वे पहले भोजन कर जावें, उसके बाद सही।”आनन्द बोला, “ऐसा है तो लो, मुझे ही उठना पड़ा। उनके नाम और पते दो-पाखण्डियों को गले में अंगोछा डालकर खींच लाऊँगा और भोजन कराकर छोड़ूँगा।”यह कहकर वह उठने के बदले थाल खींचकर भोजन करने लगा!राजलक्ष्मी हँसकर बोली, “सन्यासी हैं न, देव-ब्राह्मणों में बड़ी भक्ति है!”इस तरह हमारा सबेरे का चाय-नाश्ते का काम जब पूरा हुआ तो आठ बज चुके थे। आकर बाहर बैठ गया। शरीर में भी ग्लानि नहीं थी और हँसी-ठट्ठे से मन भी मानों स्वच्छ प्रसन्न हो गया था। राजलक्ष्मी की विगत रात्रि की बातों और आज की बातों तथा आचरण में कोई एकता नहीं थी। उसने अभिमान और वेदना से दु:खित होकर ही वैसी बातें की थीं, इसमें सन्देह नहीं रहा। वास्तव में रात के स्तब्ध अन्धकार के आवरण में तुच्छ और मामूली घटना को बड़ी और कठोर कल्पना करके जिस दु:ख और दुश्चिन्ता को भोगा था, आज दिन के प्रकाश में, उसे याद करके मैं मन ही मन लज्जित हुआ और कौतुक भी अनुभव किया।कल की तरह आज उत्सव-समारोह नहीं था, तो भी, दिन-भर बीच-बीच में न्यौते और बिना न्यौते लोगों के भोजन का सिलसिला बराबर जारी रहा। फिर एक बार हम लोग चाय का सरो-सामान लेकर कमरे के फर्श पर आसन लगाकर बैठ गये। शाम का काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी भी थोड़ी देर के लिए हम लोगों के कमरे में आयी।वज्रानन्द बोले, “स्वागत है, बहिन।”राजलक्ष्मी ने उनकी ओर हँसते हुए देखकर कहा, “मैं समझती हूँ कि अब सन्यासी की देव-सेवा आरम्भ हो गयी है, इसीलिए न इतना आनन्द है!”आनन्द ने कहा, “तुमने झूठा नहीं कहा बहिन, संसार में जितने आनन्द हैं उनमें भजनानन्द और भोजनानन्द ही श्रेष्ठ हैं, और शास्त्र का कथन है कि त्यागी के लिए तो दूसरा ही सर्वश्रेष्ठ है।”राजलक्ष्मी बोली, “हाँ, तुम जैसे सन्यासियों के लिए!”आनन्द ने जवाब दिया, “यह भी झूठ नहीं है, बहिन। आप गृहिणी हैं, इसीलिए इसका मर्म नहीं ग्रहण कर सकीं। तभी तो हम त्यागियों का दल इधर मौज कर रहा है और आप तीन दिन से सिर्फ दूसरों को खिलाने में लगी हैं और खुद उपवास करके मर रही हैं!”राजलक्ष्मी बोली, “मर कहाँ रही हूँ, भाई? दिन पर दिन तो देख रही हूँ, इस शरीर की श्रीवृद्धि ही हो रही है।”आनन्द बोले, “इसका कारण यही है कि वह होने के लिए बाध्यो है। उस बार भी आपको देख गया था, इस बार भी आकर देख रहा हूँ। आपकी ओर देखकर ऐसा नहीं मालूम होता कि कोई संसार की चीज देख रहा हूँ, यह जैसे दुनिया से अलग और ही कुछ है।”राजलक्ष्मी का मुँह लज्जा से लाल हो उठा।मैंने उससे हँसकर कहा, “देखी तुमने अपने आनन्द की युक्ति-प्रणाली?”यह सुनकर आनन्द भी हँसकर बोला, “यह तो युक्ति नहीं,- स्तुति है। भैया, यदि यह दृष्टि होती तो क्यों नौकरी की दरखास्त देने बर्मा जाते? अच्छा बहिन, किस दुष्ट-बुद्धि देवता ने भला इस अन्धे आदमी को तुम्हारे मत्थे मढ़ दिया था? उसे क्या और कोई काम नहीं था?”राजलक्ष्मी हँस पड़ी। फिर अपने माथे पर हाथ ठोककर बोली, “देवता का दोष नहीं है भाई, दोष इस ललाट का है और इनको तो इनका बड़ा भारी दुश्मन भी दोष दे नहीं सकता।” यह कहकर उसने मुझे दिखाते हुए कहा- “पाठशाला में ये थे सबके सरदार। जितना पढ़ाते न थे उससे बहुत ज्यादा मारते थे। उस समय पढ़ती तो थी सिर्फ 'बोधोदय'। पर, पुस्तक का बोध तो क्या होना था, बोध हुआ और एक तरह का। बच्ची थी, फूल कहाँ पाती, जंगली करौंदों की माला गूँथकर इन्हें एक दिन वरमाला पहिना दी। सोचती हूँ उस समय अगर उन फलों के साथ काँटे भी गूँथ देती!”बोलते-बोलते उसका कुपित कण्ठ-स्वर दबी हँसी की आभा से सुन्दर हो उठा।आनन्द बोला, “ओह! कैसा भयानक गुस्सा है!”राजलक्ष्मी बोली, “गुस्सा नहीं तो क्या है? काँटे लाकर देनेवाला कोई और होता तो जरूर गूँथ देती। अब भी पाऊँ तो गूँथ दूँ।”यह कहकर वह तेजी से बाहर जा रही थी कि आनन्द ने पुकारकर कहा, “भागती हो?”“क्यों, क्या और कोई काम नहीं है? चाय की प्याली हाथ में लिये उन्हें कलह करने का समय है, मुझे नहीं है।”आनन्द ने कहा, “बहन, मैं तुम्हारा अनुगत हूँ। पर इस अभियोग में शह देने में तो मुझे भी लज्जा का अनुभव होता है। ये मुँह से एक भी बात निकालते, तो इन्हें इसमें घसीटने की चेष्टा भी की जाती; पर एकदम गूँगे आदमी को कैसे फन्दे में डाला जाए? और डाला भी जाए तो धर्म कैसे सहन करेगा?”राजलक्ष्मी बोली, “इसी की तो मुझे सबसे बड़ी जलन है। अच्छा, अब जो धर्म को सहन हो वही करो। चाय बिल्कुतल ठण्डी हो गयी। मैं तब तक एक बार रसोईघर का चक्क़र लगा आऊँ।”यह कहकर राजलक्ष्मी कमरे के बाहर हो गयी।वज्रानन्द ने पूछा, “बर्मा जाने का विचार क्या अब भी है भाई साहब? लेकिन बहिन साथ हर्गिज नहीं जाँयगी, यह मुझसे कह चुकी हैं।”“यह मैं जानता हूँ।”“तो फिर?”“तब अकेले ही जाना होगा।”वज्रानन्द ने कहा, “देखिए, यह आपका अन्याय है। आप लोगों को पैसा कमाने की जरूरत तो है नहीं, फिर क्यों जाँयगे दूसरे की गुलामी करने?”“कम से कम उसका अभ्यास बनाये रखने के लिए!”“यह तो गुस्से की बात हुई भाई।”“पर गुस्से के सिवाय क्या मनुष्य के लिए और कोई कारण नहीं होता आनन्द?”आनन्द बोला, “हो भी, तो वह दूसरे के लिए समझना कठिन है।”इच्छा तो हुई कि कहूँ, “यह कठिन काम दूसरे करें ही क्यों”, पर वाद-विवाद से चीज पीछे कड़वी हो जाती है, इस आशंका से चुप हो गया।इसी समय बाहर का काम निबटाकर राजलक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया। इस बार वह खड़ी न रहकर भलमनसी के साथ आनन्द के पास स्थिरतापूर्वक बैठ गयी। आनन्द ने मुझे लक्ष्य करके कहा, “बहिन, इन्होंने कहा है कि कम से कम गुलामी का अभ्यास बनाये रखने के लिए इन्हें विदेश जाना चाहिए। मैंने कहा कि यदि यही चाहिए तो आइए मेरे काम में योग दीजिए, विदेश न जाकर देश की गुलामी में ही दोनों भाई जिन्दगी बिता दें।”राजलक्ष्मी बोली, “लेकिन, यह तो डॉक्टरी नहीं जानते आनन्द।”आनन्द बोला, “क्या मैं सिर्फ डॉक्टरी ही करता हूँ? स्कूल पाठशालाएँ भी तो चलाता हूँ और उन लोगों की दुर्दशा आज कितनी ओर से और कितनी अधिक हो रही है, इसे बराबर समझाने की चेष्टा करता हूँ।”“पर वे समझते हैं क्या?”आनन्द ने कहा, “आसानी से नहीं समझते। किन्तु, मनुष्य की शुभ इच्छा यदि हृदय से सत्य होकर बाहर निकलती है, तो चेष्टा व्यर्थ नहीं जाती, बहिन।”राजलक्ष्मी ने मेरी ओर तिरछी नजर से देखकर धीरे से सिर हिला दिया। मालूम होता है कि उसने विश्वास नहीं किया और वह मेरे लिए मन ही मन सशंक हो उठी। पीछे कहीं मैं भी सम्मति न दे बैठूँ, कहीं मैं भी...आनन्द ने पूछा, “सर क्यों हिला दिया?”राजलक्ष्मी ने पहले कुछ हँसने की चेष्टा की, फिर स्निग्ध मधुर कण्ठ से कहा, “देश की दुर्दशा कितनी बड़ी है, यह मैं भी जानती हूँ आनन्द। पर तुम्हारे अकेले की चेष्टा से क्या होगा भाई?” फिर मेरी ओर इशारा करके कहा, “और ये सहायता करने जाँयगे? तब तो हो गया, फिर तो मेरी तरह तुम्हारे दिन भी इन्हीं की सेवा में कटेंगे; और कोई काम न करना होगा।”यह कहकर वह हँस पड़ी।उसको हँसते देख आनन्द भी हँसकर बोला, “तो इनको ले जाने की जरूरत नहीं है बहिन, ये चिरकाल तक तुम्हारी ऑंखों के मणि होकर रहें। पर यह अकेले-दुकेले की बात नहीं है। अकेले मनुष्य की भी आन्तरिक इच्छा-शक्ति इतनी बड़ी होती है कि उसका परिमाण नहीं होता- बिल्कुलल वामनावतार के पाँव की तरह। बाहर से देखने पर छोटा है, पर वही छोटा-सा पाँव जब फैलता है सब सारे संसार को ढँक देता है।”मैंने देखा कि वामनावतार की उपमा से राजलक्ष्मी का चित्त कोमल हो गया है; किन्तु जवाब में उसने कुछ नहीं कहा।आनन्द कहने लगा, “शायद आपकी ही बात ठीक है, मैं विशेष कुछ नहीं कर सकता। लेकिन, एक काम करता हूँ। जहाँ तक हो सकता है, दुखियों के दु:खों का अंश मैं बँटाता हूँ बहिन।”राजलक्ष्मी और भी आर्द्र होकर बोली, “यह मैं जानती हूँ आनन्द। यह तो मैंने उसी दिन समझ लिया था जिस दिन तुम्हें पहले-पहल देखा था।”मालूम होता है कि आनन्द ने इस बात पर ध्याथन नहीं दिया और वह अपनी ही बात के सिलसिले में कहने लगा, “आप लोगों की तरह मुझे भी किसी चीज का अभाव नहीं है। बाप का जो कुछ है वह आनन्द से जीवन बिताने के लिए जरूरत से ज्यादा है, पर मेरा उससे कुछ सरोकार नहीं है। इस दुखी देश में सुखभोग की लालसा भी यदि इस जीवन में रोककर रख सकूँ तो मेरे लिए यही बहुत है।”रतन ने आकर बतलाया कि रसोइए ने भोजन तैयार कर लिया है।राजलक्ष्मी ने उसे आसन तैयार करने का आदेश देकर कहा, “आज तुम लोग भोजन से जल्दी ही निबट लो आनन्द, मैं बहुत थक गयी हूँ।”वह थक गयी थी, इसमें सन्देह नहीं, लेकिन थकने की दुहाई देते उसे कभी नहीं देखा था। हम दोनों चुपचाप उठ बैठे। आज का प्रभात हम लोगों की एक बड़ी भारी प्रसन्नता में से होकर हँसी-दिल्लगी के साथ आरम्भ हुआ था और संध्याझ की मजलिस भी जमी थी। हास-परिहास से उज्ज्वल होकर, किन्तु समाप्त हुई मानो निरानन्द के मलिन अवसाद के साथ। जिस समय हम लोग भोजन करने के लिए रसाईघर की ओर चले उस समय किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकली।दूसरे दिन सबेरे वज्रानन्द ने प्रस्थान की तैयारी कर दी। और कभी यदि किसी के कहीं जाने की चर्चा उठती तो राजलक्ष्मी हमेशा आपत्ति किया करती। अच्छा दिन नहीं है, अच्छी घड़ी नहीं है, आदि कारण बतलाकर, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, करके बहुत बाधा डालती थी। लेकिन, आज उसने मुँह से एक बात भी नहीं निकाली। विदा लेकर आनन्द जिस समय तैयार हुआ उस समय पास जाकर उससे मीठे स्वर से पूछा, “आनन्द, अब क्या न आओगे भाई?”मैं पास ही था, इसलिए, स्पष्ट देख सका, सन्यासी की ऑंखों की दीप्ति अस्पष्ट सी हो गयी है, किन्तु तत्काल ही आत्म-संवरण करके वह मुँह पर हँसी लाते हुए बोला, “आऊँगा क्यों नहीं बहिन, अगर जीवित रहा तो बीच-बीच में उत्पात करने के लिए हाजिर होता रहूँगा।”“सचमुच?”“जरूर।”“लेकिन, हम लोग तो जल्द ही चले जाँयगे। जहाँ हम रहेंगे वहाँ आओगे क्या?”“हुक्म देने पर आऊँगा क्यों नहीं।”राजलक्ष्मी ने कहा, “आना। अपना पता मुझे लिख दो, मैं तुम्हें चिट्ठी लिखूँगी।”आनन्द ने जेब से कागज-पेन्सिल निकालकर पता लिखा और उसके हाथ में दे दिया। सन्यासी होकर भी दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाते हुए उसने हम दोनों को नमस्कार किया और रतन ने आकर उसकी पद-धूलि ग्रहण की। उसे आशीर्वाद दे वह धीरे-धीरे मकान के बाहर हो गया।♦♦ • ♦♦सन्यासी वज्रानन्द अपना औषधियों का बॉक्स और केनवास का बैग लेकर जिस दिन बाहर गया उस दिन से जैसे वह इस घर का आनन्द ही छीन-छानकर ले गया। यही नहीं, मुझे ऐसा लगा मानो वह उस शून्य स्थान को छिद्रहीन निरानन्द से भर गया। घने सिवार से भरे हुए जलाशय का जल, जो अपने अविश्रान्त चांचल्य के अभिघातों से निर्मल हो रहा था, मानो उसके अर्न्तध्याजन होने के साथ ही साथ लिपटकर एकाकार होने लगा। तो भी, छह-सात दिन कट गये।राजलक्ष्मी प्राय: सारे दिन घर से बाहर रहती है। कहाँ जाती है, क्या करती है, नहीं जानता, उससे पूछता भी नहीं। शाम को जब एक बार उससे भेंट होती है तो उस वक्त वह या तो अन्यमनस्क दिखाई देती है या गुमाश्ताजी साथ होते हैं और काम-काज की बातें होती रहती हैं। अकेले घर में उस 'आनन्द' की बार-बार याद आती है जो मेरा कोई नहीं है। खयाल आता, यदि वह अकस्मात् आ जाय, तो सिर्फ मैं ही खुश होता यह बात नहीं है, बरामदे की दूसरी ओर चिराग की रोशनी में बैठी हुई राजलक्ष्मी भी, जो न जाने क्या करने की चेष्टा कर रही है, मैं समझता हूँ, उतनी ही खुश होती। ऐसा ही लगने लगा। एक दिन जिनके उन्मुख युग्म-हृदय जिस बाहर का सब प्रकार का संस्रव परिहार करके एकान्त सम्मिलन की आकांक्षा से व्याकुल रहते थे, आज टूटने-विच्छिन्न होने के दिन उसी बाहर की उन्हें कितनी बड़ी जरूरत है? ऐसा लगता है कि चाहे कोई भी हो यदि वह एक बार बीच में आकर खड़ा हो जाय, तो मानो जान बच जाय।इस तरह जब दिन कटना मुश्किल हो गया, तब रतन एकाएक आकर उपस्थित हो गया। वह अपनी हँसी दबाने में असमर्थ था। राजलक्ष्मी घर पर थी नहीं, इसलिए उसे डरने की ज़रूरत नहीं थी, तो भी वह एक बार सावधानी से चारों ओर नज़र दौड़ाकर आहिस्ते से बोला, “मालूम होता है आपने सुना नहीं।”मैं बोला, “नहीं, क्या बात है?”रतन बोला, “दुर्गा माता कृपा करें कि माँ की यही बुद्धि अन्त तक बनी रहे। हम सब दो-चार दिन में ही यहाँ से चल रहे हैं।”“कहाँ चल रहे हैं?”रतन ने एक बार और दरवाजे के बाहर देख लिया और कहा, “यह तो ठीक-ठीक अब भी नहीं मालूम कर सका हूँ। या तो पटना या काशी और या- लेकिन, इनके अतिरिक्त तो और कहीं माँ का अपना मकान है नहीं।”मैं चुप रहा। इतनी बड़ी बात पर भी मुझे चुप और उत्सुकता रहित देखकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ, इसीलिए, वह अपने दबे गले की सारी ताकत लगाकर बोल उठा, “मैं सच कह रहा हूँ। हमारा चलना निश्चित है। आ:, जान बचे तब तो, है न ठीक?”मैंने कहा, “हाँ।”रतन बहुत खुश होकर बोला, “दो-चार दिन और सबके साथ तकलीफ झेल लीजिए, बस। अधिक से अधिक एक हफ्ते की बात और है, इससे ज्यादा नहीं। माँ गंगामाटी की सारी व्यवस्था कुशारी महाशय के साथ ठीक कर चुकी है। अब सामान बाँध-बूँधकर एक बार 'दुर्गा दुर्गा' कहकर चल देना ही बाकी रहा है। हम सब ठहरे शहर के निवासी, क्या यहाँ हमारा मन कभी लग सकता है?” यह कहकर वह प्रसन्नता के आवेग में उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही बाहर चला गया।रतन को कोई बात अज्ञात नहीं थी। उसकी समझ में मैं भी राजलक्ष्मी के अनुचरों में से एक था, इससे अधिक और कुछ नहीं। वह जानता था कि किसी के भी मतामत का कोई मूल्य नहीं है, सबकी पसन्द और नापसन्द मालकिन की इच्छा और अभिरुचि पर ही निर्भर है।जो आभास रतन दे गया उसका मर्म वह खुद नहीं समझता था, लेकिन, उसके वाक्य का वह गूढ़ अर्थ, देखते ही देखते, मेरे चित्त-पट में चारों ओर से परिस्फुट हो उठा। राजलक्ष्मी की शक्ति की सीमा नहीं है। उस विपुल शक्ति को लगाकर वह संसार में जैसे अपने आपको लेकर ही खेल खेल रही है। एक दिन इस खेल में मेरी ज़रूरत हुई थी, उसकी उस एकाग्र-वासना के प्रचण्ड आकर्षण को रोकने की क्षमता मुझमें नहीं थी। मैं झुककर आया था, मुझे वह बड़ा बनाकर नहीं लाई थी। सोचता था, मेरे लिए उसने अनेक स्वार्थ-त्याग किये हैं; पर आज दिखाई पड़ा कि ठीक यही बात नहीं है। राजलक्ष्मी के स्वार्थ का केन्द्र इतने समय तक देखा नहीं था, इसीलिए ऐसा सोचता आया हूँ। धन, अर्थ, ऐश्वर्य-बहुत कुछ उसने छोड़ा है, लेकिन क्या मेरे ही लिए? इन सबने कूड़े के ढेर की तरह क्या उसका निजी प्रयोजन का ही रास्ता नहीं रोका है? राजलक्ष्मी के निकट मेरे और मुझे प्राप्त करने के बीच कितना प्रभेद है यह सत्य मुझ पर आज प्रकट हुआ। आज उसका चित्त इस लोक के सब-कुछ पाये हुए को तुच्छ करके अग्रसर होने को तैयार हुआ है। उसके उस पथ के बीच खड़े होने के लिए मुझे स्थान नहीं है। इसलिए, अन्यान्य कूड़े-कचरे की तरह अब मुझे भी रास्ते के एक तरफ अनादर से पड़ा रहना पड़ेगा, चाहे वह कितना ही दु:ख दे। पर अस्वीकार करने के लिए मार्ग नहीं है। अस्वीकार किया भी नहीं कभी।दूसरे दिन सबेरे ही जान पाया कि चालाक रतन ने जो तथ्य संग्रह किया था वह गलत नहीं है। गंगामाटी-सम्बन्धी सारी व्यवस्था स्थिर हो गयी है। राजलक्ष्मी के ही मुँह से मुझे इस बात का पता लगा है। प्रात:काल नियमित पूजा-पाठ करके वह और दिनों की तरह बाहर नहीं गयी। धीरे-धीरे आकर मेरे पास बैठ गयी और बोली, “परसों इसी वक्त अगर खा-पीकर हम सब यहाँ से निकल सकें तो साँईथिया में पच्छिम की गाड़ी आसानी से मिल सकती है, न?”मैं बोला, “मिल सकती है।”राजलक्ष्मी ने कहा, “यहाँ का सब बन्दोबस्त मैं एक तरह से पूरा कर चुकी हूँ। कुशारी महाशय जिस तरह देख-रेख रखते थे, उसी तरह रखेंगे।”मैंने कहा, “अच्छा ही हुआ।”राजलक्ष्मी कुछ देर चुप रही। मालूम होता था कि प्रश्न को ठीक तौर से आरम्भ नहीं कर सकती थी, इसीलिए अन्त में बोली, “बंकू को चिट्ठी लिख दी है कि वह गाड़ी रिजर्व करके स्टेशन पर हाजिर रहेगा। लेकिन रहे तब तो?”मैंने कहा, “जरूर रहेगा। वह तुम्हारा हुक्म नहीं टालेगा।”राजलक्ष्मी बोली, “नहीं, जहाँ तक हो सकेगा टालेगा नहीं, तो भी- अच्छा तुम क्या हमारे साथ नहीं चल सकोगे?”कहाँ जाना होगा, यह प्रश्न नहीं कर सका। सिर्फ इतना ही मुँह से निकला, “अगर मेरे चलने की जरूरत समझो तो चल सकता हूँ।”इसके प्रत्युत्तर में राजलक्ष्मी कुछ न बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद सहसा घबराकर बोल उठी, “अरे, तुम्हारे लिए चाय तो अब तक लाया ही नहीं।”मैं बोला, “मालूम होता है वह काम में व्यस्त है।”वास्तव में चाय लाने का समय काफी गुजर चुका था। और दिन होता तो वह नौकरों का ऐसा अपराध कभी क्षमा न कर सकती, बक-झककर तूफान-वर्षा कर देती, लेकिन उस समय जैसे वह एक प्रकार की लज्जा से मर गयी और एक भी बात न कहकर तेजी से कमरे के बाहर हो गयी।निश्चित दिन को प्रस्थान के पहले समस्त प्रजाजन आये और घेरकर खड़े हो गये। डोम की लड़की मालती को फिर एक बार देखने की इच्छा थी, लेकिन, उसने इस गाँव को छोड़कर किसी और ही गाँव में अपनी गृहस्थी जमा ली है, इसलिए नहीं देख सका। पता लगा कि उस जगह वह अपने पति के साथ सुखी है। दोनों कुशारी-बन्धु अपने परिवार सहित रात रहते ही आ गये। जुलाहे का सम्पत्ति-सम्बन्धी झगड़े का निबटारा हो जाने से वे फिर एक हो गये हैं। राजलक्ष्मी ने कैसे यह सब किया इसे विस्तारपूर्वक जानने का कौतूहल भी नहीं था, और न जाना ही। उनके मुँह की ओर देखकर केवल इतना ही जान सका कि झगड़े का अन्त हो गया है और पूर्व-संचित अनबन की ग्लानि अब किसी भी पक्ष के मन में मौजूद नहीं है।सुनन्दा आई और उसने अपने बच्चे को लेकर मुझे प्रणाम किया। कहा, “हम सबको आप जल्दी न भूल जाँयगे, यह मैं जानती हूँ। इसके लिए तो प्रार्थना करना व्यर्थ है।”मैंने हँसकर कहा, “तो मुझसे और किस बात के लिए प्रार्थना करोगी बहिन?”“मेरे बच्चे को आप आशीर्वाद दें।”मैं बोला, “यही तो व्यर्थ प्रार्थना है, सुनन्दा। तुम जैसी माँ के बच्चे को क्या आशीर्वाद दिया जाय, यह तो मैं भी नहीं जानता, बहिन।”राजलक्ष्मी किसी काम से पास ही से जा रही थी। यह बात ज्यों ही उसके कानों पड़ी, वह कमरे के अन्दर आ खड़ी हुई और सुनन्दा की ओर से बोली, “इस बच्चे को यह आशीर्वाद दे चलो कि यह बड़ा होकर तुम्हारे ही जैसा मन पाये।”मैंने हँसकर कहा, “बड़ा अच्छा आशीर्वाद है! शायद तुम्हारे बच्चे से लक्ष्मी मजाक करना चाहती है, सुनन्दा।”बात समाप्त होने के पहले ही राजलक्ष्मी बोल उठी, “मजाक करना चाहूँगी अपने ही बच्चे के साथ, और वह भी चलने के समय?”यह कहकर वह क्षण-भर स्तब्ध रहकर बोली, “मैं भी इसकी माँ के समान हूँ। मैं भी भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि वे इसे यही दें। इससे बड़ा तो मैं कोई और वर जानती नहीं।”सहसा मैंने देखा, उसकी दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये हैं। और कुछ भी न कहकर वह कमरे से बाहर चली गयी।इसके बाद सबसे मिलकर, ऑंखों में ऑंसू भरे हुए, गंगामाटी से विदा ली। यहाँ तक कि रतन भी फिर-फिरकर ऑंखें पोंछने लगा। जो यहाँ रहने वाले थे उन्होंने हम सबसे फिर आने के लिए अत्यधिक अनुरोध किया और सबने उन्हें फिर आने का वचन भी दिया, केवल मैं ही न दे सका। मैंने ही निश्चित रूप से समझा था कि इस जीवन में अब मेरा यहाँ लौटना सम्भव नहीं है। इसलिए जाते समय इस छोटे-से गाँव को बार-बार फिर-फिरकर देखते समय मन में केवल यही विचार उत्पन्न होने लगा कि अपरिमेय माधुर्य और वेदना से परिपूर्ण एक वियोगान्त नाटक की यवनिका अभी ही गिरी है; नाट्यशाला के दीप बुझ गये हैं और अब मनुष्यों से परिपूर्ण संसार की सहस्र-विधा भीड़ में से मुझे रास्ते पर बाहर निकलना पड़ेगा। किन्तु, जिस मन को जनता के बीच बड़ी होशियारी से कदम रखने की जरूरत है, मेरा वही मन जैसे नशे की खुमारी से एकदम आच्छन्न हो रहा।शाम के बाद हम सब साँईथिया आ पहुँचे। राजलक्ष्मी के किसी भी आदेश और उपदेश की बंकू ने अवहेलना नहीं की। सब इन्तजाम करके वह स्टेशन के प्लेटफार्म पर खुद उपस्थित था। यथासमय गाड़ी आई और वह सरो-सामान लादकर, रतन को नौकरों के डिब्बे में चढ़ा, विमाता को लेकर गाड़ी में बैठ गया। लेकिन, उसने मेरे साथ कोई घनिष्ठता दिखाने की चेष्टा नहीं की, क्योंकि, अब उसका मूल्य बढ़ गया है; घर-बार रुपये-पैसे लेकर अब संसार में वह विशेष आदमियों में गिना जाने लगा है। बंकू विलक्षण व्यक्ति है। सभी अवस्थाओं को मानकर चलना जानता है। यह विद्या जिसे आती है, संसार में उसे दु:ख-भोग नहीं करना पड़ता।गाड़ी छूटने में अब भी पाँच मिनट की देरी है; लेकिन, मेरी कलकत्ते जानेवाली गाड़ी तो आयेगी प्राय: रात के पिछले पहर। एक ओर स्थिर होकर खड़ा था। राजलक्ष्मी ने गाड़ी की खिड़की से मुँह निकालकर हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। पास पहुँचते ही कहा, “जरा अन्दर आओ।” अन्दर जाने पर उसने हाथ पकड़कर मुझे पास बिठा लिया और कहा, “तुम क्या बहुत जल्दी ही बर्मा चले जाओगे? जाने के पहले क्या एक बार और नहीं मिल सकोगे?”मैं बोला, “अगर जरूरत हो तो मिल सकता हूँ।”राजलक्ष्मी धीरे से बोली, “संसार जिसे जरूरत कहता है वह नहीं। केवल एक बार और देखना चाहती हूँ। आओगे?”“आऊँगा।”“कलकत्ते पहुँचकर चिट्ठी भेजोगे?”“भेजूँगा।”बाहर गाड़ी छूटने का अन्तिम घण्टा बज उठा और गार्ड ने अपनी हरी रोशनी बार-बार हिलाकर गाड़ी छोड़ने का संकेत किया। राजलक्ष्मी ने झुककर मेरे पाँवों की धूल ली और मेरा हाथ छोड़ दिया। मैंने ज्यों ही नीचे उतरकर गाड़ी का दरवाजा बन्द किया, गाड़ी रवाना हो गयी। रात अंधेरी थी, अच्छी तरह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था, सिर्फ प्लेटफार्म के मिट्टी के तेल के लैम्पों ने धीरे-धीरे सरकती हुई गाड़ी की उस खुली खिड़की की एक अस्पष्ट नारी-मूर्ति पर कुछ रोशनी डाली।कलकत्ता आकर मैंने चिट्ठी भेजी और उसका जवाब भी पाया। यहाँ कोई अधिक काम तो था नहीं, जो कुछ था वह पन्द्रह दिन में समाप्त हो गया। अब विदेश जाने का आयोजन करना होगा। लेकिन, उसके पहले वादे के अनुसार एक बार फिर राजलक्ष्मी से मिल आना होगा। दो सप्ताह और भी यों ही बीत गये। मन में एक आशंका थी कि न जाने उसका क्या मतलब हो, शायद आसानी से छोड़ना नहीं चाहे, या इतनी दूर जाने के विरुद्ध तरह-तरह के उज्र और आपत्तियाँ खड़ी करके जिद करे- कुछ भी असम्भव नहीं है। इस समय वह काशी में है। उसके रहने का पता भी जानता हूँ; इधर उसके दो-तीन पत्र भी आ चुके हैं, और यह भी विशेष रूप से लक्ष्य कर चुका हूँ कि मेरे वादे को याद दिलाने के सम्बन्ध में कहीं भी उसने इशारा करने का प्रयत्न नहीं किया है। न करने की तो बात ही है। मन ही मन कहा, अपने को इतना छोटा बनाकर मैं भी शायद मुँह खोलकर यह नहीं लिख सकता कि तुम आकर एक बार मुझसे मिल जाओ। देखते-देखते अकस्मात् मैं जैसे अधीर हो उठा। और इस जीवन के साथ वह इतनी जकड़ी हुई है, यह बात इतने दिन कैसे भूला हुआ था, यह सोचकर अवाक् हो गया। घड़ी निकालकर देखी, अब भी समय है, गाड़ी पकड़ी जा सकती है। तब समान डेरे पर पड़ा रहा और मैं बाहर निकल पड़ा।इधर-उधर फैली हुई चीजों को देखकर मन में आया, रहें ये सब पड़ी हुईं। मेरी जरूरतों को जो मुझसे भी अधिक अच्छी तरह जानती है, उसी के उद्देश्य से-उसी से मिलने के लिए, जब यात्रा करना है, तब यह जरूरतों का बोझा नहीं ढोऊँगा। रात को गाड़ी में किसी तरह नींद नहीं आई, अलस तन्द्रा के झोंकों से मुँदी हुई दोनों ऑंखों की पलकों पर कितने विचार और कितनी कल्पनाएँ खेलती हूई घूमने लगीं उनका आदि-अन्त नहीं। शायद, अधिकांश ही विशृंखल थीं, परन्तु, सभी जैसे मधु से भरी हुईं। धीरे-धीरे सुबह हुई, दिन चढ़ने लगा, लोगों के चढ़ने-उतरने, बोलने-पुकारने और दौड़-धूप करने की हद नहीं, तेज धूप के कारण चारों ओर कहीं भी कुहरे का चिह्न नहीं रहा; पर, मेरी ऑंखें बिल्कुईल वाष्पाछन्न हो रहीं।रास्ते में गाड़ी लेट हो जाने के कारण राजलक्ष्मी के काशी के मकान पर जब मैं पहुँचा तो बहुत देरी हो गयी थी। बैठक के सामने एक बूढ़े से ब्राह्मण हुक्का पी रहे थे। उन्होंने मुँह उठाकर पूछा, “क्या चाहते हैं?”यह सहसा नहीं बतला सका कि क्या चाहता हूँ। उन्होंने फिर पूछा, “किसे खोज रहे हैं?”किसे खोज रहा हूँ, सहसा यह बतलाना भी कठिन हो गया। जरा रुककर बोला, “रतन है क्या?”“नहीं, वह बाजार गया है।”ब्राह्मण सज्जन व्यक्ति थे। मेरे धूलि-भरे मलिन मुख की ओर देखकर शायद उन्होंने अनुमान कर लिया कि मैं दूर से आ रहा हूँ, इसलिए दयापूर्ण स्वर में बोले- “आप बैठिए, वह जल्द आएगा। आपको क्या सिर्फ उसी की जरूरत है?”पास ही एक चौकी पर बैठ गया। उनके प्रश्न का ठीक उत्तर न देकर पूछ बैठा, “यहाँ बंकू बाबू हैं?”“हैं क्यों नहीं।”यह कहकर उन्होंने एक नये नौकर को कहा कि बंकू बाबू को बुला दे।बंकू ने आकर देखा तो पहले वह बहुत विस्मित हुआ। बाद में मुझे अपनी बैठक में ले जाकर और बिठाकर बोला, “हम लोग तो समझते थे कि आप बर्मा चले गये।”इस 'हम लोग' का क्या मतलब है, यह मैं पूछ नहीं सका। बंकू ने कहा, “आपका सामान अभी गाड़ी पर ही है क्या?”“नहीं, मैं साथ में कोई सामान नहीं लाया।”“नहीं लाये? तो क्या रात की ही गाड़ी से लौट जाना है?”मैंने कहा, “सम्भव हुआ तो ऐसा ही विचार करके आया हूँ।”बंकू बोला, “तब ठीक है, इतने थोड़े वक्त के लिए सामान की क्या जरूरत!”नौकर आकर धोती, गमछा और हाथ-मुँह धोने को पानी आदि जरूरी चीजें दे गया; पर, और कोई मेरे पास नहीं आया।भोजन के लिए बुलाहट हुई, जाकर देखा, चौके में मेरे और बंकू के बैठने की जगह पास पास ही की गयी है। दक्षिण का दरवाजा ठेलकर राजलक्ष्मी ने अन्दर प्रवेश करके मुझे प्रणाम किया। शुरू में तो शायद उसे पहिचान ही न सका। जब पहिचाना तो ऑंखों के सामने मानो अन्धकार छा गया। यहाँ कौन है और कौन नहीं, नहीं सूझ पड़ा। दूसरे ही क्षण खयाल आया कि मैं अपनी मर्यादा बनाये रखकर, कुछ ऐसा न करके जिसमें कि हँसी हो, इस घर से फिर सहज ही भले मानस की तरह किस तरह बाहर हो सकूँगा।राजलक्ष्मी ने पूछा, “गाड़ी में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?”इसके सिवा वह और क्या पूछ सकती थी? मैं धीरे से आसन पर बैठकर कुछ क्षण स्तब्ध रहा, शायद एक घड़ी से अधिक नहीं और फिर मुँह उठाकर बोला, “नहीं, तकलीफ नहीं हुई।”इस बार उसके मुँह की ओर अच्छी तरह देखा तो मालूम हुआ कि उसने न केवल सारे आभूषण ही उतार कर शरीर पर एक सादी किनारी की धोती धारण कर रक्खी है, बल्कि, उसकी पीठ पर लटकने वाली मेघवत् सुदीर्घ केशराशि भी गायब है। माथे के ऊपर, ललाट के नीचे तक, ऑंचल खिंचा हुआ है, तो भी उसमें से कटे बालों की दो-चार लटें गले के दोनों ओर निकलकर बिखर गयी हैं। उपवास और कठोर आत्म-निग्रह की एक ऐसी रूखी दुर्बलता चेहरे से टपक रही है कि अकस्मात् जान पड़ा कि इस एक ही महीने में वह उम्र में भी मानो मुझसे दस साल आगे बढ़ गयी है।भात के ग्रास मेरे गले में पत्थर की तरह अटकते थे, तो भी, जबर्दस्ती निगलने लगा। बार-बार यही खयाल करने लगा कि इस नारी के जीवन से हमेशा के लिए पुँछकर विलुप्त हो जाऊँ और आज, सिर्फ एक दिन के लिए भी, यह मेरे कम खाने की आलोचना करने का अवसर न पावे।भोजन समाप्त होने के बाद राजलक्ष्मी ने कहा, “बंकू कहता था कि तुम आज रात की ही गाड़ी से वापस चले जाना चाहते हो?”मैंने कहा, “हाँ।”“ऐसा भी कहीं होता है! लेकिन, तुम्हारा जहाज तो उस रविवार को छूटेगा।”इस व्यक्त और अव्यक्त उच्छ्वास से विस्मित होकर उसके मुँह की ओर देखा। देखते ही वह हठात् जैसे लज्जा से मर गयी और दूसरे ही क्षण अपने को सँभालकर धीरे से बोली, “उसमें तो अब भी तीन दिन की देरी है?”मैंने कहा, “हाँ पर और भी तो काम हैं।”राजलक्ष्मी फिर कुछ कहना चाहती थी; पर चुप रही। शायद मेरी थकावट, और अस्वस्थ होने की सम्भावना के खयाल से उस बात को मुँह पर न ला सकी। कुछ देर और चुप रहकर बोली, “मेरे गुरुदेव आये हैं।”समझ गया कि बाहर जिस व्यक्ति से पहले-पहल मुलाकात हुई थी वही गुरुदेव हैं। उन्हीं को दिखाने के लिए ही वह एक बार मुझे इस काशी में खींच लाई थी। शाम को उनके साथ बातचीत हुई। मेरी गाड़ी रात को बारह बजे के बाद छूटेगी। अब भी बहुत समय है। आदमी सचमुच अच्छे हैं। स्वधर्म में अविचल निष्ठा है और उदारता का भी अभाव नहीं है। हमारी सभी बातें जानते हैं, क्योंकि, अपने गुरु से राजलक्ष्मी ने कोई बात छिपाई नहीं है। उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। कहानी के बहाने उपदेश भी कम न दिये; पर वे न उग्र थे और न चोट करने वाले। सब बातें याद नहीं हैं, शायद मन लगाकर सुनी भी नहीं थीं; तो भी, इतना याद है कि कभी न कभी राजलक्ष्मी का इस रूप में परिवर्तन होगा, यह वे जानते थे। दीक्षा के सम्बन्ध में भी वे प्रचलित रीति नहीं मानते हैं। उनका विश्वास है कि जिसका पाँव फिसला है, सद्गुरु की, औरों की अपेक्षा, उसी को अधिक आवश्यकता है।इसके विरुद्ध मैं कहता ही क्या? उन्होंने फिर एक बार अपनी शिष्या की भक्ति, निष्ठा और धर्मभीरुता की भूरि-भूरि प्रशंसा करके कहा, “ऐसी स्त्री दूसरी नहीं देखी।”बात वास्तव में सच थी, पर मैं इसे खुद भी उनके कहने की अपेक्षा कम नहीं जानता था। किन्तु, चुप हो रहा।समय होने लगा, घोड़ागाड़ी दरवाजे के सामने आकर खड़ी हो गयी। गुरुदेव से विदा लेकर मैं गाड़ी पर जा बैठा। राजलक्ष्मी ने सड़क पर आकर और गाड़ी के अन्दर हाथ बढ़ाकर बार-बार मेरे पाँवों की धूलि अपने माथे पर लगाई, पर मुँह से कुछ भी न कहा। शायद उसमें यह शक्ति ही नहीं थी। अच्छा ही हुआ जो अंधेरे में वह मेरा मुँह नहीं देख सकी। मैं भी स्तब्ध हो रहा, क्या कहूँ, नहीं खोज सका। अन्तिम विदा नि:शब्द ही पूरी हुई। गाड़ी चल पड़ी। मेरी दोनों ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे। मैंने अपने सर्वान्त:करण से कहा, “तुम सुखी होओ, शान्त होओ, तुम्हारा लक्ष्य ध्रुव हो, तुम्हारी ईष्या न करूँगा; लेकिन, जिस अभागे ने सब कुछ त्यागकर एक साथ एक दिन अपनी नौका छोड़ दी थी, इस जीवन में उसे अब किनारा नहीं मिलेगा।”गाड़ी गड़गड़ाती हुई रवाना हो गयी। उस दिन की विदा के समय जो सब बातें मन में आई थीं, वही फिर जाग उठीं। मन में आया कि यह जो एक जीवन-नाटक का अत्यन्त स्थूल और साधु उपसंहार हुआ है इसकी ख्याति का अन्त नहीं है। इतिहास में लिखने पर इसकी अम्लान दीप्ति कभी धूमिल नहीं होगी। श्रद्धा और विस्मय के साथ मस्तक झुकाने वाले पाठकों का भी किसी दिन संसार में अभाव न होगा- लेकिन, मेरी आत्म-कहानी किसी को भी सुनाने की नहीं है। मैं चला अन्यत्र। मेरे ही समान जो पाप-पंक में डूबी है, जिसे अच्छे होने का कोई मार्ग नहीं रहा है, उसी अभया के आश्रय में। मन ही मन राजलक्ष्मी को लक्ष्य करके बोला, “तुम्हारा पुण्य-जीवन उन्नत से भी उन्नततर हो, धर्म की महिमा तुम्हारे द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर हो, मैं अब क्षोभ नहीं करूँगा।” अभया की चिट्ठी मिली है। स्नेह, प्रेम और करुणा से अटल अभया ने, बहन से भी अधिक स्नेहमयी विद्रोहिणी अभया ने, मुझे सादर आमन्त्रित किया है। आने के समय छोटे से दरवाजे पर उसके जो सजल नेत्र दिखे थे, वे याद आ गये और याद आ गया उसका समस्त अतीत और वर्तमान इतिहास। चित्त की शुद्धता, बुद्धि की निर्भरता और आत्मा की स्वाधीनता से वह जैसे मेरे सारे दु:खों को एक क्षण में ढँककर उद्भासित हो उठी।सहसा गाड़ी के रुकने पर चकित होकर देखा तो स्टेशन आ गया है। उतरकर खड़े होते ही एक और व्यक्ति कोच-बॉक्स से शीघ्रतापूर्वक उतरा और उसने मेरे पैरों पर पड़कर प्रणाम किया।“कौन है रे, रतन?”“बाबू, विदेश में चाकर की जरूरत हो तो मुझे खबर दीजिएगा। जब तक जीवित रहूँगा। आपकी सेवा में त्रुटि न होगी।”गाड़ी की बत्ती की रोशनी उसके मुँह पर पड़ रही थी। मैं विस्मित होकर बोला, “तू रोता क्यों है?”रतन ने जवाब नहीं दिया, हाथ से ऑंखें पोंछकर पाँव के पास फिर झुककर प्रणाम किया और वह जल्दी से अन्धकार में अदृश्य हो गया।आश्चर्य, यह वही रतन है!

 ❤️,श्रीकांत"❤️     अध्ध्याय 14 संध्या तो हो आई, पर रात के अन्धकार के घोर होने में अब भी कुछ विलम्ब था। इसी थोड़े से समय के भीतर किसी भी तरह से हो, कोई न कोई ठौर-ठिकाना करना ही पड़ेगा। यह काम मेरे लिए कोई नया भी न था, और कठिन होने के कारण मैं इससे डरा भी नहीं हूँ। परन्तु, आज उस आम-बाग के बगल से पगडण्डी पकड़ के जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा तो न जाने कैसी एक उद्विग्न लज्जा से मेरा मन भीतर से भर आने लगा। भारत के अन्यान्य प्रान्तों के साथ किसी समय घनिष्ठ परिचय था; किन्तु, अभी जिस मार्ग से चल रहा हूँ, वह तो बंगाल के राढ़-देश का मार्ग है। इसके बारे में तो मेरी कुछ भी जानकारी नहीं है। मगर यह बात याद नहीं आई कि सभी देश-प्रदेशों के बारे में शुरू-शुरू में ऐसा ही अनभिज्ञ था, और ज्ञान जो कुछ प्राप्त किया है वह इसी तरह अपने आप अर्जन करना पड़ा है, दूसरे किसी ने नहीं करा दिया। असल में, किसलिए उस दिन मेरे लिए सर्वत्र द्वार खुले हुए थे, और आज, संकोच और दुविधा से वे सब बन्द से हो गये, इस बात पर मैंने विचार ही नहीं किया। उस दिन के उस जाने में कृत्रिमता नहीं थी; मगर आज जो कुछ कर रहा हूँ, यह तो...