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He fell asleep because we could sleep peacefully.It was an Indian soldier who got martyred today.Jai HindMilitaryThere are lights in our Diwali because someone is standing on the border in the dark.Jai Hindwhat did a soldier lose

हम चैन से सो पाए इसलिए ही वो सो गया, वो भारतीय फौजी ही था जो आज शहीद हो गया. जय हिन्द Army  हमारी दिवाली में रोशनी इसलिए हैं क्योंकि सरहद पर अँधेरे में कोई खड़ा हैं. जय हिन्द एक सैनिक ने क्या खूब कहा है. किसी गजरे की खुशबु को महकता छोड़ आया हूँ, मेरी नन्ही सी चिड़िया को चहकता छोड़ आया हूँ, मुझे छाती से अपनी तू लगा लेना ऐ भारत माँ, मैं अपनी माँ की बाहों को तरसता छोड़ आया हूँ। जय हिन्द जहाँ हम और तुम हिन्दू-मुसलमान के फर्क में लड़ रहे हैं, कुछ लोग हम दोनों के खातिर सरहद की बर्फ में मर रहे हैं. नींद उड़ गया यह सोच कर, हमने क्या किया देश के लिए, आज फिर सरहद पर बहा हैं खून मेरी नींद के लिए. जय हिन्द जहर पिलाकर मजहब का, इन कश्मीरी परवानों को, भय और लालच दिखलाकर तुम भेज रहे नादानों को, खुले प्रशिक्षण, खुले शस्त्र है खुली हुई शैतानी है, सारी दुनिया जान चुकी ये हरकत पाकिस्तानी है, जय हिन्द फ़ौजी की मौत पर परिवार को दुःख कम और गर्व ज्यादा होता हैं, ऐसे सपूतो को जन्म देकर माँ का कोख भी धन्य हो जाता हैं. जिसकी वजह से पूरा हिन्दुस्तान चैन से सोता हैं, कड़ी ठंड, गर्मी और बरसात में अपना धैर्य न खोता ह...

अध्याय 17 वैष्णवी ने आज मुझसे बार-बार शपथ करा ली कि उसका पूर्व विवरण सुनकर मैं घृणा नहीं करूँगा।“सुनना मैं चाहता नहीं, पर अगर सुनूँ तो घृणा नकरूँगा।”वैष्णवी ने सवाल किया, “पर क्यों नहीं करोगे? सुनकर औरत-मर्द सब ही तो घृणा करते हैं।”“मैं नहीं जानता कि तुम क्या कहोगी, तो भी अन्दाज लगा सकता हूँ। यह जानता हूँ कि उसे सुनकर औरतें ही औरतों से सबसे ज्यादा घृणा करती हैं, और इसका कारण भी जानता हूँ, पर तुम्हें वह नहीं बताना चाहता। पुरुष भी करते हैं, किन्तु बहुत बार वह छल होता है, और बहुत बार आत्मवंचना। तुम जो कुछ कहोगी उससे भी बहुत ज्यादा भद्दी बातें मैंने खुद तुम लोगों के मुँह से सुनी हैं, और अपनी ऑंखों भी देखी हैं। पर तो भी मुझे घृणा नहीं होती।”“क्यों नहीं होती?”“शायद यह मेरा स्वभाव है। पर कल ही तो तुमसे कहा है कि इसकी जरूरत नहीं। सुनने के लिए मैं जरा भी उत्सुक नहीं। इसके अलावा कौन कहाँ का है, यह सब कहानी मुझसे नहीं भी कही तो क्या हर्ज है?”वैष्णवी काफी देर तक चुप हो कुछ सोचती रही। इसके बाद अचानक पूछ बैठी, “अच्छा गुसाईं, तुम पूर्वजन्म और अगले जन्मपर विश्वास करते हो?”“नहीं।”“नहीं क्यों? क्या तुम सोचते हो कि ये सब बातें सचमुच नहीं हैं?”“मेरे सोचने के लिए दूसरी बहुत बातें हैं, शायद ये सब सोचने के लिए मुझे समय ही नहीं मिलता।”वैष्णवी फिर क्षणभर मौन रहकर बोली, “एक घटना तुम्हें बताऊँगी, विश्वास करोगे? ठाकुरजी की ओर मुँह करके कहती हूँ कि तुमसे झूठ नहीं कहूँगी।”मैंने हँसकर कहा, “करूँगा।”“तो कहती हूँ। एक दिन गौहर गुसाईं के मुँह से सुना कि उनकी पाठशाला का एक मित्र उनके घर आया है। सोचा कि जो आदमी एक दिन भी यहाँ आए बिना नहीं रह सकता, वह अपने बचपन के मित्र के साथ छह-सात दिन कैसे भूला रहा? फिर सोचा कि यह कैसा ब्राह्मण मित्र है जो अनायास ही मुसलमान के घर पड़ा रहा, किसी से भी नहीं डरा? उसका क्या कहीं भी कोई नहीं है? पूछने पर गौहर गुसाईं ने भी ठीक यही बात कही। कहा कि संसार में उसका अपना कहने लायक कोई नहीं है, इसीलिए उसे डर नहीं है, चिंता भी नहीं है। मन-ही-मन खयाल किया कि ऐसा ही होगा। पूछा, गुसाईं, तुम्हारे मित्र का क्या नाम है? नाम सुनकर जैसे चौंक गयी। जानते तो हो गुसाईं, यह नाम मुझे नहीं लेना चाहिए।”हँसकर बोला, “जानता हूँ। तुम्हारे मुँह से ही सुना है।”वैष्णवी ने कहा, “पूछा, तुम्हारा मित्र देखने में कैसा है? उम्र क्या है? गुसाईं ने जो कुछ कहा उसका कुछ हिस्सा तो कानों में गया, और कुछ नहीं। पर हृदय के भीतर धड़कन होने लगी। तुम खयाल करते होगे कि ऐसा आदमी तो नहीं देखा तो नाम सुनकर ही पागल हो जाए। पर यह सच है। सिर्फ नाम सुनकर ही औरतें पागल हो जाती हैं गुसाईं!”“उसके बाद?”वैष्णवी ने कहा, “उसके बाद खुद भी हँसने लगी पर भूल न सकी। सब काम-काजों में मुझे केवल एक ही बात याद आने लगी कि तुम कब आओगे, तुम्हें अपनी ऑंखों से कब देख सकूँगी।”सुनकर चुप रहा, पर उसके चेहरे की ओर देखकर हँस न सका।वैष्णवी ने कहा, “अभी तो कल शाम को ही तुम आये हो, पर आज इस संसार में मुझसे ज्यादा तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता। पूर्वजन्म अगर सत्य न होता तो क्या एक दिन में यह असम्भव बात सम्भव हो सकती?”कुछ ठहरकर उसने फिर कहा, “मैं जानती हूँ कि तुम रहने नहीं आये हो और रहोगे भी नहीं। चाहे जितनी भी प्रार्थना क्यों न करूँ, तुम दो-एक दिन बाद चले ही जाओगे। पर मैं केवल वही सोचती हूँ कि इस व्यथा को मैं कब तक सँभाले रहूँगी।” यह कहकर उसने सहसा ऑंचल से ऑंखें पोंछ डालीं।मैं चुप हो रहा। इतने थोड़े-से समय में, इतनी स्पष्ट और प्रांजल भाषा में रमणी के प्रणय-निवेदन की कहानी इसके पहले न तो कभी किताब में पढ़ी थी और न लोगों की जुबानी ही सुनी थी। और अपनी ऑंखों से ही देख रहा हूँ कि यह अभिनय भी नहीं है। कमललता देखने में सुन्दर है, निरक्षर मूर्ख भी नहीं है, उसकी बात-चीत, उसका गाना, उसका आदर-प्यार और उसकी अतिथि-सेवा की आन्तरिकता के कारण वह मुझे अच्छी लगी है, और इस अच्छे लगने का प्रशंसा और रसिकता की अत्युक्ति से फैलाव करने में मैंने कंजूसी भी नहीं की है। पर देखते ही देखते यह परिणति इतनी गहरी हो जायेगी, वैष्णवी के आवेदन से, अश्रु-मोचन से और माधुर्य के उत्कंपठि‍त आत्मप्रकाश से सारा मन ऐसी तिक्तता से परिपूर्ण हो जायेगा- यह क्या क्षणभर भी पहले जानता था। मानो मैं हतबुद्धि हो गया। यही नहीं कि सिर्फ लज्जा से ही सारा शरीर रोमांचित हो गया हो, बल्कि एक प्रकार की अनजान विपद की आशंका से हृदय में अब कतई शान्ति और निराकुलता न रही। पता नहीं कि किस अशुभ मुहूर्त में काशी से चला था जो एक पूँटू का जाल तोड़कर दूसरी पूँटू के फन्दे में बुरी तरह फँस गया। इधर उम्र यौवन की सीमा लाँघ रही है, ऐसे असमय में अयाचित नारी-प्रेम की ऐसी बाढ़ आ गयी कि सोच ही न सका कि कहाँ भागकर आत्मरक्षा करूँ! कल्पना भी न की थी कि पुरुष के लिए युवती-रमणी की प्रणय-भिक्षा इतनी अरुचिकर हो सकती है। सोचा, एकाएक मेरा मूल्य इतना कैसे बढ़ गया? आज राजलक्ष्मी का प्रयोजन भी मुझमें शेष नहीं होना चाहता यही मीमांसा हुई है कि वह अपनी वज्रमुष्टि को जरा भी ढीला कर मुझे निष्कृति नहीं देगी। पर अब यहाँ और नहीं रहना चाहिए। साधु-संग सिर-माथे, यही स्थिर किया कि इस स्थान को कल ही छोड़ दूँगा।एकाएक वैष्णवी चकित हो उठी, “अरे वाह! तुम्हारे लिए चाय जो मँगाई है, गुसाईं ।”“कहती क्या हो? कहाँ मिली?”“आदमी को शहर भेजा था। जाऊँ, तैयार करके ले आऊँ, देखो, कहीं भाग न जाना।”“नहीं, लेकिन बनाना जानती हो?”वैष्णवी ने जवाब नहीं दिया, सिर्फ सिर हिलाकर हँसती हुई चली गयी। उसके चले जाने के बाद उस ओर देखने पर हृदय में न जाने कैसी एक चोट-सी लगी। चाय-पान आश्रम की व्यवस्था नहीं है, शायद मनाही है, तो भी उसे यह खबर लग गयी कि यह चीज मुझे अच्छी लगती है और शहर में आदमी भेजकर उसने मँगवा भी ली। उसके विगत जीवन का इतिहास नहीं जानता, और वर्तमान का भी नहीं। केवल यह आभास मिला है कि वह अच्छा नहीं है, वह निन्दा के योग्य है- सुनने पर लोगों को घृणा होती है। तथापि, वह उस कहानी को मुझसे छिपाना नहीं चाहती, सुनाने के लिए बार-बार जिद कर रही है, सिर्फ मैं ही सुनने को राजी नहीं हूँ। मुझे कुतूहल नहीं है, क्योंकि प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन उसी का है। अकेले बैठे हुए इस प्रयोजन के सम्बन्ध में सोचते हुए स्पष्टत: देखा कि मुझे बताए वगैर उसके हृदय की ग्लानि नहीं मिटेगी- मन में वह किसी तरह भी बल नही पा रही है। सुना है कि मेरा 'श्रीकान्त' नाम कमललता उच्चारण नहीं कर सकती। पता नहीं कि कौन यह उसका परमपूज्य गुरुजन है और उसने कब इस लोक से बिदा ले ली है। हमारे नाम की इस दैवी एकता ने ही शायद इस विपत्ति की सृष्टि की है और उसने तब से ही कल्पना में गत जन्म के स्वप्न सागर में डुबकी लगाकर संसार की सब यथार्थताओं को तिलांजलि दे दी है।तो भी ऐसा लगता है कि इसमें विस्मय की कोई बात नहीं। रस की आराधना में आकण्ठ-मग्न रहते हुए भी उसकी एकान्त नारी-प्रकृति आज भी शायद रस का तत्व नहीं पा सकी है, वह असहाय अपरितृप्त प्रवृत्ति इस निरवच्छिन्न भाव-विलास के उपकरणों को संग्रह करने में शायद आज क्लान्त है- दुवि‍‍धा से पीड़ित है। उसका वह पथभ्रष्ट विभ्रान्त मन अपने अनजान में ही न जाने कहाँ अवलम्ब खोजने में प्राणपण से जुटा हुआ है- वैष्णवी उसका पता नहीं जानती, इसीलिए आज वह बार-बार चौंककर अपने विगत-जन्म के रुद्ध द्वार पर हाथ फैलाकर अपराध की सान्त्वना माँग रही है। उसकी बातें सुनकर समझ सकता हूँ कि मेरे नाम 'श्रीकान्त' को ही पाथेय बनाकर आज वह अपनी नाव छोड़ देना चाहती है।वैष्णवी चाय ले आयी। सब नयी व्यवस्था है, पीकर बहुत आनन्द मिला। मनुष्य का मन कितनी आसानी से परिवर्तित हो जाता है- अब मानो उसके खिलाफ कोई शिकायत नहीं!पूछा, “कमललता, तुम क्या कलवार हो?”कमललता ने हँसकर कहा, “नहीं, सुनार-बनियाँ। पर तुम्हारे निकट तो कोई प्रभेद नहीं है- दोनों ही एक हैं।”“कम-से-कम मेरे निकट तो एक ही हैं। दोनों ही एक क्यों बल्कि सबके एक हो जाने पर भी कोई नुकसान नहीं।”वैष्णवी ने कहा, “ऐसा ही तो लगता है। तुमने तो गौहर की माँ के हाथ का भी खाया है।”“उन्हें तुम नहीं जानतीं। गौहर बाप की तरह का नहीं है, उसे अपनी माँ का स्वभाव मिला है। इतना शान्त, अपने को भूला हुआ, ऐसा अच्छा मनुष्य कभी देखा है? उसकी माँ ऐसी ही थी। एक बार बचपन में गौहर के पिता के साथ उनके झगड़े की बात मुझे याद है। उन्होंने किसी को छिपाकर बहुत से रुपये दे दिये थे। इसी वजह से झगड़ा खड़ा हुआ। गौहर के पिता बदमिजाज आदमी थे। हम तो डर के मारे भाग गये। कुछ घण्टे बाद धीरे-धीरे आकर देखा कि गौहर की माँ चुपचाप बैठी हैं। गौहर के पिता के बारे में पूछने पर पहले तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। पर हमारे मुँह की ओर ताकते हुए वे एक बार खिलखिलाकर हँस पड़ीं। ऑंखों से पानी की कुछ बूँदें नीचे गिर पड़ीं। यह उनकी आदत थी।”वैष्णवी ने प्रश्न किया, “इसमें हँसने की कौन-सी बात हुई?”“हमने भी तो यही सोचा। पर जब हँसी रुक गयी तो वे धोती से ऑंखें पोंछ कर बोलीं, “मैं कैसी मूर्ख औरत हूँ बेटा! वे तो मजे से पेट भर कर खुर्राटे ले रहे हैं, और मैं बिना खाये उपवास कर गुस्से में जल-भुन रही हूँ, बताओ, इसकी क्या जरूरत है!” और इस कहने के साथ ही उनका सारा अभिमान और क्रोध धुल-पुँछकर साफ हो गया। यह भुक्तभोगी के अलावा और कोई नहीं जानता कि औरतों का यह कितना बड़ा गुण है!”वैष्णवी ने प्रश्न किया, “तुम क्या भुक्तभोगी हो, गुसाईं?”मैं कुछ सिटपिटा गया। यह नहीं सोचा था कि उसको छोड़कर यह प्रश्न मेरे ही सिर आ पड़ेगा। कहा, “सब क्या खुद ही भोगना पड़ता है कमललता, दूसरों को देखकर भी तो सीखा जाता है। इस मोटी भौंहों वाले आदमी के निकट क्या तुमने कुछ नहीं सीखा?”वैष्णवी ने कहा, “पर वह तो मेरे लिए पराया नहीं है।”और कोई प्रश्न अब मेरे मुँह से नहीं निकला-बिल्कुमल निस्तब्ध हो गया।वैष्णवी खुद भी कुछ देर चुप रही। फिर हाथ जोड़कर बोली, “तुमसे विनती करती हूँ गुसाईं, एक बार मेरी शुरू की बातें सुन लो...”“अच्छी बात है, कहो।”पर जब कहने चली तो देखा कि कहना उतना आसान नहीं है। मेरी तरह मुँह नीचा किये हुए उसे भी काफी देर तक चुप रहना पड़ा। पर उसने हार नहीं मानी। अन्तर्द्वन्द्व में विजयी होकर जब उसने एक बार मुँह ऊपर उठाकर देखा तो मुझे भी ऐसा लगा कि उसके स्वाभाविक सुश्री चेहरे पर मानो एक खास चमक आ गयी है। बोली, “अहंकार मर कर भी नहीं मरता गुसाईं! हमारे बड़े गुसाईं कहते हैं कि यह मानो फूस की आग है जो बुझकर भी नहीं बुझती। राख हटाते ही नजर आता है कि धक-धक धधक रही है, पर इसीलिए इसे फूँक देकर बढ़ा तो नहीं सकती। फिर तो मेरा इस पथ पर आना ही मिथ्या हो जायेगा। सुनो। किन्तु औरत हूँ न, इसलिए शायद सब बातें खोलकर न भी कह सकूँ।”मेरे संकोच की सीमा न रही। अन्तिम बार विनती कर कहा, “औरतों के पैर फिसलने के विवरणों में मुझे दिलचस्पी नहीं है, उत्सुकता भी नहीं, और उन्हें सुनना मुझे कभी अच्छा भी नहीं लगा कमललता। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हारी वैष्णव-साधना में अहंकार के नाश के लिए कौन से मार्ग का निर्देश महाजनों ने किया है, पर अपने गुप्त पापों को अनावृत्त करने की स्पर्ध्दित विनय ही अगर तुम्हारे प्रायश्चित्त का विधान हो, तो तुम्हें अनेक-व्यक्ति मिल जाँयगे जिन्हें ऐसी सब कहानियाँ सुनना बहुत रुचिकर लगता है। मुझे माफ करो, कमललता, इसके अलावा मैं शायद कल ही चला जाऊँगा, शायद फिर जीवन में कभी हम लोगों की मुलाकात भी नहीं होगी।”वैष्णवी ने कहा, “तुमसे तो पहले ही कहा है गुसाईं, प्रयोजन तुम्हारा नहीं, मेरा है, पर यह क्या तुम सच कह रहे हो, कल के बाद हमारी मुलाकात नहीं होगी? नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता। मेरा मन कहता है कि फिर मुलाकात होगी- मैं यही आशा लेकर रहूँगी। पर क्या वास्तव में मेरे बारे में कुछ भी जानने की इच्छा तुम्हारी नहीं है? हमेशा क्या सिर्फ एक अनुमान और सन्देह को ही लिये रहोगे?”प्रश्न किया, “आज वन में जिस आदमी से मेरी मुलाकात हुई, जिसे तुम आश्रम में घुसने नहीं देतीं, जिसके उपद्रव से तुम भागना चाहती हो- वह क्या वास्तव में तुम्हारा कोई नहीं होता? बिल्कुनल पराया है?”“किस के डर से भाग रही हूँ, यह तुम समझ गये गुसाईं?”“हाँ, ऐसा ही तो लगता है। पर वह है कौन?”“वह कौन है? वह मेरे इह और परलोक की नरक-यन्त्रणा है। इसीलिए तो निरन्तर रोकर भगवान से कहती हूँ, प्रभु, मैं तुम्हारी दासी हूँ- मनुष्य के प्रति इतनी जबरदस्त घृणा मेरे मन से निकाल दो, जिससे मैं फिर आसानी से साँस लेकर जी सकूँ। नहीं तो मेरी सारी साधना व्यर्थ हो जायेगी।”उसकी ऑंखों से जैसे आत्मग्लानि फूट पड़ी, मैं चुप हो रहा।वैष्णवी ने कहा, “फिर भी, एक दिन उससे ज्यादा मेरा अपना कोई नहीं था- संसार में इतना प्यार किसी ने भी किसी को नहीं किया होगा।” उसका कथन सुनकर विस्मय की सीमा नहीं रही और इस सुरूपा रमणी की तुलना में उस प्रेम के पात्र की कुत्सित और भद्दी शक्ल को स्मरण कर मेरा मन बहुत ही संकुचित हो गया।बुद्धिमती वैष्णवी ने मेरा मुँह देखकर यह ताड़ लिया। कहा, “ गुसाईं, यह तो उसका सिर्फ बाहर का परिचय है- उसके भीतर का परिचय सुनो।”“कहो।”वैष्णवी ने कहना शुरू किया, “मेरे और भी दो छोटे भाई हैं, पर माँ-बाप की मैं इकलौती बेटी थी। हम श्रीहट्ट के रहने वाले हैं, पर चूँकि पिताजी व्यापारी आदमी थे, उनका व्यापार कलकत्ते में था, इसलिए बचपन से ही मैं कलकत्ते में पली हूँ। गृहस्थी के साथ माँ गाँव के मकान में ही रहती थीं। मैं पूजा के दिनों में अगर कभी गाँव जाती तो महीने-भर से ज्यादा न रह पाती। वहाँ रहना मुझे अच्छा भी न लगता। कलकत्ते में ही मेरी शादी हुई और सत्रह वर्ष की उम्र में कलकत्ते में ही मैंने उन्हें खो दिया। उनके नाम की वजह से ही गुसाईं, तुम्हारा नाम गौहर गुसाईं के मुँह से सुनकर मैं चौंक पड़ी। इसलिए 'नये गुसाईं' के नाम से पुकारती हूँ, वह नाम जुबान पर नहीं ला सकती।”“यह मैं समझ गया, उसके बाद?”वैष्णवी ने कहा, “आज जिसके साथ तुम्हारी मुलाकात हुई थी उसका नाम मन्मथ है, वह हमारा मुनीम था।” कह कर वह क्षण भर के लिए मौन रही, फिर बोली, “जब मेरी उम्र इक्कीस साल की थी तब मेरे संतान होने की सम्भावना हुई...”वैष्णवी कहने लगी, “मन्मथ का एक पितृहीन भतीजा हमारे ही मकान में रहता था। पिताजी उसे कॉलेज में पढ़ाते थे। उम्र में मुझसे जरा छोटा था। वह मुझे इतना प्यार करता था जिसकी सीमा नहीं। उसे बुलाकर कहा, 'यतीन, तुमसे और कभी तो कुछ माँगा नहीं है भाई, इस विपत्ति में अन्तिम बार मुझे थोड़ी-सी मदद करो। मुझे एक रुपये का जहर खरीदकर ला दो।” पहले तो वह मेरी बात नहीं समझा, पर जब उसकी समझ में आया तो उसका चेहरा मुर्दे की तरह फीका पड़ गया। कहा, “देरी मत करो भाई, तुम्हें अभी खरीदकर ला देना होगा। इसके अलावा मेरे लिए और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।”“यह सुनकर यतीन के रोने का तो क्या कहना। वह मुझे देवता समझता था और दीदी कहकर पुकारता था। उसे कितना आघात, कितनी व्यथा हुई, उसकी ऑंखों का पानी जैसे खत्म ही नहीं होना चाहता था। बोला, “उषा दीदी, आत्मघात से बढ़कर और कोई महापाप नहीं है। एक पाप के कन्धों पर और एक जबरदस्त पाप लादकर तुम रास्ता खोजना चाहती हो? पर लज्जा से बचने का यह तरीका ही अगर तुमने स्थिर किया हो दीदी, तो मैं कभी मदद नहीं करूँगा। इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी तुम आदेश दोगी, उसका मैं तत्काल पालन करूँगा।” उसी के कारण मैं मर न सकी।“क्रमश: पिताजी के कानों में बात पहुँची। वे जैसे निष्ठावान वैसे ही शान्त और निरीह प्रकृति के मनुष्य थे। मुझसे कुछ नहीं कहा, पर दु:ख से, शर्म से दो तीन दिन तक बिछौने से न उठ सके। फिर गुरुदेव के परामर्श से मुझे लेकर नवद्वीप आये। यह ठहरा कि मैं और मन्मथ दीक्षा लेकर वैष्णव हो जाँय और तब फूलों की माला और तुलसी की माला अदल-बदलकर नयी रीति से हमारी शादी हो। उससे पाप का प्रायश्चित होगा या नहीं, यह नहीं जानती थी, पर इस भरोसे पर कि जो शिशु गर्भ में आया है उसकी माँ होकर हत्या नहीं करनी पड़ेगी, मेरी आधी वेदना दूर हो गयी। उद्योग आयोजन होने लगा, दीक्षा कहो या भेष कहो, या और कुछ कहो, मेरा नया नामकरण हुआ- कमललता। किन्तु, तब भी यह मालूम नहीं था कि दस हजार रुपये देने का वचन देकर ही पिताजी ने मन्मथ को राजी किया है। पर एकाएक न जाने क्यों शादी का दिन आगे बढ़ा दिया गया- शायद एक सप्ताह। मन्मथ बहुत कम दिखाई पड़ता, नवद्वीप के मकान में मैं अकेली ही रहती थी। ऐसे ही कई दिन कट गये, इसके बाद फिर शुभ दिन आया। स्नान करके पवित्र होकर शान्त मन से ठाकुर की अर्पित माला हाथ में लिये प्रतीक्षा में बैठी रही। उदास चेहरे से पिताजी एक बार देख गये, पर मन्मथ को जब नवीन वैष्ण्व के वेष में देखा, तो अचानक सारे मन के भीतर बिजली दौड़ गयी। यह ठीक नहीं जानती कि वह आनन्द की थी या व्यथा की, शायद दोनों ही थी। पर इच्छा हुई कि उठकर उसके पैरों की धूल माथे पर लगा लूँ। पर शर्म के कारण ऐसा नहीं हो सका।“हमारी कलकत्ते की पुरानी दासी बहुत-सी चीजें ले आयी। उसी ने मेरी परवरिश की थी, उसी के मुँह से दिन बढ़ जाने का कारण सुना।”कितनी पुरानी बात है, तो भी गला भारी हो गया और उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये। मुँह फिराकर वैष्णवी ऑंसू पोंछने लगी।पाँच-छह मिनट बाद पूछा, “उसने क्या कारण बताया?”वैष्णवी ने कहा, “उसने बताया कि मन्मथ अचानक दस हजार के बदले बीस हजार रुपयों की माँग पेश कर बैठा। मुझे कुछ मालूम नहीं था, इसलिए चौंककर पूछा कि क्या मन्मथ रुपयों के बदले राजी हुआ है? और पिताजी भी बीस हजार रुपये देने को तैयार हैं? दासी ने कहा, उपाय क्या है दीदी रानी? मामला भी तो आसान नहीं है, जाहिर हो जाने पर जाति, कुल, मान-सब चला जायेगा। मन्मथ ने असली बात अन्त में जाहिर कर दी। कहा कि इसके लिए वह तो जिम्मेदार है नहीं, जिम्मेदार है उसका भतीजा यतीन। अत: यदि बिना दोष के उसे अपनी जाति छोड़नी ही है तो बीस हजार से कम में नहीं छोड़ सकता। फिर, दूसरे के लड़के का पितृत्व स्वीकार करना- यह भी तो कम मुश्किल नहीं है!“यतीन अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था, उसे बुलाकर बात सुनाई गयी। सुनकर पहले तो वह हक्का-बक्का-सा हुआ खड़ा रहा। फिर बोला, झूठी बात है। चाचा मन्मथ गरज उठा, “पाजी, नीच, नमकहराम! जो व्यक्ति तुझे खाना-कपड़ा और कॉलेज में पढ़ा-लिखाकर आदमी बना रहा है, उसी का तूने सर्वनाश किया! कैसे काले साँप को मैं मालिक के घर में लाया! सोचा था कि माँ-बाप-हीन लड़का आदमी बनेगा। छी, छी, यह कहने के साथ-ही-साथ वह छाती और सिर पीटने लगा। बोला, यह बात उषा ने खुद अपने मुँह से कही है और तुम इनकार करते हो!“यतीन चौंक उठा और बोला, “उषा दीदी ने खुद मेरा नाम लिया है? वह तो कभी झूठ नहीं बोलती-इतना बड़ा झूठा अपवाद तो उनके मुँह से कभी बाहर नहीं निकल सकता!”“मन्मथ और एक बार चिल्ला उठा, 'अब भी इनकार करता है पाजी, अभागा, शैतान, अपने मालिक से तो पूछ, वे क्या कहते हैं!” 'मालिक ने अनुमोदन करते हुए कहा, “हाँ।”“यतीन ने पूछा, “खुद दीदी ने मेरा नाम लिया है?”“मालिक ने फिर सिर हिलाकर कहा, “हाँ।”“पिताजी को वह देवता-तुल्य मानता था। इसके बाद उसने और कोई प्रतिवाद नहीं किया। स्तब्ध हो कुछ देर तक खड़े रहने के बाद धीरे-धीरे चला गया। क्या सोचा, यह वही जाने।“रात को किसी ने उसकी तलाश नहीं की। सुबह ही किसी ने आकर खबर दी। सब दौड़ पड़े और देखा कि हमारे टूटे अस्तबल के एक कोने में गले में रस्सी बाँधे यतीन झूल रहा है!”वैष्णवी ने कहा, “यह नहीं जानती कि भतीजे की आत्महत्या के लिए शास्त्रों में चाचा के लिए शौच की विधि है या नहीं गुसाईं। शायद न हो, या शायद डुबकी लगाने से ही शुद्धि हो जाती हो, सो कुछ भी हो, शुभ दिन सिर्फ कुछ दिनों के लिए और आगे टल गया। इसके बाद गंगा-स्नान से शुद्ध और पवित्र हो माला और तिल लगाए हुए मन्मथ गुसाईं पापिनी के पाप-विमोचन का शुभ संकल्प लिये हुए नवद्वीप में आकर हाजिर हो गये।”एक मुहूर्त के लिए मौन रहकर वैष्णवी फिर कहने लगी, “उस दिन ठाकुर की अर्पित माला ठाकुरजी के पाद-पद्मों में ही लौटा आयी। मन्मथ की अपवित्रता दूर हो गयी, पर पापिनी उषा की अपवित्रता इस जीवन में दूर न हुई नये गुसाईं।”मैंने कहा, “उसके बाद?”वैष्णवी ने मुँह फेर लिया, कोई जवाब नहीं दिया। समझ गया कि अब उसे सँभलने में देर लगेगी। काफी देर तक हम दोनों ही चुप बैठे रहे।उसका शेष अंश सुनने का आग्रह प्रबल हो उठा। पर सोच रहा था कि प्रश्न करना उचित है या नहीं। वैष्णवी ने आर्द्र मृदु कण्ठ से खुद ही कहा, “गुसाईं, जानते हो, संसार में पाप नाम की चीज इतनी भयंकर क्यों है?”“अपने खयालों के मुताबिक एक तरह से जानता हूँ, पर तुम्हारी धारणा के साथ शायद वह न मिले।”उसने प्रत्तयुत्तर में कहा, “नहीं जानती कि तुम्हारा क्या खयाल है। पर उस दिन से मैंने अकेले ही अपने खयाल के अनुसार समझ लिया है गुसाईं, कि गर्व के साथ तुम कितने ही लोगों को कहते हुए सुनोगे कि कुछ भी नहीं होता। वे अनेक आदमियों का उदाहरण देकर अपनी बात प्रमाणित करना चाहेंगे। पर इसकी तो कोई जरूरत नहीं। इसका प्रमाण है मन्मथ और प्रमाण हूँ मैं खुद। अब भी हम लोगों का कुछ नहीं हुआ। अगर कुछ होता तो मैं इसे इतना भयंकर न कहती, पर ऐसा तो नहीं है, इसका दण्ड भोगते हैं निरपराध और निर्दोष लोग। यतीन को आत्महत्या का बड़ा डर था, पर उसी से; वह अपनी दीदी के अपराध का प्रायश्चित कर गया। कहो गुसाईं, इससे और अधिक भयंकर तथा निष्ठुर संसार में क्या है? पर ऐसा ही होता है, इसी तरह भगवान शायद अपनी सृष्टि की रक्षा करते हैं।”इस विषय में बहस करने से कोई फायदा नहीं। युक्ति और भाषा- कोई भी प्रांजल नहीं है, तथापि यही खयाल किया कि दुष्कृति की शोकाच्छन्न स्मृति ने शायद इसी पथ पर चलकर पाप-पुण्य की उपलब्धि अर्जन की है और उससे सांत्वना पाईहै।“कमललता, उसके बाद क्या हुआ?”यह सुनकर वह सहसा मानो व्याकुल होकर कह उठी, “सच बताओ गुसाईं, इसके बाद भी मेरी बातें सुनने की इच्छा होती है?”“सच ही कह रहा हूँ, होती है।”वैष्णवी ने कहा, “मेरा भाग्य है जो इस जन्म में तुम्हारे दर्शन फिर हुए।” यह कह कुछ देर तक चुपचाप मेरी और देखते-देखते वह फिर कहने लगी, “कोई चार दिन बाद एक मरा हुआ लड़का पैदा हुआ। उसे गंगा के किनारे विसर्जित कर गंगा में नहाकर घर लौट आई। पिता जी ने रोकर कहा, “अब तो मैं नहीं रह सकता बेटी।”“हाँ पिताजी, अब आप मत रहिए, आप घर लौट जाइए। बहुत दुख दिया, अब आप मेरी फिक्र न करें।”पिताजी ने पूछा, “बीच में खबर दोगी न बेटी?”“नहीं पिताजी ,मेरी खबर लेने की आप अब चेष्टा न कीजिएगा।”“पर उषा, तुम्हारी माँ अब भी जीवित है!”“मैं मरूँगी नहीं पिताजी, पर मेरी सती-लक्ष्मी माँ से कह देना कि उषा मर गयी। माँ को दु:ख तो होगा, पर लड़की जिन्दा है, जानकर और भी ज्यादा दु:ख होगा। ऑंखों के अश्रु पोंछकर पिताजी कलकत्ते चले गये।”मैं चुप बैठा रहा, कमललता कहने लगी, “पास में रुपया था- मकान का किराया चुकाकर मैं भी निकल पड़ी। संगी-साथी मिल गये, सब श्रीवृंदावनधाम जा रहे थे, मैं भी साथ हो ली।”वैष्णवी ने कुछ रुककर कहा, “इसके बाद कितने तीर्थ, कितने पथ, और कितने पेड़ों के नीचे अनेक दिन कट गये...”“यह जानता हूँ, पर सैकड़ों साधुओं की ऑंखों की दृष्टि का विवरण तो तुमने बताया ही नहीं, कमललता!”“वैष्णवी हँस पड़ी। बोली, “बाबाजी लोगों की दृष्टि अतिशय निर्मल है, उनके बारे में अश्रद्धा की बातें नहीं कहना चाहिए गुसाईं।”“नहीं-नहीं, अश्रद्धा नहीं। अतिशय श्रद्धा के साथ ही उनकी कहानी सुनना चाहता हूँ कमललता।”इस दफा वह नहीं हँसी, पर दबी हुई हँसी छिपा भी न सकी। बोली, “जो बाबाजी प्रेम करते हैं उनसे सब बातें खोलकर नहीं कही जातीं, हमारे वैष्णव-शास्त्र में मनाही है।”“तो रहने दो। सब बातों का काम नहीं, पर एक बात बताओ। गुसाईं जी द्वारिका दास कहाँ मिले?”कमललता ने संकोच से जीभ काटकर और कपाल पर हाथ देकर कहा, “मजाक नहीं करना चाहिए, वे मेरे गुरुदेव हैं गुसाईं।”“गुरुदेव? तुमने उन्हीं से दीक्षा ली है?”“नहीं, दीक्षा तो नहीं ली है, पर वे उतने ही पूजनीय हैं।”“पर इतनी सारी वैष्णवियाँ-सेवादासियाँ क्या...”कमललता ने फिर जीभ काटकर कहा, “वे सब मेरी ही तरह उनकी शिष्या हैं। उनका भी उन्होंने ही उद्धार किया है।”“निश्चय ही किया है पर 'परकीया साधना' या कुछ ऐसी ही जो एक साधना-पद्धति तुम लोगों की है- उसमें तो कोई दोष नहीं...”वैष्णवी ने मुझे रोककर कहा, “तुम लोगों ने दूर रहकर सिर्फ हमारा हँसी-मजाक ही उड़ाया है, नज़दीक आकर कभी कुछ देखा तो है नहीं, इसीलिए आसानी से व्यंग्य कर सकते हो। हमारे बड़े गुसाईं जी सन्यासी हैं, उनका उपहास करने से पाप होता है नूतन गुसाईं- ऐसी बातें फिर कभी ज़बान पर मत लाना।” उसकी बातों से और गम्भीरता से कुछ हतप्रभ हो गया। वैष्णवी ने यह लक्ष्य कर जरा मुस्कुराते हुए कहा, “दो दिन हम लोगों के पास यहीं रहो न गुसाईं। केवल बड़े गुसाईं जी के लिए ही नहीं कह रही हूँ, मुझे तो तुम प्यार करते हो, और कभी यदि मुलाकात न हो तो कम-से-कम यह तो देख जाओ कि संसार में कमललतासचमुच में क्या लेकर संसार में रह रही है। यतीन को मैं आज भी नहीं भूली हूँ- दो दिन रहो, मैं कहती हूँ कि तुम यथार्थ में खुश होगे।”चुप रहा। इन लोगों के बारे में एकदम ही कुछ न जानता होऊँ, सो बात नहीं है। असल वैष्णव की लड़की टगर की याद आ गयी। किन्तु मजाक करने की अब और प्रवृत्ति नहीं थी। यतीन के प्रायश्चित की घटना सारी अलोचना के बीच रह-रह कर जैसे मुझे भी उन्मना कर देती थी।वैष्णवी ने अचानक प्रश्न किया, “क्यों गुसाईं, इस उम्र तक भी सचमुच तुमने कभी किसी को प्यार नहीं किया?”“तुम्हारा क्या खयाल होता है कमललता?”“मेरा खयाल होता है, नहीं। तुम्हारा मन असलीवैरागी का मन है- उदासीन का- तितली की तरह। तुम कभी किसी बन्धन को नहीं मानोगे।”मैंने हँसकर कहा, “तितली की उपमा तो अच्छी नहीं है कमललता, यह तो सुनने में बहुत कुछ गाली जैसी है। मेरा प्रेमपात्र सचमुच में ही यदि कहीं कोई हो, तो उसके कानों में इसकी भनक पड़ने पर अनर्थ हो जायेगा।” वैष्णवी हँसी, बोली, “डर की कोई बात नहीं गुसाईं, वास्तव में यदि कोई होगी, तो मेरी बात का वह विश्वास नहीं करेगी, और तुम्हारी मधुमिश्रित चालाकी भी वह जीवन-भर नहीं पकड़ सकेगी।”“तो फिर उसे दु:ख किस बात का? हो न चालाकी, परन्तु उसके निकट तो वही सही रहेगी।”वैष्णणी ने सिर हिलाकर कहा, “ऐसा नहीं होता गुसाईं। सत्य का स्थान झूठ कभी नहीं ले सकता। वे भले ही न समझें, कारण भले ही उनके लिए स्पष्ट न हो, तो भी उनका अन्तर निरन्तर अश्रुमुख ही रहेगा। मिथ्या का काण्ड तो देखते ही हो; इसी तरह इस रास्ते पर न जाने कितने लोग आये। यह पथ जिनके लिए सत्य नहीं है, उनकी सारी साधना जल की धारा के तल की सूखी बालू की तरह हमेशा ही अलग-अलग रही है, कभी एकत्रित नहीं हुई।”कुछ ठहरकर वह मानो अचानक मन ही मन बोल उठी, “वे रस के मर्म तक तो पहुँचते नहीं, इसीलिए प्राणहीन निर्जीव मूर्ति की निरर्थक सेवा करते-करते उनका जी दो दिन में ही हाँफ उठता है- सोचते हैं कि वह किस मोह के अन्धकार में अपने को दिन-रात ठगते हुए मरे जा रहे हैं। ऐसे लोगों को देखकर ही तुम लोग हमारा उपहास करना सीखते हो- पर मैं यह क्या फालतू बातें बक रही हूँ गुसाईं, इस सब असंलग्न प्रलाप की एक बात भी तुम नहीं समझोगे। पर यदि तुम्हारी कोई ऐसी है, तो तुम उसे भले ही भूल जाओ, पर वह तुम्हें नहीं भूल सकेगी, और न कभी उसकी ऑंखों का पानी ही सूखेगा।”मैंने स्वीकार किया कि उसके वक्तव्य का प्रथम अंश मैंने समझा, पर अन्तिम अंश के प्रतिवाद में कहा, “तुम क्या मुझसे यही कहना चाहती हो कमललता, कि मुझको प्यार करने का नाम ही है दु:ख पाना?”“दु:ख की बात तो नहीं कही गुसाईं, कही है ऑंखों के पानी की बात।”“पर कमललता, वे दोनों तो एक ही हैं, सिर्फ शब्दों का हेर-फेर है।”वैष्णवी ने कहा, “नहीं गुसाईं, वह दोनों एक नहीं हैं। न तो शब्दों का ही हेर-फेर है और न भाव का ही औरतें न इससे डरती ही हैं, और न उससे बचना ही चाहती हैं। पर तुम समझोगे कैसे?”“जब कुछ नहीं समझूँगा तो फिर मुझसे यह सब कहती ही क्यों हो?”“बिना कहे रहा भी नहीं जाता जी। प्रेम की वास्तविकता को लेकर मर्दों का दल जब अपनी बड़ाई किया करता है, तब सोचती हूँ कि हमारी जाति उनसे अलग है। तुम लोगों के और हम लोगों के प्यार की प्रकृति ही भिन्न है। तुम लोग चाहते हो विस्तार और हम चाहती हैं गम्भीरता, तुम लोग चाहते हो उल्लास और हम चाहती हैं शान्ति। जानते हो गुसाईं, कि प्रेम के नशे से हम भीतर ही भीतर कितना डरती हैं। उसके उन्माद से हमारे हृदय की धड़कन नहीं रुकती।”मैं कुछ प्रश्न करना चाहता था, किन्तु उसने मेरी ओर ध्यासन ही नहीं दिया और भावों के आवेग में बोलना जारी रक्खा, “वह हमारा सत्य भी नहीं है, हमारा अपना भी नहीं है। वह दौड़-धूप की चंचलता जिस दिन रुकती है, केवल उसी दिन हम नि:श्वास छोड़कर आराम पाती हैं। ओ जी नये गुसाईं, प्रेम की बड़ी से बड़ी प्राप्ति, स्त्रियों के लिए, निर्भयता की अपेक्षा और कुछ नहीं है। पर यही चीज तुम लोगों से कोई कभी नहीं पाती?”“यह निश्चयपूर्वक जानती हो, कि नहीं पाती?”वैष्णवी ने कहा, “निश्चयपूर्वक जानती हूँ। इसलिए तो तुम्हारी बड़ाई मुझे सहन नहीं होती।”आश्चर्य हुआ। कहा, “तुम्हारे निकट बड़ाई तो कभी नहीं की कमललता?”उसने कहा, “जान बूझकर नहीं की, पर तुम्हारा यह उदासीन बैरागी-मन- जगत में इससे बढ़कर अहंकार से भरा हुआ और भी कुछ है क्या?”“पर इन दो दिनों में ही तुमने मुझे इतना कैसे जान लिया?”जान गयी, क्योंकि तुम्हें प्यार जो किया है।”सुनकर मन-ही-मन कहा, तुम्हारे दु:ख और ऑंखों के अश्रुओं का प्रभेद इतनी देर बाद अब समझा हूँ कमललता! मालूम होता है, अविश्राम पूजा और रस की आराधना का परिणाम ऐसा ही होता है।“प्यार किया है, यह क्या सच है कमललता?”“हाँ, सच है।”“पर तुम्हारा जप-तप, तुम्हारा कीर्तन, तुम्हारी रात-दिन की ठाकुर-सेवा- इन सबका क्या होगा, बताओ?”वैष्णवी ने कहा, “तब ये सब मेरे लिए और भी सत्य, और भी सार्थक हो उठेंगे। चलो न गुसाईं, सब कुछ छोड़-छाड़कर दोनों जनें रास्ते पर निकल पड़ें।”मैंने सिर हिलाकर कहा, “यह नहीं होगा कमललता, कल मैं चला जा रहा हूँ। पर जाने के पहले गौहर के बारे में जानने की इच्छा होती है।”वैष्णवी ने सिर्फ नि:श्वास छोड़कर कहा, “गौहर के बारे में? नहीं, उसे सुनने का तुम्हारा काम नहीं। सचमुच ही कल जाओगे?”“हाँ, सच ही कल जाऊँगा।”क्षणभर के लिए स्तब्ध रहकर वैष्णवी ने कहा, “किन्तु इस आश्रम में यदि तुम फिर कभी आओगे साईं, तो कमललता को न खोज पाओगे।”♦♦ • ♦♦इस विषय में सन्देह न था कि अब यहाँ एक क्षण रहना भी उचित नहीं। पर उसी समय मानों कोई आड़ में खड़ा होकर ऑंख बन्द कर इशारे से निषेध करता है। कहता है, “जाओगे क्यों? यही सोचकर तो आये थे कि छह-सात दिन रहेंगे,- रहो न। तकलीफ तो कुछ है नहीं।”रात को बिछौने पर लेटा हुआ सोच रहा था कि ये कौन हैं जो एक ही शरीर में वास करके एक ही वक्त ठीक उलटी राय देते हैं। किसकी बात ज्यादा सच है? कौन ज्यादा अपना है? विवेक, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति- ऐसे ही जाने कितने नाम हैं, इनकी न जाने कितनी दार्शनिक व्याख्याएँ हैं, पर सत्य को आज भी कौन नि:संशय प्रतिष्ठित कर सका है? जिसको सोचता हूँ, कि अच्छा है, इच्छा कर वहीं पर पैर बढ़ाने में बाधा क्यों डालती है? अपने ही अन्दर के इस विरोध- द्वन्द्व का शेष क्यों नहीं होता? मन कहता है कि मेरा चला जाना ही श्रेयस्कर है, चला जाना ही कल्याणकारी है। तो फिर दूसरे ही क्षण उस मन की दोनों ऑंखों में ऑंसू क्यों भर आते हैं? बुद्धि, विवेक, प्रवृत्ति, मन, इन सब बातों की सृष्टि करके सच्ची सांत्वना कहाँ रह जाती है?फिर भी जाना ही चाहिए, पीछे हटने से काम नहीं चलेगा। और सो भी कल ही। यही सोचने लगा कि इस जाने को कैसे सम्पन्न करूँ। बचपन का एक रास्ता जानता हूँ वह है गायब हो जाना। बिदा की वाणी नहीं, लौटकर आने की झूठी दिलासा नहीं, कारण का प्रदर्शन नहीं, प्रयोजन का- कर्त्तव्य का विस्तृत विवरण नहीं; सिर्फ मैं था और अब मैं नहीं हूँ, इस सत्य घटना के आविष्कार का भार उन लोगों पर छोड़ देना जो पीछे रह गये हैं, बस। निश्चय कर लिया कि अब सोना तो होगा नहीं, ठाकुरजी की मंगल आरती शुरू होने के पहले ही अन्धकार में शरीर ढंककर प्रस्थान कर दूँगा। पर दिक्कत है कि पूँटू के दहेज का रुपया छोटे बैग समेत कमललता के पास है। लेकिन उसे रहने दो। कलकत्ते से, और नहीं तो बर्मा से चिट्ठी भेज दूँगा, उससे एक काम यह भी होगा कि जब तक उन्हें लौटा न देगी तब तक कमललता को बाध्यै होकर यहीं रहना पड़ेगा, पथ-विपथ पर जाने का सुयोग नहीं मिलेगा।जो कुछ रुपये मेरे कुरते की जेब में पड़े हैं, वे कलकत्ते तक पहुँचने के लिए काफी हैं।बहुत रात इसी तरह कट गयी। चूँकि बार-बार संकल्प किया था कि सोऊँगा नहीं, शायद इसी कारण न जाने कब सो गया! पता नहीं कि कितनी देर-तक सोया, पर अचानक ऐसा लगा कि स्वप्न में गाना सुन रहा हूँ। एक बार खयाल किया कि रात का व्यापार शायद अभी तक समाप्त नहीं हुआ है, फिर सोचा कि शायद प्रत्यूष की मंगल आरती शुरू हो गयी है, पर काँसे के घण्टे का सुपरिचित दु:सह निनाद नहीं है। असम्पूर्ण अपरितृप्त निद्रा टूटकर भी नहीं टूटती, ऑंखें खोलकर देखा भी नहीं जा सकता। किन्तु, कानों में प्रभाती के सुर में मीठे कण्ठ का सादा धीमा आह्नान पहुँचा-जागिये गोपाल लाल, पंछी बन बोले।रजनी कौ अन्त मयौ, दिनने पट खोले॥“गुसाईं जी, और कितनी देर तक सोओगे? उठो।”बिछौने पर उठ बैठा। मसहरी उठाई, पूर्व की खिड़की खुली हुई है- सामने की आम्र-शाखाओं में पुष्पित लवंग-मंजरी के कई बड़े-बड़े गुच्छ नीचे तक झूल रहे हैं। उनकी सैंधों में से दिखाई दिया कि आकाश में कई जगह हल्के लाल रंग का आभास है, जैसे अंधेरी रात में सुदूर ग्राम के अन्त में आग लग गयी हो। मन में कहीं कुछ व्यथा-सी होने लगी। कुछ चमगीदड़ उड़ करके अपने आवासों को लौट रहे हैं। उनकी पंखों की फड़फड़ाहट बार-बार कानों में आने लगी। ऐसा लगने लगा कि रात्रि खत्म हो रही है। यह नीलकण्ठों, बुलबुलों और श्यामा पक्षियों का देश है। मानो, यह उनकी राजधानी 'कलकत्ता शहर' है और यह विशाल बकुल-वृक्ष (मौलसिरी) उनके लेन-देन और काम-काज का 'बड़ा बाजार' है जहाँ दिन के वक्ती की भीड़ देखकर अवाक् हो जाना पड़ता है। तरह-तरह की शकलें, तरह-तरह की भाषा और रंग-बिरंगी पोशाक का बहुत ही विचित्र समावेश है। रात को अखाड़े के चारों ओर के वन में डाल-डाल कर उनके अगणित अड्डे हैं। नींद खुल जाने की आहट कुछ-कुछ पाई गयी। उससे मालूम हुआ कि मानो हाथ-मुँह धोकर वे तैयारी कर रहे हैं। अब सारे दिन चलने वाले नाच-गान का महोत्सव शुरू होगा। ये सब लखनऊ के उस्ताद हैं जो थकते भी नहीं और कसरत भी बन्द नहीं करते। भीतर वैष्णवों का कीर्तन शायद कभी बन्द भी हो जाय, परन्तु बाहर इस बला के बन्द दोने की सम्भावना नहीं है। यहाँ पर छोटे-बड़े, भले-बुरे का विचार नहीं है। इच्छा और समय चाहे हो या न हो, गाना तुम्हें सुनना ही पड़ेगा। इस देश की, मालूम होता है, यही व्यवस्था है, यही नियम है। याद आया, कल सारी दोपहरी-भर पीछे के बाँस के बन में दो पपीहों के उच्च गले की 'पिया पिया' पुकार की अविश्रान्त होड़ से मेरी दिवा-निन्द्रा में काफी विघ्न हुआ था; इस पर मेरी ही तरह क्षुब्ध हुआ कोई जल-काक नदी किनारे के वृक्ष पर और भी कठोर कण्ठ से बार-बार उनका तिरस्कार करके भी उन्हें चुप नहीं कर सका था। भाग्य अच्छा था कि इस देश में मोर नहीं है, नहीं तो उनके इस उत्सव के अखाड़े में आ पहुँचने पर तो मनुष्य टिक ही नहीं पाता। सो जो भी हो, दिन का उपद्रव अब भी शुरू नहीं हुआ था। शायद और भी थोड़ा-सा निर्विघ्न सो सकता किन्तु इसी समय गत रात्रि का संकल्प याद आ गया। परन्तु, अब चुपचाप खिसक चलने का भी मौका नहीं रहा, प्रहरियों की सतर्कता से काम बिगड़ चुका था। नाराज होकर बोला, “मैं 'गोपाल' भी नहीं हूँ और मेरे बिछौने में लाल भी नहीं हैं। इस समय आधी रात को सोते से जगाने की भला कहो तो क्या जरूरत थी?”वैष्णवी ने कहा, “रात कहाँ है गुसाईं, तुम्हारी तो आज सुबह की गाड़ी से कलकत्ते जाने की बात थी! मुँह-हाथ धो लो, मैं चाय तैयार कर लाती हूँ। नहाना नहीं। आदत नहीं है, बीमार पड़ सकते हो।”“हाँ, बीमार पड़ सकता हूँ। सुबह की गाड़ी से जब मेरी इच्छा होगी चला जाऊँगा, पर यह तो बताओ कि तुम्हें इस विषय में इतना उत्साह क्यों है?”उसने कहा, “और किसी के उठने के पहले मैं तुम्हें बड़े रास्ते तक पहुँचा जो आना चाहती हूँ गुसाईं।” उसका चेहरा स्पष्टत: नहीं दिखाई दिया, पर बिखरे हुए बालों की ओर देखकर कमरे की इतनी कम रोशनी में भी यह जान गया कि वे गीले हैं, स्नान से निबटकर वैष्णवी तैयार हो गयी है।”“मुझे पहुँचाकर फिर आश्रम में ही लौट आओगी न?”वैष्णवी ने कहा, “हाँ।”रुपयों की उस छोटी-सी थैली को बिछौने पर रख उसने कहा, “यह रहा तुम्हारा बैग। रास्ते में होशयारी रखना- रुपये एक बार देख लो।”एकाएक कुछ कहने के लिए शब्द न सूझे। फिर कहा, “कमललता, तुम्हारा इस रास्ते पर आना मिथ्या है। एक दिन तुम्हारा नाम था उषा, आज भी वही उषा हो- जरा भी नहीं बदल सकी हो।”“क्यों, बताओ?”“तुम भी कहो कि मुझसे रुपये गिनने के लिए क्यों कहा? गिन सकता हूँ यह क्या तुम सच समझती हो? जो सोचते कुछ और हैं और कहते कुछ और हैं उन्हें कपटी कहते हैं। जाने के पहले मैं बड़े गुसाईंजी से शिकायत कर जाऊँगा कि आश्रम के खाते से तुम्हारा नाम काट दें। तुम वैष्णव-दल के लिए कलंक हो।”वह चुप रही। मैं भी क्षणभर मौन रहकर बोला, “आज सुबह मेरी जाने की इच्छा नहीं है।'“नहीं है? तो थोड़ी देर और सो लो। उठने पर मुझे खबर देना- क्यों?”“पर तुम अभी क्या करोगी?”“मुझे काम है। फूल चुनने जाऊँगी।”“इस अन्धकार में? डर नहीं लगता?”“नहीं, डर किसका? सुबह की पूजा के फूल मैं ही चुनकर लाती हूँ। नहीं तो उन लोगों की बड़ी तकलीफ होती है।”'उन लोगों' के माने अन्यान्य वैष्णवियाँ। यहाँ दो दिन रहकर यह गौर कर रहा था कि सबकी आड़ में रहकर मठ का। समस्त गुरु-भार कमललता अकेली वहन करती है। सब व्यवस्थाओं में उसका कर्तृत्व है सबके ऊपर, किन्तु स्नेह से, सौजन्य से और सर्वोपरि सविनय कर्मकुशलता से यह कर्तृत्व इतनी सहज श्रृंखला में प्रवहमान है कि कहीं भी ईष्या-विद्वेष का जरा-सा भी मैल नहीं जमने पाता। यह सोचकर मुझे भी क्लेश हुआ कि यही आश्रम-लक्ष्मी आज उत्कण्ठ व्याकुलता के साथ जाऊँ-जाऊँ कर रही है। यह कितनी बड़ी दुर्घटना है, कितनी बड़ी निरुपाय दुर्गति में इतने निश्चिन्त नर-नारी गिर पड़ेंगे। इस मठ में सिर्फ दो दिन से हूँ, पर न जाने कैसा एक आकर्षण अनुभव कर रहा हूँ- ऐसा मनोभाव हो गया है कि मानो इसकी आन्तरिक शुभाकांक्षा चाहे बिना रह ही नहीं सकता। सोचा, लोग यह गलत कहते हैं कि सबको मिला कर आश्रम है और यहाँ सभी समान हैं। पर यह मानो ऑंखों के सामने ही देखने लगा कि इस एक के अभाव में केन्द्र भ्रष्ट उपग्रह की तरह समस्त आयतन ही दिशा-विदिशाओं में विच्छिन्न-विक्षित होकर टूट सकता है। कहा, “और नहीं सोऊँगा कमललता, चलो तुम्हारे साथ चलकर फूल चुन लाऊँ।”वैष्णवी ने कहा, “तुमने स्नान नहीं किया है, कपड़े भी नहीं बदले हैं- तुम्हारे छुए हुए फूलों से पूजा होगी?”मैंने कहा, “फूल मत तोड़ने देना, पर डाल को नीचा कर पकड़ने तो दोगी? यह भी तुम्हारी सहायता होगी।”वैष्णवी ने कहा, “डाल नीची करने की जरूरत नहीं होती, छोटे-छोटे पेड़ हैं- मैं खुद ही कर लेती हूँ।”कहा, “कम-से-कम साथ रहकर सुख-दु:ख की दो-चार बातें तो कर सकूँगा?” इसमें भी तुम्हारी मेहनत कम होगी।”इस बार वैष्णवी हँसी। बोली, “एकाएक इतना दर्द हो आया गुसाईं। अच्छा, चलो। मैं डलिया ले आऊँ, इतने में तुम हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लो।”आश्रम के बाहर थोड़ी दूर पर फूलों का बगीचा है। घने छायादार आम्र-वन के भीतर से रास्ता है। सिर्फ अन्धकार के कारण ही नहीं बल्कि सूखे पत्तों के ढेरों के कारण पथ की रेखा विलुप्त हो गयी है। वैष्णवी आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे चला, तो डर लगने लगा कि कहीं साँप पर पैर न पड़ जाय।कहा, “कमललता, रास्ता तो नहीं भूलोगी?”“नहीं, कम-से-कम आज तो तुम्हारे लिए रास्ता पहचानकर चलना पड़ेगा।”“कमललता, एक अनुरोध रखोगी?”“कौन-सा अनुरोध?”“यहाँ से तुम और कहीं नहीं जाओगी।”“जाने से तुम्हारा क्या नुकसान है?”जवाब नहीं दे सका, चुप हो रहा।“मुरारी ठाकुर ने कहा है कि “हे सखी, अपने घर लौट जाओ, जिसने जीते हुए भी मर कर अपने को खो दिया है, उसे तुम अब क्या समझती हो?” गुसाईं, शाम को तुम कलकत्ते चले जाओगे, और अब यहाँ शायद एक प्रहर से ज्यादा ठहर न सकोगे- क्यों?”“क्या पता, पहले सुबह तो होने दो।”वैष्णवी ने जवाब नहीं दिया, कुछ देर बाद गुनगुनाकर गाने लगी-चण्डिदास कहे सुन विनोदिनी, सुख-दुख दोनों भाई।सुख के कारण प्रीति करे जो, दुख भी ता ढिग आईरुकने पर कहा, “इसके बाद?”“इसके बाद और नहीं याद।”कहा, “तो कुछ और गाओ-”वैष्णवी ने वैसे ही मृदु स्वर में गाया...चण्डिदास कहे सुन विनोदिनी, प्रीति को बात न भावै।प्रीति के कारन प्रान गँवावै, आखिर प्रीति ही पावैइस बार उसके रुकने पर बोला, “इसके बाद?”वैष्णवी ने जवाब दिया, “इसके बाद और नहीं है, यहीं शेष है।”इसमें शक नहीं कि शेष ही है। दोनों ही चुप हो रहे। बहुत इच्छा होने लगी कि द्रुतपदों से नज़दीक जाकर और कुछ कहकर इस अन्धकार-पथ पर उसका हाथ पकड़कर चलूँ। जानता हूँ कि वह नाराज नहीं होगी, बाधा नहीं देगी, पर किसी भी तरह पैर नहीं चले, मुँह से भी एक शब्द नहीं निकला। जैसे चल रहा था वैसे ही धीरे-धीरे चुपचाप जंगल के बाहर आ पहुँचा।रास्ते के किनारे बाँसों के घेर से घिरा हुआ आश्रम का फूलों का एक बगीचा है। ठाकुरजी की दैनिक पूजा के लिए यहीं से फूल आते हैं। खुली हुई जगह में अन्धकार नहीं है पर उजाला भी उतना नहीं हुआ है। फिर भी देखा कि अगणित खिले हुए चमेली के फूलों से सारा बगीचा मानो सफेद हो रहा है। सामने के पत्तों झड़े हुए मुण्डे चम्पे के झाड़ में तो फूल नहीं हैं, परन्तु, उसके पास ही कहीं कुछ रजनीगन्धा के फूल असमय में फूल रहे हैं जिनकी मधुर गन्ध से उस त्रुटि की पूर्ति हो गयी है। और सबसे अधिक मन को लुभा लेनेवाला था बीच का हिस्सा। रात्रि के अन्त में इस धुँधले आलोक में पहचाने जाते थे एक दूसरे से भिड़े हुए झुण्ड के झुण्ड गुलाब के झाड़- जिनमें बेशुमार फूल थे और जो सहस्रों फैली हुई लाल ऑंखों से बगीचे की दिशाओं की ओर मानो ताक रहे थे। पहले कभी इतने सबेरे शय्या छोड़कर नहीं उठा था, यह समय हमेशा निद्राच्छन्न जड़ता की अचेतनता में कट जाता है। बता नहीं सकता कि आज कितना अच्छा लगा। पूर्व के रक्तिम दिगन्त में ज्योतिर्मय का आभास मिल रहा है, और उसकी नि:शब्द महिमा से सारा आकाश शान्त हो रहा है। यह लतिकाओं और पत्तों से, शोभा और सौरभ से और अगणित फूलों से परिव्याप्त सम्मुख का उपवन- सभी मिलकर ऐसा लगा कि जैसे यह रात्रि की समाप्तप्राय वाक्यहीन बिदा की अश्रुरुद्ध भाषा हो। करुणा, ममता और अयाचित दाक्षिण्य से मेरा समस्त अन्तर पलक मारते ही परिपूर्ण हो उठा, सहसा कह उठा, “कमललता, जीवन में तुमने अनेक दु:ख-दर्द पाये हैं, प्रार्थना करता हूँ कि इस बार तुम सुखी होओ।”वैष्णवी फूलों की डलिया को चम्पे की डाल पर लटका कर सामने की बाढ़ का दरवाजा खोल रही थी कि उसने आश्चर्य से लौटकर देखा और कहा, “अचानक तुम्हें हो क्या गया गुसाईं?” अपनी बातें अपने ही कानों में न जाने कैसी बेढंगी लग रही थीं, उस पर उसके सविस्मय प्रश्न से मन ही मन बहुत अप्रतिभ हो गया। कोई जवाब नहीं सूझा, लज्जा को ढकने के लिए एक अर्थहीन हँसी की चेष्टा भी ठीक तरह सफल नहीं हुई, अन्त में चुप हो रहा।वैष्णवी ने भीतर प्रवेश किया, साथ ही मैंने भी। फूल तोड़ते हुए उसने खुद ही कहा, “मैं सुख में ही हूँ गुसाईं। जिनके पाद-पद्मों में अपने को निवेदन कर दिया है वे दासी का कभी परित्याग नहीं करेंगे।”सन्देह हुआ कि अर्थ काफी साफ नहीं है, पर यह कहने का साहस भी नहीं हुआ कि स्पष्ट करके कहो। वह मृदु स्वर से गुनगुनाने लगी-गले में श्याम माणिकों की मंजु मालाएँ डालूँगी,और कानों में नवकुण्डल, श्याम-गुण-यश के धारूँगी।श्याम के ही अनुराग-रँगे, पीत पट सुन्दर पहनूँगी,योगिनी बन करके बन बन, और पथ पथ पर भटकूँगीकहे यदुनाथदास-गीत रोकना पड़ा। कहा, “यदुनाथदास को रहने दो, उधर झल्लीरी की आवाज सुन रही हो, लौटोगी नहीं?” उसने मेरी ओर देखकर मृदु हास्य से फिर शुरू कर दिया-धर्म औ कर्म सभी जावें, नहीं डरती हूँ मैं इससे।कहीं इस चक्कर में पड़कर, हाथ धो बैठूँ प्रीतमसे“अच्छा, नये गुसाईं, जानते हो कि बहुत से भले आदमी औरतों का गाना नहीं सुनना चाहते, उन्हें बहुत बुरा लगता है?”मैंने कहा, “जानता हूँ। किन्तु मैं उन 'भले बर्बरों' में नहीं हूँ।”“तो बाधा डालकर मुझे रोका क्यों?”“उधर तो शायद आरती शुरू हो गयी है- तुम्हारे न रहने से उसमें कमी रह जायेगी।”“यह मिथ्या छलना है गुसाईं।”“छलना क्यों है?”“क्यों, सो तुम भी जानते हो। पर यह बात तुमसे कही किसने कि मेरे न रहने पर ठाकुरजी की सेवा में सचमुच ही कमी हो सकती है? इस पर क्या तुम विश्वास करते हो?”“करता हूँ। मुझे किसी ने कहा नहीं कमललता, मैंने खुद अपनी ऑंखों से देखा है।”उसने और कुछ नहीं कहा, न जाने कैसे अन्यमनस्क भाव से क्षणकाल तक वह मेरे मुँह की ओर ताकती रही और उसके बाद फूल तोड़ने लगी।डलिया भर जाने पर बोली, “बस, अब और नहीं।”“गुलाब नहीं चुने?”“नहीं, उन्हें हम नहीं तोड़तीं, यहीं से भगवान को निवेदन कर देती हैं। चलो, अब चलें।”उजाला हो गया है। पर यह मठ ग्राम के एकान्त में है- इधर कोई ज्यादा आता-जाता नहीं, इसलिए तब भी वह पथ जन-हीन था और अब भी है। चलते-चलते एक बार फिर वही प्रश्न किया, “तुम क्या सचमुच यहाँ से चली जाओगी?”“बार-बार यह बात पूछने से तुम्हें क्या लाभ होगा गुसाईं?”इस बार भी जवाब न दे सका, सिर्फ अपने आपसे पूछा, सच तो है, बार-बार यह बात क्यों पूछता हूँ? इससे मेरा लाभ?मठ में लौटकर देखा कि इस बीच सभी लोग जाकर दैनिक कामों में लग गये हैं। उस वक्त झल्लरी की आवाज से व्यस्त होकर वृथा ही जल्दी मचाई थी। मालूम हुआ कि वह मंगल-आरती नहीं थी सिर्फ ठाकुरजी की निद्रा भंग करने का बाजा था। यह उन्हें ही सुहाता है।हम दोनों को अनेकों ने देखा, पर किसी के भी देखने में कुतूहल नहीं था। कम-उम्र होने के कारण सिर्फ पद्मा एक बार मुस्कराई और फिर मुँह नीचा कर लिया। वह ठाकुरजी की माला गूँथती है। उसके पास डलिया रखकर कमललता ने सस्नेह कौतुक से तर्जन करके कहा, “हँसी क्यों जलमुँही?”किन्तु उसने मुँह ऊपर नहीं उठाया। कमललता ने ठाकुरजी के कमरे में प्रवेश किया, और मैं भी अपने कमरे में दाखिल हुआ।स्नान और आहार यथारीति और यथासमय सम्पन्न हुआ। शाम की गाड़ी से मेरे जाने की बात थी। वैष्णवी को खोजने गया तो देखा कि वह ठाकुरजी के कमरे में है और उन्हें सजा रही है। मुझे देखते ही बोली, “नये गुसाईं, यदि आए हो तो कुछ मेरी सहायता भी करो। पद्मा सिरदर्द लेकर पड़ी है और लक्ष्मी-सरस्वती दोनों बहिनों को एकाएक बुखार आ गया है, क्या होगा कुछ समझ में नहीं आता। वासन्ती रंग के इन दो कपड़ों में चुन्नट डाल दो न गुसाईं।”अतएव ठाकुर के कपड़ों में चुन्नट डालने बैठ गया। उस दिन जाना न हो सका। दूसरे दिन भी नहीं और उसके बाद वाले दिन भी नहीं। मैं बड़े सबेरे वैष्णवी के फूल तोड़ने का साथी बन गया। प्रभात में, मधयाह्न में, संध्यान को-कुछ-कुछ काम वह मुझसे करा ही लेती है। इसी प्रकार स्वप्न की तरह दिन कटने लगे। सेवा में, सहृदयता में, आनन्द में, आराधना में, फूलों में, गन्ध में, कीर्तन में, पक्षियों के गान में- कहीं भी कोई छिद्र नहीं, फिर भी सन्दिन्ध मन बीच-बीच में सजग हो भर्त्सना कर उठता है कि यह क्या खिलावाड़ कर रहे हो? बाहर के सारे सम्बन्ध तोड़कर इन थोड़े से निर्जीव खिलौनों के पीछे यह कैसा पागलपन कर रहे हो? इतनी बड़ी आत्मवंचना में मनुष्य जीवित कैसे रहता है? फिर भी यह अच्छा लगता है, जाऊँ-जाऊँ करके भी पैर नहीं बढ़ा पाता। इस तरफ मलेरिया कम है, फिर भी इस समय अनेक लोग ज्वरग्रस्त हो रहे हैं। गौहर सिर्फ एक दिन आया था, फिर नहीं आया। उसकी खोज-खबर लेने का समय भी नहीं निकाल पाता! यह मेरी दशा अच्छी हुई!सहसा मन भय और धिक्कार से भर गया- यह मैं कर क्या रहा हूँ? संगति-दोष से क्या एक दिन यह सब सत्य मान बैठूँगा? स्थिर किया, अब नहीं, चाहे कुछ भी क्यों न हो, कल यह जगह छोड़कर मुझे भागना ही पड़ेगा।हर रोज रात के अन्त में वैष्णवी आकर जगा देती है। प्रभाती के स्वर में वैष्णव कवियों का नींद उड़ा देने वाला वह गीत भक्ति और प्रेम का कितना सकरुण आवेदन होता है! हठात् उत्तर नहीं देता, कान लगाकर सुनता रहता हूँ। ऑंखों के कोनों में ऑंसू आ जाना चाहते हैं। मसहरी उठाकर जब वह खिड़की और दरवाजा खोल देती है तब नाराज होकर उठ बैठता हूँ, और मुँह धो कपड़े बदलकर साथ चल देता हूँ।कई दिनों की आदत की वजह से आज अपने आप ही नींद खुल गयी। कमरे में अन्धकार है। एक बार ऐसा लगा कि रात अभी खत्म नहीं हुई है, परन्तु फिर सन्देह हुआ। बिछौना छोड़कर बाहर आया- देखता हूँ कि रात कहाँ है, सबेरा हो गया है। किसी के खबर देते ही कमललता आकर खड़ी हो गयी। उसका ऐसा अस्नात प्रस्तुत चेहरा इसके पहले नहीं देखा था।डर से पूछा, “तुम्हारी तबियत क्या अच्छी नहीं है?”उसने म्लान हँसी हँसकर कहा, “गुसाईं, आज तुम जीत गये।”“बताओ, कैसे?”“तबियत आज वैसी अच्छी नहीं, वक्त पर नहीं उठ सकी।”“तो आज फूल तोड़ने कौन गया?”ऑंगन के एक ओर एक अधमरे तगर के पेड़ में कुछ थोड़े से फूल लगे थे, उन्हीं को दिखाकर बोली, “इस वक्त तो किसी तरह इन्हीं से काम चला जायेगा।”“पर ठाकुर के गले की माला?”“माला आज न पहना सकूँगी।”सुनकर मन न जाने कैसा हो गया- उन्हीं निर्जीव खिलौनों के लिए! कहा, “नहाकर मैं तोड़ लाता हूँ।”“तो जाओ, पर इतने सबेरे नहा नहीं सकोगे। बीमार पड़ जाओगे।”“बड़े गुसाईंजी नहीं दिखाई देते?”वैष्णवी ने कहा, “वे तो यहाँ हैं नहीं, परसों अपने गुरुदेव से मिलने नवद्वीप गये हैं।”“कब लौटेंगे?”“यह तो पता नहीं गुसाईं।”इतने दिनों से मठ में रहते हुए भी बैरागी द्वारिकादास के साथ घनिष्ठता नहीं हुई, कुछ तो मेरे अपने दोष से और कुछ उनके निर्लिप्त स्वभाव के कारण। वैष्णवी के मुँह से सुनकर और अपनी ऑंखों से देखकर जान गया हूँ कि इस आदमी में न कपट है, न अनाचार और न मास्टरी करने का चाव। उनका अधिकांश समय अपने निर्जन कमरे में वैष्णव धर्म-ग्रन्थों के साथ व्यतीत होता है। इन लोगों के धर्म-मत पर न मेरी आस्था है, न विश्वास। पर इस व्यक्ति की बातें इतनी नम्र, देखने की भंगी इतनी स्वच्छ, गम्भीर तथा विश्वास और निष्ठा से अहर्निश ऐसी भरपूर रहती है कि उनके मत और पथ के विरुद्ध आलोचना करने में सिर्फ संकोच ही नहीं बल्कि दु:ख होता है। अपने आप ही यह समझ में आ जाता हैं कि यहाँ तर्क करना। बिल्कुसल निष्फल है। एक दिन एक मामूली-सी दलील करने पर वे मुस्कुराते हुए इस तरह चुपचाप देखते रह गये कि कुंठा के मारे मेरे मुँह से और शब्द ही न निकले। उसके बाद से ही मैं यथासाध्यै उनसे बचकर चला हूँ। फिर भी एक कुतूहल बना रहा। इच्छा थी कि जाने के पहले इतनी नारियों से घिरे रहने पर भी, निरविच्छिन्न रस के अनुशीलना में निमग्न रहने पर भी, चित्त की शान्ति और देह की निर्मलता को अक्षुण्ण बनाए रखने का रहस्य उनसे पूछ जाऊँगा। पर वह सुयोग इस यात्रा में अब शायद नहीं मिलेगा। मन ही मन सोचा कि फिर कभी यदि आना हुआ, तो देखा जायेगा।वैष्णवों के मठों में भी ठाकुरजी की मूर्ति को आमतौर ब्राह्मण के अलावा और कोई स्पर्श नहीं कर सकता, पर हम आश्रम में यह रीति नहीं है। ठाकुर का एक वैष्णव पुजारी बाहर रहता है, आज भी वह आकर यथारीति पूजा कर गया। पर ठाकुर की सेवा का भार आज बहुत कुछ मुझ पर आ पड़ा। वैष्णवी बतलाती जाती है और मैं सब काम करता जाता हूँ, पर रह-रहकर सारा हृदय तिक्त हो उठता है। मुझ पर यह क्या पागलपन सवार हो रहा है! आज भी जाना बन्द रहा। अपने को शायद यह कहकर समझाया कि जब इतने दिनों से यहाँ हूँ, तब इस विपत्ति के समय इन लोगों को कैसे छोड़ जाऊँ? संसार में कृतज्ञता नाम की भी तो कोई चीज है।और भी दो दिन कट गये, किन्तु अब और नहीं। कमललता स्वस्थ हो गयी है, पद्मा और लक्ष्मी-सरस्वती दोनों बहिनों की तबीयत भी ठीक हो गयी है। द्वारिका दास कल शाम को लौट आये हैं, उनसे बिदा माँगने गया। गुसाईंजी ने कहा, “आज जाओगे गुसाईं? अब कब आओगे?”“यह तो नहीं जानता गुसाईंजी।”“लेकिन कमललता तो रो-रोकर अधमरी हो जायेगी।”यह जानकर मन ही मन बहुत बिगड़ा कि इनके कानों में भी हमारी बात पहुँच गयी है। कहा, “वह क्यों रोने लगी?”गुसाईंजी ने जरा हँसकर कहा, “शायद तुम नहीं जानते?”“नहीं।”“उसका स्वभाव ही ऐसा है। किसी के चले जाने पर वह शोक में अधमरी हो जाती है।”यह बात और भी बुरी लगी। कहा, “जिसकी आदत ही शोक करने की है वह तो करेगा ही। मैं उसे रोक कैसे सकता हूँ?” पर यह कहा और उनकी ऑंखों की तरफ देखकर मुँह फेरा ही था कि देखा, मेरे पीछे कमललता खड़ी है।द्वारिकादास ने कुण्ठित स्वर में कहा, “उस पर नाराज होना गुसाईं, सुना है कि ये सब तुम्हारी सेवा नहीं कर सकीं और बीमार पड़कर तुमसे बहुत काम लिया, अनेक कष्ट भी दिये। यह कल मुझसे इसके लिए स्वयं ही दु:ख प्रकट कर रही थी। और फिर वैष्णव-बैरागियों के पास सेवा-सत्कार करने लायक है ही क्या। किन्तु अगर कभी तुम्हारा यहाँ आना हो तो भिखारियों को दर्शन दे जाना। दे जाओगे न गुसाईं?”सिर हिलाकर बाहर निकला आया, कमललता वहीं पर वैसी ही खड़ी रही। पर अकस्मात् यह क्या हो गया! बिदा लेने के वक्त न जाने कितना क्या कहने और सुनने की कल्पना कर रक्खी थी!- सब नष्ट कर दी। अनुभव कर रहा था कि चित्त की दुर्बलता की ग्लानि अन्तर में धीरे-धीरे संचित हो रही है, किन्तु स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि झुँझलाया हुआ असहिष्णु मन ऐसी अशोभन रुक्षता से अपनी मर्यादा नष्ट कर बैठेगा!नवीन आ पहुँचा। वह गौहर की तलाश में आया है, क्योंकि, वह कल से अब तक घर नहीं लौटा है। बड़ा अचरज हुआ, “यह क्या नवीन, वह तो यहाँ भी अब नहीं आता?”नवीन विशेष विचलित न हुआ। बोला, “तो किसी बन-जंगल में घूम रहे होंगे, नहाना-खाना बन्द कर दिया है, अब कहीं साँप के काटने की खबर मिलेगी तो निश्चिन्त हुआ जायेगा।”“पर नवीन, उसकी तलाश करना तो जरूरी है।”“मालूम है कि जरूरी है, पर तलाश कहाँ करूँ? बाबू, जंगल में घूम घूमकर मैं अपनी जान तो दे नहीं सकता! पर वे कहाँ हैं? एक बार उनसे और पूँछ लूँ।”“ 'वे' कौन?”“वही कमललता।”“पर उसे क्या मालूम होगा नवीन?”“वे नहीं जानती? सब जानती हैं।”और ज्यादा बहस न करके मैं उत्तेजित नवीन को मठ के बाहर ले आया। कहा, “वास्तव में नवीन, कमललता कुछ नहीं जानती। खुद बीमार होने के कारण वह तीन चार दिन से अखाड़े के बाहर भी नहीं निकली।”नवीन ने विश्वास नहीं किया। नाराज होकर कहा, “नहीं जानती? वह सब जानती है। वैष्णवी कौन-सा मन्तर नहीं जानती? वह क्या नहीं कर सकती? यदि कहीं वह नवीन के पल्ले पड़ी होती तो उसका ऑंख-मुँह मटकाना और कीर्तन करना सब बाहर निकाल देता। लौंडे ने बाप के इतने रुपये पैसे मानो जादू से उड़ा दिये!”उसे शान्त करने के लिए कहा, “कमललता रुपये लेकर क्या करेगी, नवीन? वैष्णवी है; मठ में रहती है, गाना गाकर, भीख माँगकर ठाकुर-देवता की सेवा करती है। दो दफे दो मुट्ठी खाती ही तो है और क्या! इसलिए मुझे तो ऐसा नहीं लगा कि वह रुपयों की भिखारिनी है नवीन!”नवीन कुछ ठण्डा होकर बोला, “अपने लिए नहीं-यह तो हम भी जानते हैं। देखने में भी वह भले घर की लड़की जैसी लगती है। वैसा ही चेहरा और वैसी ही बातचीत। बड़े बाबाजी भी लोभी नहीं हैं, पर उन्होंने वैष्ण्वियों का पूरा एक झुण्ड का झुण्ड जो पाल रक्खा है! ठाकुर-सेवा के नाम पर उन लोगों को हुलुआ-पूड़ी और दूध-घी रोज जो चाहिए! नयन चाँद चक्रवर्ती के मुँह पर घुसफुस सुनी है कि अखाड़े के नाम बीस बीघा ज़मीन खरीदी गयी है! कुछ भी नहीं रहेगा बाबू, जो कुछ है सब एक दिन बैरागियों के पेट में चला जायेगा।”कहा, “पर यह अफवाह शायद सच नहीं है। और तुम्हारा वह नयन चक्रवर्ती भी तो कम नहीं है!”नवीन ने फौरन स्वीकार कर कहा, “यह ठीक है। वह धूर्त ब्राह्मण बड़ा झाँसेबाज है। पर कहिए, विश्वास कैसे न करूँ? उस दिन खामख्वाह मेरे ही लड़के के नाम दस बीघा ज़मीन दान कर दी। बहुत मना किया पर नहीं सुना। मानता हूँ कि बाप बहुत रख गया है, पर बाबू, इस तरह बाँटने से कितने दिन चलेगा? एक दिन क्या कहा, जानते हैं? कहा, हम फकीर के वंश के हैं, फकीरी तो हमसे कोई छीन नहीं लेगा? लीजिए, सुनिए इनकी बातें!”नवीन चला गया। एक बात पर ध्यानन गया। यह उसने एक बार भी न पूछा कि मैं किसलिए इतने दिनों से मठ में पड़ा हुआ हूँ। नहीं जानता कि पूछता तो मैं क्या कहता, पर मन ही मन शर्मिन्दा हुआ। उससे ही और एक खबर मिली कि कालिदास बाबू के लड़के का ब्याह कल धूमधाम से हो गया। सत्ताईस तारीख का मुझे खयाल ही न रहा।नवीन की बातों पर मन ही मन विचार करते-करते अकस्मात विद्युत-वेग से एक सन्देह उठ खड़ा हुआ- वैष्णवी किसलिए चली जाना चाहती है? कहीं उस मोटी भौंहों वाले कुरूप आदमी के डर से तो नहीं, जो कण्ठी बदलकर पाये हुए पतित्व का दावा करता है? और यह गौहर? मेरे यहाँ रहने के सम्बन्ध में ही शायद इसीलिए वैष्णवी ने इस दिन सकौतुक कहा था कि गुसाईं, मैं अगर तुम्हें पकड़कर रखे रहूँ तो वे नाराज़ नहीं होंगे। नाराज होनेवाले आदमी वे नहीं हैं। पर अब वह क्यों नहीं आता? उसने अपने मन ही मन न जाने क्या सोच लिया है। संसार में गौहर की आसक्ति नहीं है, अपना कहने को भी कोई नहीं है। रुपया-पैसा, धन-दौलत तो उसके लिए ऐसे हैं मानो उन्हें लुटा देने पर ही उसे चैन मिलेगी। प्रेम अगर उसने किया भी हो तो इस डर से वह मुँह खोलकर शायद किसी दिन कहेगा भी नहीं कि कहीं पीछे किसी अपराध का स्पर्श न हो जाए। वैष्णवी यह जानती है। उस अनतिक्रम्य बाधा से चिर-निरुद्ध प्रणय के निष्फल चित्त-दाह से इस शान्त और स्वयं को भूले हुए मनुष्य को बचाने के लिए ही शायद वह यहाँ से भाग जाना चाहती है। नवीन चला गया है और मैं बकुल के नीचे बैठकर उस टूटी वेदी के ऊपर अकेला बैठा हुआ सोच रहा हूँ। घड़ी खोलकर देखी। यदि पाँच बजे की ट्रेन पकड़ना है तो अब और देर नहीं की जा सकती। पर हर रोज न जाना ही इस तरह आदत में दाखिल हो गया था कि जल्दी से उठकर चल देने के लिए आज भी मन पीछे हटने लगा।चाहे जहाँ भी रहूँ, पूँटू के बहू-भात के समय पहुँचकर अन्न ग्रहण करने का वादा किया था और भागे हुए गौहर को खोज लाना मेरा कर्त्तव्य है। इतने दिनों तक अनावश्यक अनुरोध बहुत माने हैं, पर आज जब सच्चा कारण विद्यमान है तब मान्य करने को कोई नहीं। देखा, पद्मा आ रही है। करीब आकर बोली, “तुम्हें एक बार दीदी बुला रही हैं, गुसाईं।”फिर लौट आया। ऑंगन में खड़े होकर वैष्णवी ने कहा, “कलकत्ते पहुँचने में तुम्हें रात हो जायेगी, नये गुसाईं। ठाकुरजी का थोड़ा-सा प्रसाद सजा रक्खा है, कमरे में आओ।”रोज की तरह सावधानी से तैयारी की गयी थी। बैठ गया। यहाँ खाने के लिए मनाने और जोर डालने की प्रथा नहीं है, आवश्यक होने पर माँग लेना होता है। बाकी नहीं छोड़ा जाता।जाने के वक्त वैष्णवी ने कहा, “नये गुसाईं, फिर आओ न?”“तुम रहोगी न?”“तुम बताओ, मुझे कितने दिन तक रहना होगा?”“तुम ही बताओ कि कितने दिनों बाद मुझे यहाँ आना होगा?”“नहीं, यह मैं तुम्हें नहीं बताऊँगी।”“न बताओ, पर एक दूसरी बात का जवाब दोगी, बोली?”इस बार वैष्णवी ने जरा हँसकर कहा, “नहीं, वह भी मैं न दूँगी। इस समय तुम्हारी जो इच्छा हो सोच लो गुसाईं, एक दिन अपने आप ही उसका जवाब मिल जाएगा।”कई बार इन शब्दों ने जबान पर आना चाहा, कि अब तो वक्त नहीं है कमललता, कल जाऊँगा- पर किसी भी तरह कह नहीं पाया। यही कहा कि “जाता हूँ।”पद्मा निकट आकर खड़ी हो गयी। कमललता की देखा देखी उसने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वैष्णवी ने उससे नाराज होकर कहा, “हाथ जोड़कर नमस्कार क्या करती है जलमुँही, पैरों की धूल लेकर प्रणाम कर।”इस बात से मानो मैं चौंक पड़ा। उसके मुँह की ओर नजर करते ही देखा कि उसने दूसरी ओर मुँह फेर लिया है। तब और कुछ न कहकर मैं उनका आश्रम छोड़कर बाहर चल दिया।

अध्याय 17 वैष्णवी ने आज मुझसे बार-बार शपथ करा ली कि उसका पूर्व विवरण सुनकर मैं घृणा नहीं करूँगा। “सुनना मैं चाहता नहीं, पर अगर सुनूँ तो घृणा न करूँगा।” वैष्णवी ने सवाल किया, “पर क्यों नहीं करोगे? सुनकर औरत-मर्द सब ही तो घृणा करते हैं।” “मैं नहीं जानता कि तुम क्या कहोगी, तो भी अन्दाज लगा सकता हूँ। यह जानता हूँ कि उसे सुनकर औरतें ही औरतों से सबसे ज्यादा घृणा करती हैं, और इसका कारण भी जानता हूँ, पर तुम्हें वह नहीं बताना चाहता। पुरुष भी करते हैं, किन्तु बहुत बार वह छल होता है, और बहुत बार आत्मवंचना। तुम जो कुछ कहोगी उससे भी बहुत ज्यादा भद्दी बातें मैंने खुद तुम लोगों के मुँह से सुनी हैं, और अपनी ऑंखों भी देखी हैं। पर तो भी मुझे घृणा नहीं होती।” “क्यों नहीं होती?” “शायद यह मेरा स्वभाव है। पर कल ही तो तुमसे कहा है कि इसकी जरूरत नहीं। सुनने के लिए मैं जरा भी उत्सुक नहीं। इसके अलावा कौन कहाँ का है, यह सब कहानी मुझसे नहीं भी कही तो क्या हर्ज है?” वैष्णवी काफी देर तक चुप हो कुछ सोचती रही। इसके बाद अचानक पूछ बैठी, “अच्छा गुसाईं, तुम पूर्वजन्म और अगले जन्मपर विश्वास करते हो?” “नहीं।” “नहीं क्यों? ...

अध्याय 16 इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मनुष्य को सदुपदेश देने से कोई फायदा नहीं होता- सत्-परामर्श पर कोई जरा भी ध्या न नहीं देता। लेकिन चूँकि यह सत्य है, इसलिए दैवात् इसका व्यतिक्रम भी होता है। इसकी एक घटना सुनाता हूँ।बाबा ने दाँत निकालकर आशीर्वाद दिया और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ प्रस्थान किया। पूँटू ने भी बहुत सारी पद-धूलि लेकर आदेश का पालन किया। पर उनके चले जाने के बाद मेरे परिताप की सीमा न रही। मन विद्रोही होकर सिर्फ तिरस्कार करने लगा कि ये कौन होते हैं जिन्हें विदेश में नौकरी कर अनेक कष्टों से संचित किया हुआ धन दे दोगे? सनकीपन में कुछ कह दिया तो क्या उसका यह मतलब है कि दाता कर्ण बनना ही पड़ेगा? न जाने कहाँ की इस लड़की ने बिना माँगे ही ट्रेन में पेड़े और दही खिलाकर मुझे तो अच्छा फन्दे में फाँसा! एक फन्दे को काटते हुए एक दूसरे फन्दे में फँस गया। बचने का उपाय सोचते हो दिमाग गर्म हो गया, और उस निरीह लड़की के प्रति क्रोध और विरक्ति की सीमा न रही। और यह शैतान बाबा! मनाने लगा कि वह अब घर न पहुँच सके, रास्ते में ही सर्दी-गर्मी से मर जाय। पर यह आशा भित्तिहीन है। अच्छी तरह जानता हूँ कि वह आदमी किसी तरह भी नहीं मरेगा और जब उसे मेरे मकान का पता एक बार चल गया है तो फिर आयेगा, तथा चाहे जैसे भी हो, रुपये वसूल करेगा। हो सकता है कि इस बार उन्हीं हाकिम फूफा महाशय को भी साथ लावे। एक ही उपाय है- य: पलायति स जीवति। टिकिट खरीदने गया, पर जहाज में स्थानाभाव- सब टिकिट पहले से ही बिक गये हैं। अत: दूसरी मेल का इनतजार करना होगा और उसमें अभी छह-सात दिन की देर है।एक उपाय और है, कि मकान बदल दिया जाय, बाबा को खोजने पर भी न मिले। पर इतनी अच्छी जगह इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी? किन्तु शिकारी के हाथों प्राण बचाने के सम्बन्ध में हालत ऐसी नाजुक हो गयी है कि अच्छे-बुरे का प्रश्न ही गौण है- यथारण्यं तथा गृहम्।डर है कि मेरा गुप्त उद्वेग कहीं रतन की नज़रों में न आ जाय। पर मुश्किल तो यह है कि वह यहाँ से टलना ही नहीं चाहता। काशी की अपेक्षा उसे कलकत्ता ज्यादा पसन्द आ गया है। पूछा, “चिट्ठी का जवाब लेकर क्या तुम कल ही जाना चाहते हो, रतन?”रतन ने फौरन ही जवाब दिया, “जी नहीं। आज दोपहर को मैंने माँ को एक पोस्ट कार्ड डाल दिया है कि लौटने में मुझे चार-पाँच दिन की देर होगी। मृत सोसायटी (=अजायबघर) और जीवित सोसायटी (=चिड़ियाखाना) बिना देखे नहीं जाऊँगा। अब फिर कब आना हो, इसका तो कोई ठिकाना नहीं।”मैंने कहा, “पर वे तो उद्विग्न हो सकती हैं?”“जी नहीं। लिख दिया है कि गाड़ी में लगे हुए धक्कों की थकान अभी तक दूर नहीं हुई है।”“पर चिट्ठी का जवाब...”“जी, दीजिए न। कल ही रजिस्ट्री से भेज दूँगा। उस मकान में माँ की चिट्ठी खोलने का साहस यम भी नहीं करेगा।”चुपचाप बैठा रहा। नाई-बेटे के सामने एक भी तरकीब नहीं चली। सब प्रस्तावों को रद्द कर दिया।जाते वक्त बाबा रुपयों की बात प्रचार कर गये थे। परन्तु कोई इस बात का भ्रम न कर ले कि उन्होंने हृदय की उदारता या अधिक सरलता के कारण ऐसा किया हो। वे तो ऐसा करके गवाह बना गये हैं!रतन ने ठीक इसी बात का अन्दाज लगाया। कहा, “बाबू, अगर आप नाराज़ न हों तो एक बात कहूँ।”“क्या बात रतन?”रतन ने कुछ संकोच के साथ कहा, “ढाई हजार रुपये तो कम रकम नहीं है बाबू, वे कौन होते हैं जिनकी शादी के लिए आपने इतना रुपया खामख्वाह देने को कहा है? इसके अलावा वह बूढ़ा बाबा हो या और कोई, लेकिन अच्छा आदमी नहीं है। उसे देने कहना अच्छा नहीं हुआ बाबू।”उसका मन्तव्य सुनकर जैसे अनिर्वचनीय आनन्द मिला वैसे ही मन को जोर भी मिला और यही मैं चाहता था। तथापि, अपनी आवाज में किंचित् सन्देह का आभास देकर बोला, “कहना ठीक नहीं हुआ- क्यों रतन?”रतन बोला, “हाँ बाबू, निश्चय ठीक नहीं हुआ। रुपये भी तो कम नहीं हैं, और फिर किसलिए, कहिए तो?”“ठीक तो है।” मैंने कहा, “तो नहीं देंगे।”आश्चर्य से थोड़ी देर तक देखने के बाद रतन ने कहा, “वह छोड़ेगा क्यों?”मैंने कहा, “नहीं छोड़ेगा तो क्या करेगा? लिखकर तो दिया ही नहीं है और फिर, यही कौन जानता है कि उस वक्त मैं यहाँ रहूँगा या बर्मा चला जाऊँगा?”रतन क्षणभर चुप रहकर हँसा। बोला, “बाबू आप बूढ़े को पहिचान नहीं सके। उस आदमी को शर्म और मान-अपमान छू तक नहीं गया है। रो-धोकर, भीख माँगकर या डरा-धमकाकर वह रुपये किसी-न-किसी तरह लेगा ही। अगर यहाँ आपसे मुलाकात न होगी तो लड़की को साथ लेकर वह काशी जायेगा और माँ से रुपया वसूल करके छोड़ेगा! माँ को बहुत शर्म आयेगी बाबू, यह तरीका ठीक नहीं है।”यह सुनकर निस्तब्ध हो बैठा रहा। रतन मुझसे बहुत ज्यादा बुद्धिमान है। अर्थहीन आकस्मिक करुणा की हठ का जुर्माना मुझे देना ही पड़ेगा, कोई निस्तार नहीं।रतन ने गाँव के बाबा को पहचानने में गलती नहीं की, यह तब समझ में आया जबकि चौथे दिन वे फिर लौटकर आये। आशा थी कि इस बार हाकिम फूफा भी उनके साथ अवश्य आवेंगे- पर हाजिर हुए वे अकेले ही। बोले, “बेटा, दस गाँवों में धन्य-धन्य हो रहा है। सब कहते हैं कि कलियुग में ऐसा कभी नहीं सुना। गरीब ब्राह्मण की कन्या का ऐसा उद्धार कभी किसी ने नहीं देखा। आशीर्वाद देता हूँ कि तुम चिरंजीवी होओ।”पूछा, “शादी कब है?”“इसी महीने की पच्चीस तारीख ठीक हुई है, बीच में दस दिन बाकी हैं। कल 'देखना' पक्का हो जायेगा, आशीर्वाद-करीब तीन बजे के बाद मुहूर्त नहीं है, इसके भीतर ही सब शुभ कार्य पूरे कर लेने होंगे। पर बिना तुम्हारे गये सब बन्द रहेगा, कुछ भी नहीं हो सकेगा। यह लो अपनी पूँटू की चिट्ठी, उसने अपने हाथ से लिखकर भेजी है। पर यह भी कहे देता हूँ बेटा, कि जिस रत्न को तुमने अपनी इच्छा से खो दिया, उसका जोड़ नहीं है।” यह कहकर उन्होंने एक पीले रंग का मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा मेरे हाथों में दे दिया।कुतूहलवश चिट्ठी पढ़ने की कोशिश की। बाबा ने अचानक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर कहा, “कालिदास रुपये वाला है तो क्या हुआ, बिल्कुाल नीच है- चमार। उसके लिए ऑंख की शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं। कल ही रुपया-पैसा सब नकद चुकाना होगा- गहने वगैरह अपने सुनार से बनवायेगा। वह किसी का विश्वास नहीं करता, यहाँ तक कि मेरा भी नहीं।”उस आदमी में बड़ी खराबी है। बाबा तक का विश्वास नहीं करता- आश्चर्य।पूँटू ने अपने हाथ से पत्र लिखा है। एक-दो पेज नहीं, बल्कि ठसाठस भरे हुए चार पेज। चारों पेजों में कातरता के साथ विनती है। ट्रेन में राँगा दीदी ने कहा था कि आजकल के नाटक-नॉविल भी हार मान लें। केवल आजकल के ही क्यों, सर्वकाल के नाटक-नॉविल हार मान लेंगे- यह अस्वीकार नहीं करूँगा। इस बात का विश्वास हो गया कि इस लिखने के प्रभाव से ही नन्दरानी का पति चौदह दिन की छुट्टी लेकर सातवें दिन ही आकर हाजिर हो गया था।अतएव, दूसरे दिन सुबह मैं भी चल दिया और बाबा ने इसकी जाँच खुद अपनी ऑंखों से कर ली कि मैंने रुपये सचमुच ही अपने साथ ले लिये हैं, कोई प्रतारणा तो नहीं कर रहा हूँ। बोले-“रास्ता चलना देखकर, रुपया लेना ठोक कर। अरे भाई, हम देवता तो हैं नहीं, आदमी हैं- भूल होते क्या देर लगती है?”ठीक तो है! रतन कल रात को ही काशी चला गया है। उसके हाथों चिट्ठी का जवाब भेज दिया है। लिख दिया है- तथास्तु। पता इस वजह से न दे सका कि कोई ठीक नहीं है। इस त्रुटि के लिए अपने गुण से क्षमा कर नेकी भी प्रार्थना कर दी है।यथासमय गाँव पहुँचा, मकान के सब आदमियों की दुश्चिन्ता दूर हुई। जो आदर और सम्मान मिला, उसे बताने के लिए कोश में शब्द नहीं हैं।सम्बन्ध पक्का करने और आशीर्वाद देने के उपलक्ष्य में कालिदास बाबू से परिचय हुआ। वह जैसे सूखे मिजाज के हैं वैसे ही दम्भी भी। सबको यह स्मरण कराने के अलावा कि वे बहुत रुपये वाले हैं, ऐसा नहीं मालूम पड़ा कि संसार में और कोई दूसरा कर्त्तव्य उनका है। सारा धन खुद उन्हीं का कमाया हुआ है। बड़े घमण्ड से कहा, “जनाब, किस्मत को मैं नहीं मानता, जो कुछ करूँगा वह सब अपने बाहुबल से। देवी-देवताओं के अनुग्रह की भिक्षा भी मैं नहीं माँगता। मैं कहता हूँ कि देवता की दुहाई कापुरुष देते हैं।”बड़े आदमी और छोटे-मोटे ताल्लुकेदार होने के कारण उनके यहाँ गाँव के प्राय: सब आदमी उपस्थित थे, और शायद अधिकांश के वे महाजन थे और बहुत कड़े महाजन- अतएव सबने ही एक स्वर से उनकी बातें मान लीं। तर्करत्न महाशय ने एक संस्कृत का श्लोक सुनाया, और आसपास से उसके सम्बन्ध में दो-एक पुरानी कहानियों का भी सूत्रपात हुआ।उन्होंने एक अपरिचित और साधारण व्यक्ति समझकर मेरी ओर असम्मान पूर्ण दृष्टि से देखा। उस वक्त रुपयों के दु:ख से मेरा हृदय जल रहा था। वह दृष्टि मुझे सहन नहीं हुई। मैं एकाएक बोल उठा, “यह तो नहीं जानता किस परिमाण में आप में बाहुबल है, पर यह मैं स्वीकार करता हूँ कि रुपये कमाने का जहाँ तक सवाल है, आपका बाहुबल प्रबल है।”“इसके मानी?”मैंने कहा, “मानी खुद मैं। न तो वर को पहचानता हूँ और न कन्या को, फिर भी रुपये मेरे खर्च हो रहे हैं और आपके सन्दूक में पहुँच रहे हैं। इसे तकदीर नहीं कहते तो और क्या कहते हैं? आपने अभी कहा कि आप देवी-देवताओं का अनुग्रह नहीं लेते, लेकिन आपके लड़के के हाथ की अंगूठी से लेकर बहु के गले का हार तक मेरे अनुग्रह के दान से बनेगा। हो सकता है कि बहू-भात की दावत तक का इन्तजाम मुझे ही करना पड़े।”कमरे में वज्रपात होने पर भी शायद सब लोग इतने व्याकुल और विचलित न होते। बाबा ने न जाने क्या कहने की कोशिश की, पर कुछ भी सुस्पष्ट था, सुव्यक्त न हो सका। क्रोध में कालिदास बाबू ने भीषण मूर्त्ति धारण कर कहा, “आप रुपये दे रहे हैं, यह मुझे कैसे मालूम हो? और दे ही क्यों रहे हैं?”कहा, “क्यों दे रहा हूँ यह आप नहीं समझ सकते, आपको समझाना भी नहीं चाहता। पर सारा गाँव सुन चुका है कि मैं रुपये दे रहा हूँ, सिर्फ आपने ही नहीं सुना? लड़की की माँ ने आपके सारे घरवालों के हाथ-पैर जोड़े, पर आप अपने बी.ए. पास लड़के का मूल्य ढाई हजार से एक पैसा भी कम करने को राजी नहीं हुए। लड़की का बाप चालीस रुपये महीने की नौकरी करता है, चालीस पैसे देने की भी उसमें शक्ति नहीं- तब आपने यह नहीं सोचा कि आपके लड़के को खरीदने के लिए अचानक उसके पास इतना रुपया कहाँ से आ गया? कुछ भी हो, लड़के बेचने के रुपये बहुत लोग लेते हैं, आप भी लें तो इसमें बुराई नहीं। पर इसके बाद गाँव वालों को अपने मकान में बुलाकर रूपयों का घमण्ड और न कीजिएगा। और यह भी याद रखिएगा कि आपने एक बाहर के आदमी के भिक्षा-दान से लड़के की शादी की है।”उद्वेग और डर से सबका मुँह काला हो गया। शायद सबने यह सोचा कि अब कुछ भयंकर घटना होगी और कालिदास बाबू फाटक बन्द करवाकर लाठियों से पीटे बिना किसी को भी घर से वापस न जाने देंगे। पर, थोड़ी देर तक चुप बैठे रहने के बाद उन्होंने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “मैं रुपये नहीं लूँगा।”मैंने कहा, “इसके मानी यह कि आप लड़के की शादी यहाँ नहीं करेंगे।”कालिदास बाबू ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, यह नहीं। मैंने वचन दिया है कि शादी करूँगा- इसमें जरा भी फर्क न होगा। कालिदास मुखर्जी कही हुई बात के खिलाफ काम नहीं करता। आपका नाम क्या है?”बाबा ने व्यग्र कण्ठ से मेरा परिचय दिया। कालिदास बाबू ने पहिचानकर कहा, “ओ:-ठीक है। इनके बाप के साथ एक बार मेरा बहुत जबरदस्त फौजदारी मामला चला था।”बाबा ने कहा, “जी हाँ आप कुछ भी नहीं भूलते। ये उन्हीं के लड़के हैं और रिश्ते में मेरे नाती होते हैं।”कालिदास बाबू ने प्रसन्न कण्ठ से कहा, “ठीक है। मेरा बड़ा लड़का अगर जिन्दा रहता तो इतना ही बड़ा होता। शशधर की शादी में आना, बेटा। हमारी ओर से उस दिन तुम्हारा निमन्त्रण रहा।”शशधर उपस्थित था। उसने एक बार कृतज्ञ नेत्रों से मेरी ओर देखा और फौरन ही मुँह नीचा कर लिया।मैंने उठकर प्रणाम किया। कहा, “चाहे जहाँ भी रहूँ, लेकिन कम-से-कम बहू-भात के दिन आकर नववधू के हाथ का अन्न खा जाऊँगा। पर मैंने बहुत-सी अप्रिय बातें कही हैं, आप मुझे क्षमा करेंगे।”कालिदास बाबू बोले, “यह सच है कि अप्रिय बातें कही हैं, पर मैंने क्षमा भी कर दिया है। अभी जाने का काम नहीं श्रीकान्त, शुभ कार्य के उपलक्ष में मैंने थोड़ा-सा खाने का भी आयोजन किया है। तुम्हें खाकर जाना होगा।”“जैसा कहेंगे वही होगा,” कहकर फिर बैठ गया।उस दिन पात्र को आशीर्वाद देने से लेकर उपस्थित अभ्यागतों के खाने-पीने तक के सारे काम निर्विघ्न सुसम्पन्न हो गये। इस अध्याञय के प्रारम्भ में सदुपदेशक के बारे में जिस नियम का उल्लेख किया था, उसके व्यतिक्रम का एक उदाहरण पूँटू का विवाह है। संसार में सिर्फ यही एक उदाहरण अपनी ऑंखों से देखा है। कारण, नि:सम्पर्कीय, अपरिचित, अभागी लड़की के बाप का कान ऐंठते ही जहाँ रुपये वसूल होते हों, वहाँ वैष्णव बनकर हाथ जोड़ने पर बाघ के ग्रास से निस्तार नहीं मिलता। निष्ठुर, निर्दय इत्यादि गाली-गलौज करके समाज और तकदीर को धिक्कारने पर किंचित् क्षोभ मिट सकता है, पर प्रतिकार नहीं होता, क्योंकि दूल्हे के बाप के हाथ में प्रतीकार नहीं है, वह तो लड़की के बाप के हाथों में ही है।♦♦ • ♦♦गौहर की खोज में आने पर नवीन से मुलाकात हुई। वह मुझे देखकर खुश हुआ। लेकिन उसका मिजाज बहुत रूखा था। बोला, “जाकर वैष्णवियों के आश्रम में देखिए, कल से तो घर ही नहीं आये हैं।”“यह क्या माजरा है नवीन! यह वैष्णवी कहाँ से आ गयी?”“एक वैष्णवी नहीं, पूरा का पूरा एक दल आ जुटा है!”“वे कहाँ रहती हैं?”“यहीं मुरारीपुर के अखाड़े में।” कहकर नवीन ने एक नि:श्वास छोड़ा, फिर कहा, “हाय बाबू, अब न तो वे राम हैं और न वह अयोधया। बूढ़े मथुरादास बाबाजी के मरते ही उनकी जगह एक छोकरा वैरागी आ गया है, उसके कोई चार गण्डा सेवा-दासी हैं। द्वारिकादास वैरागी से हमारे बाबू की बड़ी मित्रता है- वहीं तो प्राय: रहते हैं।”चकित होकर पूछा, “पर तुम्हारे बाबू तो मुसलमान हैं। वैष्णव-वैरागी अपने आश्रम में उन्हें रहने कैसे देंगे?”नवीन ने नाराज होकर कहा, “इन सब बाउल सन्यासियों को क्या धर्माधर्म का ज्ञान है? ये जाति-जन्म कुछ भी नहीं मानते। जो भी कोई उन्हें मिलता है, वे उसे ही अपने दल में खींच लेते हैं, सोच-विचार कुछ नहीं करते।”पूछा, “पर उस बार जब मैं तुम्हारे यहाँ छह-सात दिन था, तब तो गौहर ने उनके बारे में कुछ नहीं कहा?”नवीन बोला, “कहते तो कमललता के गुण-अवगुण जाहिर नहीं हो जाते? सिर्फ उन कई दिनों ही बाबू अखाड़े के पास नहीं गये। पर जैसे ही आप गये वैसे ही कॉपी और कलम लिए बाबू अखाड़े अखाड़ेगें में जा धामके।”प्रश्न करने पर मालूम हुआ कि द्वारिका बाउल गाना गाने और दोहे बनाने में सिद्धहस्त है। गौहर इस प्रलोभन में फँस गया। उसको कविता सुनाता है, उससे अपनी गलतियों का संशोधन करा लेता है और कमललता एक युवती वैष्णवी है- उसी आश्रम में रहती है। वह देखने में अच्छी है, गाना अच्छा गाती है। उसकी बातें सुनकर लोग मुग्ध हो जाते हैं। कभी-कभी वैष्णवों की सेवा के लिए गौहर रूपये-पैसे भी देता है। अखाड़े की पुरानी दीवार जीर्ण होकर गिर गयी थी, गौहर ने अपने खर्चे से उसकी मरम्मत करा दी है। यह काम उसने उस सम्प्रदाय के लोगों के अगोचर चुपचाप ही किया है।मुझे याद आया कि बचपन में इस अखाड़े के बारे में बातें सुनी थीं। पुराने जमाने में महाप्रभु के एक भक्त शिष्य ने इस अखाड़े की प्रतिष्ठा की थी। तब से शिष्य-परम्परा के अनुसार वैष्णव इसमें वास करते आ रहे हैं। अत्यन्त कुतूहल पैदा हुआ। कहा, “नवीन, मुझे एक बार अखाड़ा दिखा सकोगे?”नवीन ने सिर हिलाकर इनकार किया। बोला, “मुझे बहुत काम है और आप तो इसी देश के आदमी हैं, खुद ही न खोज सकेंगे? आधा कोस से ज्यादा दूर नहीं, इस सामने के रास्ते से उत्तर की ओर सीधे जाने पर ही आपको दिखाई दे जायेगा, किसी से पूछना नहीं पड़ेगा। सामने वाले तालाब के नीचे वृन्दावन-लीला हो रही होगी। दूर से ही कानों में आवाज पहुँच जायेगी-ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा।”मेरे जाने का प्रस्ताव नवीन ने शुरू से ही पसन्द नहीं किया। मैंने पूछा, “वहाँ क्या होता है- कीर्तन?”नवीन ने कहा, “हाँ, दिन-रात ख्रजड़ी और करताल को चैन नहीं मिलती।”मैंने हँसकर कहा, “यह तो अच्छा ही है नवीन। जाऊँ, गौहर को पकड़ लाऊँ।”इस बार नवीन भी हँसा, बोला, “हाँ, जाइए। पर देखिएगा कि वहाँ कमललता का कीर्तन सुनकर कहीं आप खुद ही न अटक जाँय।”“देखूँ, क्या होता है।” कहकर हँसता हुआ तीसरे पहर कमललता वैष्णवी के अखाड़े में जाने के लिए चल दिया।अखाड़े का पता जब चला तब शायद शाम हो चुकी थी। दूर से कीर्तन या खंजड़ी-करताल की ध्वंनि तो सुनाई नहीं दी, पर सुप्राचीन बकुल का वृक्ष फौरन ही नजर आ गया, जिसके नीचे टूटी हुई वेदी है। पर एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं दिया। एक क्षीण पथ की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होकर परकोटे के किनारे-किनारे नदी की ओर चली गयी है। अनुमान किया कि उधर शायद किसी से कुछ खबर मिले, अतएव उधर ही पैर बढ़ाये। गलती नहीं की। शीर्ण-संकीर्ण शैवाल से ढकी हुई नदी के किनारे एक परिष्कृत और गोबर से पुती हुई कुछ उच्च भूमि पर गौहर और दूसरे एक व्यक्ति बैठे हैं। अन्दाज लगाया कि ये ही वैरागी द्वारिकादास हैं- अखाड़े के वर्तमान अधिकारी। नदी का किनारा होने की वजह से वहाँ उस वक्त तक संध्या् का अन्धकार घना नहीं हुआ था, बाबाजी को बहुत अच्छी तरह से देख सका। देखने में वह आदमी भद्र और ऊँची जाति का ही जान पड़ा। वर्ण श्याम, दुबला-पतला होने के कारण कुछ लम्बा मालूम होता है, माथे के बाल जटा की तरह सामने की ओर बँधे हुए हैं, मूँछ-दाढ़ी ज्यादा नहीं है-थोड़ी है। ऑंखों में और मुँह पर एक स्वाभाविक हँसी का भाव है। उम्र का ठीक अन्दाज नहीं लगा सका, तो भी पैंतीस-छत्तीस से ज्यादा नहीं जान पड़ी। दोनों में किसी ने भी मेरे आगमन और उपस्थिति पर लक्ष्य नहीं किया, दोनों ही नदी के उस पार पश्चिम दिगन्त में ऑंखें गड़ाये स्तब्ध बने रहे। वहाँ नाना रंग और नाना प्रकार के मेघों के टुकड़ों के बीच तृतीया का क्षीण पांडुरंग चन्द्रमा चमक रहा है। मानो उसके कपाल के बीच में अत्युज्वल सांध्यं-तारा उदित हो रहा है। बहुत नीचे दिखाई देते हैं दूर ग्रामों के नीले पेड़-पौधों-का मानों इनका कहीं अन्त नहीं, सीमा नहीं। काले, सफेद, पीले-नाना रंगों के टूटे-फटे बादलों पर उस वक्त भी अस्तंगत सूर्य की शेष दीप्ति खेल रही थी- ठीक वैसे ही जैसे कि किसी दुष्ट लड़के के हाथ में रंग की तूलिका पड़ जाने से तसवीर का पूरा श्राद्ध हो रहा हो। यह आनन्द क्षणभर ही रहा- क्योंकि इतने में ही चित्रकार ने आकर कान मल दिये और हाथ से तूलिका छीन ली।उस स्वल्पतोया नदी का थोड़ा-सा हिस्सा शायद गाँव वालों ने साफ कर लिया है। सामने के उस स्वच्छ काले और थोड़े पानी पर छोटी-छोटी रेखाओं में चन्द्रमा और सांध्यी तारे का प्रकाश पास-पास ही पकड़कर झिलमिला रहा है- मानो सुनार कसौटी पर सोना घिसकर दाम जाँच रहा हो। पास ही कहीं वन में सैकड़ों वन-मल्लिकाएँ खिली हैं और मानो उनकी गन्ध से सारी वायु भारी हो उठी है। निकट के ही किसी पेड़ के असंख्य चिड़ियों के घोंसलों से उनके बच्चों की एक-सी चीं-चीं विचित्र मधुरता से कानों में अविराम आ रही है। यह सब ठीक है, और तद्गत-चित्त जो दो आदमी जड़-भरत की तरह बैठे हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं, वे भी कवि हैं। पर शाम के वक्त इस जंगल में मैं यह सब देखने नहीं आया हूँ। नवीन ने कहा था कि वैष्णवियों का एक दल का दल यहाँ है और उनमें कमललता वैष्णवी सबसे श्रेष्ठ हैं। वे कहाँ हैं? पुकारा, “गौहर।” ध्यातन भंगकर गौहर हतबुद्धि की तरह मेरी ओर ताकता रह गया।बाबाजी ने उसे जरा हिलाकर कहा, “गुसाईं, ये ही तुम्हारे श्रीकान्त हैं न?”गौहर ने तेजी से उठकर मुझे बड़े जोर से बाहुपाश में आबद्ध कर लिया, इस तरह कि जैसे उसका वह आवेग रुकना ही नहीं चाहता हो। किसी तरह मैं अपने को मुक्त कर बैठ गया। बोला, “गुसाईं जी ने मुझे एकाएक कैसे पहिचान लिया?”बाबा जी ने हाथ हिलाया, “यह नहीं होगा गुसाईं, इसमें से आदर-वाचक 'जी' बाद देना होगा। तब ही तो रस आयेगा।”मैंने कहा, “अच्छा, बाद दे दिया। लेकिन एकाएक मुझे कैसे पहिचाना?”बाबाजी ने कहा, “एकाएक कैसे पहचानूँगा? तुम तो वृन्दावन के हमारे पहचाने हुए हो गुसाईं, और तुम्हारी दोनों ऑंखें तो रस की समुद्र हैं जो देखते ही ऑंखों में भर जाती हैं। जिस दिन कमललता आई थी, उसकी दोनों ऑंखें भी ऐसी ही थीं, उसे देखते ही पहिचान गया और बोल उठा, 'कमललता, कमललता, इतने दिनों कहाँ थी?” कमल आकर जो अपनी हो गयी तो उसका आदि-अन्त, विरह-विच्छेद नहीं रहा। यही तो साधना है गुसाईं, इसी को तो कहता हूँ रस की दीक्षा।”मैंने कहा, “कमललता देखने ही तो आया हूँ गुसाईं, वह कहाँ है?”बाबाजी बहुत खुश हुए। बोले, “उसे देखोगे? पर गुसाईं, तुम उससे अपरिचित नहीं हो, वृन्दावन में उसे अनेक बार देखा है। शायद भूल गये हो, पर देखते ही पहिचान जाओगे कि वह कमललता है। गुसाईं, उसे एक बार पुकारो न!” कहकर बाबाजी ने गौहर को पुकारने का इशारा किया। इनके निकट सब 'गुसाईं' हैं। बोले, “कहो कि श्रीकान्त तुम्हें देखने आया है।”गौहर के चले जाने के बाद पूछा, “गुसाईं, मेरे बारे में सारी बातें शायद गौहर ने तुम्हें बताई हैं?”बाबाजी ने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, सब बताया है। जब उससे पूछा कि 'गुसाईं, तुम छह-सात दिन क्यों नहीं आये? तो उसने कहा कि श्रीकान्त आये थे।” यह भी उसने कहा कि 'तुम फिर जल्दी ही आओगे।” यह भी मालूम हुआ कि तुम बर्मा जाने वाले हो।”सुनकर सन्तोष की साँस छोड़कर मन ही मन मैंने कहा, रक्षा हुई। डर था कि वास्तव में किसी अलौकिक आध्या त्मिक शक्ति-बल के कारण तो ये मुझे देखते ही नहीं पहिचान गये हैं। कुछ भी हो, यह मानना ही पड़ेगा कि मेरे बारे में इस क्षेत्र में उनका अन्दाज गलत नहीं है।बाबाजी अच्छे ही जान पड़े। कम-से-कम असाधु प्रकृति के नहीं मालूम हुए। बहुत सरल। यह बाबाजी ने सरलता से स्वीकार कर लिया कि न जाने क्यों गौहर ने मेरी सब बातें- अर्थात् जितना वह जानता है, इन लोगों से कह दी हैं। कविता और वैष्णव-रस-चर्चा में वे कुछ-कुछ सनकी-से-कुछ विभ्रान्त से मालूम हुए।थोड़ी देर बाद ही गौहर- गुसाईं के साथ कमललता आकर हाजिर हुई। उम्र तीस से ज्यादा नहीं होगी-श्यामवर्ण, इकहरा बदन, हाथ में कुछ चूड़ियाँ हैं पीतल की- सोने की भी हो सकती हैं। बाल छोटे-छोटे नहीं हैं, गिरह देकर पीठ पर झूल रही हैं। गले में तुलसी की माला और हाथ की थैली के भीतर भी तुलसी की जपमाला हैं। छापे-आपे का बहुत ज्यादा आडम्बर नहीं है, अथवा सुबह के वक्त तो था, पर इस वक्त कुछ मिट गया है। उसके मुँह की ओर देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्यान्वित हो गया। सविस्मय यह खयाल होने लगा कि इन ऑंखों का और चेहरे का भाव तो जैसे परिचित है, और चलने का ढंग भी जैसे पहले कहीं देखा है।वैष्णवी ने बात शुरू की। फौरन ही समझ गया कि वह नीचे के स्तर की प्राणी नहीं है। उसने किसी तरह की भूमिका नहीं बाँधी। मेरी ओर सीधे देखकर कहा, ?”कहो गुसाईं, पहिचान सकते हो?”मैंने कहा, “नहीं। लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे कहीं देखा है।”वैष्णवी ने कहा, “वृन्दावन में देखा था। बड़े गुसाईं जी से नहीं सुना?”मैंने कहा, “सो सुना है। पर मैं तो जन्म-भर कभी वृन्दावन नहीं गया।”वैष्णवी ने कहा, “गये कैसे नहीं? बहुत पुरानी बात है, इसलिए अचानक याद नहीं आ रही है। वहाँ गायें चराते, फल तोड़कर लाते, वन-फूलों की माला गूँथकर हमारे गले में पहनाते-सब भूल गये?” यह कहकर वह होठों को दबाकर धीरे-धीरे हँसने लगी।मैंने यह तो समझा कि मजाक कर रही है। पर यह ठीक नहीं कर सका कि मेरा या बड़े गुसाईं जी का, बोली, “रात हो रही है, अब जंगल में क्यों बैठे हो? भीतर चलो।”मैंने कहा, “जंगल के रास्ते हमें बहुत दूर जाना होगा। कल फिर आयेंगी।”वैष्णवी ने पूछा, “यहाँ का पता किसने बताया? नवीन ने?”“हाँ, उसी ने।”कमललता की बात नहीं बताई?”“हाँ, बताई थी।”इस बारे में तुम्हें सावधान नहीं किया कि वैष्णवी का जाल तोड़कर अचानक बाहर नहीं जाया जा सकता?”हँसते हुए बोला, “हाँ, यह भी कहा है।”वैष्णवी हँस पड़ी। बोली, “नवीन होशियार माँझी है। उसकी बातें न मानकर अच्छा नहीं किया।”“क्यों भला?”वैष्णवी ने इसका जवाब नहीं दिया। गौहर को दिखाते हुए कहा, “गुसाईं ने कहा था कि नौकरी करने के लिए विदेश जा रहे हो। पर तुम्हारे तो कोई नहीं है, फिर नौकरी क्यों करोगे?”“तब क्या करूँ?”“हम जो करती हैं। गोविन्दजी का प्रसाद तो कोई छीन नहीं सकता!”“यह जानता हूँ। पर वैरागगीरी मेरे लिए नयी नहीं है।”वैष्णवी ने हँसकर कहा, “समझती हूँ। शायद प्रकृति सहन नहीं करती?”“नहीं, ज्यादा दिन सहन नहीं करती।”वैष्णवी होठ दबाकर हँसी। बोली, “तुम्हारा काम अच्छा है। भीतर आओ, उन लोगों से तुम्हारा परिचय करा दूँ। यहाँ कमलों का वन है।”“सुना है, पर अंधेरे में लौटेंगे कैसे?”वैष्णवी फिर हँसी, बोली, “अंधेरे में हम लौटने ही क्यों देंगी? अन्धकार दूर तो होगा ही। तब जाना। आओ।”'चलो।”वैष्णवी ने कहा, “गौर! गौर!”“गौर-गौर” कहते हुए मैंने भी अनुसरण किया।♦♦ • ♦♦हालाँकि धर्माचरण में मेरी रुचि और विश्वास नहीं है, किन्तु जिनका विश्वास है उनको बाधा नहीं पहुँचाता। मन में बिना संशय के जानता हूँ कि मैं इस गुरुतर विषय का ओर-छोर कभी न खोज पाऊँगा। तथापि, धार्मिकों की मैं भक्ति करता हूँ। विख्यात स्वामीजी और सुख्यात साधूजी- किसी की भी छोआ नहीं कहता, दोनों की ही वाणी मेरे कानों में समान मधु की वर्षा करती है।विशेषज्ञों के मँह से सुना है कि बंगाल की आध्यातत्मिक साधना का निगूढ़ रहस्य वैष्णव सम्प्रदाय में ही सुगुप्त है, और यही बंगाल की खालिस अपनी चीज है। इसके पहले सन्यासी और साधुओं की थोड़ी-बहुत संगत की है। फल-लाभ का विवरण जाहिर करने की इच्छा नहीं है। पर इस दफा अगर दैवात् खालिस चीज नसीब होती हो तो संकल्प किया कि इस मौके को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। पूँटू के बहू-भात के निमन्त्रण में मुझे जाना ही होगा। कम-से-कम कलकत्ते के नि:संग मैस के बदले ये कई दिन अगर इस वैष्णवी-अखाड़े के आसपास कहीं काटने पड़ें तो और चाहे जो हो, जीवन के संचय में विशेष नुकसान न होगा।अन्दर आकर देखा कि कमललता का कहना झूठ नहीं था। वहाँ वाकई कमलों का ही वन है, पर दलित-विदलित। मत्त हाथियों से साक्षात तो नहीं हुआ, पर उनके बहुत से पदचिह्न विद्यमान थे। नाना उम्र और तरह-तरह के चेहरों की वैष्णवियाँ नाना कामों में लगी हुई हैं- कोई लड्डू बना रही है, कोई मैदा गूँधा रही है, कोई फल-मूल तराश रही हैं- यह सब ठाकुरजी के रात के भोग की तैयारियाँ हैं। एक अपेक्षाकृत छोटी उम्र की वैष्णवी ध्यारनमग्न हो फूलों की माला गूँथ रही है और एक उसी के निकट बैठी हुई नाना रंग के छपे हुए छोटे-छोटे कपड़ों के टुकड़े सावधानी से कुंचित करके ढंग से रख रही है। सम्भवत: श्रीगोविन्दजी कल स्नान के बाद उन्हें पहनेंगे। कोई भी खाली नहीं है। उनका काम में आग्रह और एकाग्रता देखकर आश्चर्य होता है। सबने मेरी ओर ताका, पर निमेष-मात्र के लिए। कुतूहल का अवसर नहीं है। सबके होठ हिल रहे हैं, शायद मन ही मन जप हो रहा है। इधर समय खत्म हो गया है। एक-एक करके दिये जलने शुरू हो गये हैं। कमललता ने कहा, “चलो भगवान को नमस्कार कर आयें। किन्तु, अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हें क्या कहकर पुकारूँ? 'नये गुसाईं' कहकर पुकारूँ तो कैसा?”¹ 'गौर' का मतलब यहाँ गौरांग-महाप्रभु या चैतन्यदेव से है।मैंने कहा, “क्यों नहीं पुकारतीं? तुम्हारे यहाँ जब गौहर तक 'गौहर गुसाईं' हो गया है, तब मैं तो कम-से-कम ब्राह्मण का लड़का हूँ। पर मेरे अपने नाम ने क्या बुराई की है? उसी के साथ 'गुसाईं' जोड़ दो न।”कमललता ने होठ दबाकर हँसते हुए कहा, “यह नहीं होगा ठाकुर, नहीं होगा। वह नाम मैं नहीं ले सकती- अपराध होता है। आओ।”“आता हूँ, पर अपराध किसका?”“किसका-यह सुनकर तुम क्या करोगे; तुम तो खूब हो!”जो वैष्णवी माला गूँथ रही थी वह हँस पड़ी और उसने मुँह नीचा कर लिया। ठाकुरजी के कमरे में काले पत्थर और पीतल की राधा-कृष्ण की युगल मूर्तियाँ हैं। एक नहीं, बहुत-सी। यहाँ भी पाँच-छह वैष्णवियाँ काम में लगी हुई हैं। आरती का वक्त हो रहा है, साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है।भक्तिपूर्वक यथारीति प्रणाम कर बाहर आ गया। ठाकुरजी के कमरे के अलावा और सब कमरे मिट्टी के हैं, पर सँभाल-सफाई की सीमा नहीं है। बिना आसन के कहीं भी बैठते संकोच नहीं होता, तथापि कमललता ने सामने के बरामदे में एक ओर आसन बिछा दिया। कहा, “बैठो, तुम्हारे रहने का कमरा जरा ठीक कर आऊँ।”“मुझे क्या आज यहीं रहना पड़ेगा?”“क्यों, डर क्या है? मेरे रहते तुम्हें तकलीफ नहीं होगी।”मैंने कहा, “तकलीफ के लिए नहीं कहता, पर गौहर जो नाराज होगा।”वैष्णवी ने कहा, “यह भार मेरे ऊपर है। मेरे रखने पर तुम्हारा मित्र जरा भी नाराज न होगा।” कहकर वह हँसती हुई चली गयी।मैं अकेला बैठा हुआ अन्यान्य वैष्णवियों का काम देखने लगा। सचमुच ही उनके पास नष्ट करने को जरा भी वक्त नहीं है। मेरी ओर किसी ने घूमकर भी नहीं देखा। करीब दस मिनट बाद जब कमललता लौटकर आयी तब काम खत्म कर सब उठ गयी थीं। पूछा, “तुम इस मठ की अधिकारिणी हो क्या?”कमललता ने जीभ काटकर कहा, “हम सब गोविन्दजी की दासी हैं- कोई छोटा-बड़ा नहीं है। एक-एक पर एक एक का भार है। मेरे ऊपर प्रभू ने यह भार दिया है।” कहकर उसने मन्दिर के उद्देश्य से हाथ जोड़कर सिर से लगा लिये। कहा, “अब कभी ऐसी बात जबान पर मत लाना।”मैंने कहा, “ऐसा ही होगा। अच्छा, बड़े गुसाईं और गौहर गुसाईं क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं?”वैष्णवी ने कहा, “वे अभी आते ही होंगे। नदी में स्नान करने गये हैं।”“इतनी रात को? और इस नदी में?”वैष्णवी ने कहा, “हाँ।”“गौहर भी?”“हाँ, गौहर गुसाईं भी।”“पर मुझे ही क्यों नहीं स्नान कराया?”“वैष्णवी ने हँसकर कहा, “हम किसी को स्नान नहीं करातीं। वे अपने आप करते हैं। भगवान की दया होने पर एक दिन तुम भी करोगे और उस दिन मना करने पर भी नहीं मानोगे।”मैंने कहा, “गौहर भाग्यवान है। पर मेरे पास तो रुपया नहीं है। मैं गरीब आदमी हूँ, इस कारण शायद मेरे प्रति परमात्मा की दया न हो।”वैष्णवी शायद इशारा समझ गयी, और नाराज होकर कुछ कहने वाली ही थी पर कहा नहीं। फिर बोली, “गौहर गुसाईं कुछ भी हों पर तुम भी गरीब नहीं हो। जो आदमी ढेर रुपया देकर दूसरे की लड़की का उद्धार करता है, भगवान उसे गरीब नहीं मानते। तुम्हारे ऊपर भी दया होना आश्चर्य नहीं है।”मैंने कहा, “तब तो वह डर की बात है। तो भी, किस्मत में जो लिखा है वह होगा ही, टाला नहीं जा सकता- पर पूछता हूँ कि कन्या के उद्धार की खबर तुम्हें कहाँ से मिली?”वैष्णवी ने कह, “हमें चार जगह से भीख माँगनी पड़ती है, इसलिए हमें सब खबरें मिल जाती हैं।”“पर यह खबर शायद अभी तक नहीं मिली है कि मुझे रुपये देकर लड़की का उद्धार नहीं करना पड़ा?”वैष्णवी कुछ विस्मित हुई। बोली, “नहीं, यह खबर नहीं मिली। पर हुआ क्या, शादी टूट गयी?”“शादी नहीं टूटी, लेकिन कालिदास बाबू टूट गये हैं- खुद दूल्हा के बाप ही। लड़के को बेचकर दूसरे की भिक्षा के दान से मिले हुए दहेज को हाथ पसारकर लेने में उन्हें शर्म आई। इससे मैं भी बच गया।” कहकर मैंने सारा मामला संक्षेप में बता दिया। वैष्णवी ने सविस्मय कहा, “कहते क्या हो जी, यह तो बिल्कुंल अनहोनी बात हुई!”“ईश्वर की दया। सिर्फ गौहर गुसाईं ही क्या अंधेरे में गन्दी नदी के पानी में गोते लगायेगा, संसार में और कहीं भी कुछ अनहोनी बात नहीं होगी? उनकी लीला ही फिर किस तरह जाहिर होगी, बोलो?” कहकर जैसे ही मैंने वैष्णवी का मुँह देखा वैसे ही समझ गया कि यह ठीक नहीं हुआ- सीमा लाँघ गया हूँ। वैष्णवी ने किन्तु प्रतिवाद नहीं किया, मन्दिर की ओर हाथ उठाकर उसने सिर्फ नि:शब्द नमस्कार कर लिया। मानो अनपराधा को क्षमा करने की भिक्षा माँगी।एक वैष्णवी एक बड़े थाल में मैदा की पूरियाँ लिये हुए सामने से ठाकुरजी के कमरे की ओर निकल गयी। उसे देखकर कहा, “आज तुम्हारे यहाँ समारोह है। शायद कोई खास त्यौहार है-नहीं?”वैष्णवी ने कहा, “नहीं, आज कोई त्यौहार नहीं है। यह हमारे यहाँ का रोज का हिस्सा है। ठाकुरजी की दया से कभी कमी नहीं होती।”“खुशी की बात है। पर आयोजन शायद रात को ही ज्यादा होता है?”वैष्णवी बोली, “सो भी नहीं। सेवा में सुबह-शाम का कोई सवाल ही नहीं है। यदि दया करके दो दिन रह जाओ तो खुद ही सब देख लोगे। हम सब दासी की दासी हैं, उनकी सेवा करने के अलावा संसार में हमारा और कोई काम तो है ही नहीं।” कहकर उसने मन्दिर की ओर हाथ जोड़कर फिर एक बार नमस्कार किया।पूछा, “दिनभर तुम लोगों को क्या-क्या करना होता है?”वैष्णवी ने कहा, “आकर जो देखा, वही।”“आकर देखा मसाला कूटना, रसोई के लिए तरकारी बनाना, दूध दुहना माला गूँथना, कपड़े रंगना-ऐसे ही और बहुत से काम। तुम सब दिनभर क्या सिर्फ यही किया करती हो?”वैष्णवी ने कहा, “हाँ, दिनभर सिर्फ यही करती हैं।”“पर यह सब तो केवल घर-गृहस्थी के काम हैं, सभी औरतें करती हैं। तुम भजन-साधन कब करती हो?'वैष्णवी बोली, “यही हमारी भजन-साधना है।”“यह रसोई बनाना, पानी भरना, कूटना-फटकना, माला गूँथना, कपड़े रंगना- इसी को 'साधना' कहते हैं?”वैष्णवी ने कहा, “हाँ, इसी को साधना कहते हैं। दास-दासियों की इससे बढ़कर साधना हमें और कहाँ मिलेगी गुसाईं?” कहते-कहते उसकी दोनों सजल ऑंखें मानो अनिर्वचनीय मधुरता से परिपूर्ण हो उठीं। एकाएक मुझे खयाल हुआ कि इस अपिरिचित वैष्णवी का मुँह जितना सुन्दर है, उतना सुन्दर मुँह मैंने संसार में कभी नहीं देखा। कहा, “कमललता, तुम्हारा मकान कहाँ है?”वैष्णवी ने ऑंचल से ऑंखें पोंछकर हँसते हुए कहा, “पेड़ की छाया।”“पर पेड़ की छाया तो हमेशा न थी?”वैष्णवी ने कहा, “तब था ईंट और काठ के बने हुए किसी मकान का एक छोटा-सा कमरा। पर कहानी सुनाने का वक्त तो अब नहीं है गुसाईं । मेरे साथ आओ, तुम्हारा नया कमरा दिखा दूँ।”कमरा बढ़िया है। उसने बाँस की खूँटी पर टँगा हुआ एक साफ रेशम का कपड़ा दिखाते हुए कहा, “यह पहनकर ठाकुरजी के कमरे में आना। देखो, देर न करना।” कहकर वह तेजी से चली गयी।एक ओर एक छोटे से तख्त पर बिछौना बिछा है। निकट ही एक चौकी पर कुछ किताबें और एक थाली में बकुल-फूल रखे हैं। अभी-अभी कोई प्रदीप जलाकर शायद धूप जला गया है, कमरा अब भी उसकी गन्ध और धुएँ से भरा हुआ था- बहुत अच्छा लगा। दिनभर की क्लान्ति तो थी ही- ठाकुर-देवताओं से हमेशा दूर-दूर रहता आया हूँ; उधर आकर्षण नहीं था- अत: कपड़े उतार कर धप से बिछौने पर लेट गया। जाने यह किसका कमरा है, एक रात के लिए वैष्णवी ने जाने किसकी शय्या मुझे उधार दे गयी है- अथवा शायद यह उसी की है- इन सब विचारों से मेरा मन स्वभावत: ही बहुत संकोच अनुभव करता है। पर आज कुछ भी खयाल न हुआ, मानो न जाने कब से परिचित अपने ही आदमियों के पास आ पहुँचा हूँ। शायद कुछ तन्द्रा आ गयी थी कि इतने में ही जैसे किसी ने दरवाजे के बाहर से आवाज दी, “नये गुसाईं, मन्दिर नहीं जाओगे? वे तुम्हें बुला जो रहे हैं।”चटपट उठ बैठा। मंजीरे के साथ-साथ कीर्तन के गाने की आवाज भी कानों में पहुँची। बहुत से आदमियों का समवेत कोलाहल ही नहीं था; गेय वस्तु भी जितनी मधुर थी उतनी ही स्पष्ट थी। स्त्री का कण्ठ था- बिना ऑंखों से देखे ही निस्सन्देह अनुमान किया कि कमललता है। नवीन का विश्वास है कि इस मीठे स्वर ने ही उसके मालिक को फाँस लिया है। सोचा कि यह असम्भव नहीं है और बहुत असंगत भी नहीं है।मन्दिर में घुसकर एक ओर चुपचाप बैठ गया, किसी ने फिरकर नहीं देखा। सबकी दृष्टि राधा-कृष्ण की युगल-मूर्ति पर लगी थी। बीच में खड़ी हुई कमललता कीर्तन कर रही है-मदन गोपाल जय जय यशोदा के लाल की,यशोदा के लाल जय जय, जय नन्दलाल की।नन्दलाल जय जय गिरिधारी लाल की,गिरिधारी लाल जय जय गोविन्द-गोपाल की ॥इन थोड़े-सहज और साधारण शब्दों के आलोड़न से भक्तों का गम्भीर वक्ष:स्थल मथित होकर कौन-सा अमृत तरंगित हो उठता है, यह मेरे लिए उपलब्ध करना कठिन है। पर देखा कि उपस्थित व्यक्तियों में से किसी की भी ऑंखें शुष्क नहीं हैं। गायिका की दोनों ऑंखों को प्लावित कर झर-झर अश्रु झर रहे हैं और भावों के गुरुभार से बीच-बीच में उसका कण्ठ-स्वर जैसे टूट जाता है। मैं इन राब रसों का रसिक नहीं हूँ, लेकिन मेरे मन के भीतर भी एकाएक न जाने कैसा होने लगा। द्वारिकादास बाबाजी ऑंखें मूँदे एक दीवार का सहारा लिये बैठे थे। यह पता नहीं चला कि वे सचेत हैं या अचेत। और सिर्फ थोड़ी देर पहले की स्निग्ध हास्य-परिहास-चंचल कमललता ही नहीं, बल्कि साधारण गृह-कर्म में नियुक्ता जो सब वैष्णवियाँ अभी तक साधारण, तुच्छ और कुरूप लगी थीं, वे भी मानो इस धूप के धुएँ से आच्छन्न गृह के अनुज्ज्वल दीप के प्रकाश में क्षणभर के लिए मेरी नजरों में अत्यन्त सुन्दर हो उठीं। मुझे भी मानो ऐसा लगा कि पत्थर की यह निकटवर्ती मूर्ति यथार्थ में ऑंखें मलकर देख रही है और कान लगाकर कीर्तन का समस्त माधुर्य उपभोग कर रही है।भावों की इस विह्वल-मुग्धता से मैं बहुत डरता हूँ, व्यस्त होकर बाहर चला आया- किसी ने लक्ष्य भी नहीं किया। देखता हूँ कि प्रांगण के एक कोने में गौहर बैठा है और कहीं से प्रकाश की एक रेखा आकर उसके शरीर पर पड़ रही है। मेरे पैरों की आवाज से उसका ध्या न भंग नहीं हुआ, पर उस एकान्त समाहित मुँह की तरफ मैं भी न हिल सका, वहीं स्तब्ध हो खड़ा रहा। ऐसा लगा कि सिर्फ मुझको ही अकेला छोड़कर इस जगह के सब व्यक्ति और किसी दूसरे लोक में चले गये हैं- जहाँ का पथ मैं नहीं पहचानता। कमरे में जा, रोशनी बुझाकर लेट गया। यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि ज्ञान, विद्या और बुद्धि में मैं इन सबसे बड़ा हूँ, तथापि न जाने किसी की व्यथा से अन्दर ही अन्दर मन रोने लगा और वैसे ही अनजान कारण से ऑंखों के कोनों से पानी की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगीं।पता नहीं कि कितनी देर से सो रहा था। कान में भनक पड़ी, “अरे नये गुसाईं?”जगकर उठ बैठा, “कौन?”“मैं हूँ तुम्हारी शाम की बन्धु- इतना सोते हो?”अंधेरे कमरे में चौखट के पास कमललता वैष्णवी खड़ी थी। बोला, “जागने से क्या फायदा होता? सोने में समय का कुछ सदुपयोग तो हुआ।”“यह मालूम है। पर ठाकुर का प्रसाद नहीं लोगे?”“लूँगा।”“तो फिर, सो क्यों रहे हो?”“जानता हूँ कि कोई दिक्कत नहीं होगी, प्रसाद तो मिलेगा ही। मेरा शाम का बन्धु रात को भी परित्याग नहीं करेगा।”वैष्णवी ने सहास्य कहा, “यह अधिकार वैष्णवों को है, तुम लोगों को नहीं।”“आशा मिलने पर वैष्णव होते क्या देर लगती है? तुमने गौहर तक को गुसाईं बना डाला, तो मैं ही क्या इतनी अवहेलना का पात्र हूँ? आज्ञा होने पर वैष्णवों का दासानुदास होने को भी राजी हूँ।”कमललता का कण्ठ स्वर कुछ गम्भीर हुआ। कहा, “वैष्णवों की हँसी नहीं उड़ानी चाहिए, गुसाईं, अपराध होता है। गौहर गुसाईं को भी तुमने गलत समझा है। उनके अपने आदमी उन्हें काफिर कहते हैं, पर नहीं जानते कि वे पक्के मुसलमान हैं, पिता-पितामह के धर्म-विश्वास को इन्होंने नहीं त्यागा है।”“पर उसका भाव देखने पर तो यह मालूम नहीं होता।”वैष्णवी ने कहा, “यही तो आश्चर्य है। पर अब देरी मत करो, आओ।” फिर कुछ सोचकर कहा, “या प्रसाद ही तुम्हें यहीं दे जाऊँ- क्या कहते हो?”“आपत्ति नहीं। पर गौहर कहाँ है? वह हो तो दोनों को एक साथ ही दो न।”“उनके साथ बैठकर खाओगे?”“हमेशा ही तो खाता हूँ। बचपन में उसकी माँ ने मुझको बहुत खिलाया है। और उस वक्त तुम्हारे प्रसाद की अपेक्षा वह कम मीठा नहीं होता था। इसके अलावा गौहर भक्त है, गौहर कवि है- कवि की जाति की खोज नहीं की जाती।”उस अन्धकार में भी ऐसा लगा कि वैष्णवी ने एक साँस को दबा लिया। फिर कहा, 'गौहर गुसाईं नहीं है। वह कब चले गये, हमें पता नहीं।”मैंने कहा, “मैंने देखा था कि गौहर ऑंगन में बैठा है। उसे क्या तुम भीतर नहीं जाने देतीं?”वैष्णवी ने कहा, “नहीं।”“गौहर को आज मैंने देखा था। कमललता, मेरे मजाक से तुम नाराज हो गयीं, किन्तु तुम भी अपने देवता के साथ कम हँसी नहीं कर रही हो। यह बात नहीं कि अपराध सिर्फ एक तरफ से ही होता हो।”वैष्णवी ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप बाहर चली गयी। थोड़ी देर बाद ही उसने एक दूसरी वैष्णवी के हाथों रोशनी और आसन तथा खुद प्रसाद का पात्र लेकर प्रवेश किया। कहा, “नये गुसाईं, अतिथि-सेवा में त्रुटि हो सकती है, पर यहाँ का सब कुछ ठाकुरजी का प्रसाद है।”मैंने हँसकर कहा, “ओ संध्याी की बन्धु, यह कोई डर की बात नहीं, वैष्णव न होते हुए भी तुम्हारे नये गुसाईं में रस-बोध है, आतिथ्य की त्रुटि के लिए वह रस-भंग नहीं करेगा। जो है रख दो- लौटकर देखोगी कि प्रसाद का एक कण भी बाकी नहीं है।”“ठाकुरजी का प्रसाद ऐसे ही तो खाया जाता है,” यह कह और सिर नीचा कर कमललता ने सारी खाद्य-सामग्री एक-एक कर सिलसिलेवार सजा दी।दूसरे दिन बहुत सबेरे ही नींद टूट गयी। भारी नगाड़े की आवाज के साथ मंगल आरती शुरू हो गयी है। प्रभाती के सुर में कीर्तन का पद कान में पड़ा-कान्ह-गले बनमाला बिराजे, राधा-गले मोती साजैं।अरुण चरण दोउ नू पुरशोभित, चख लख खंजन लाजैं।इसके बाद दिनभर ठाकुरजी की सेवा होती रही। पूजा-पाठ, कीर्तन, नहलाना, खाना-खिलाना, बदन पोंछना, चन्दन लगाना, माला पहनाना- इसमें जरा भी विराम और विच्छेद नहीं पड़ा। सब व्यस्त हैं, सब नियुक्त हैं। ऐसा लगा कि ये पत्थर के देवता ही यह अष्टप्रहरव्यापी अनन्त सेवा सह सकते हैं, और कोई होता तो ऐसे जबरदस्त उपद्रव के मारे कभी का क्षीण होकर नष्ट हो जाता।कल वैष्णवी से पूछा था कि “तुम भजन करती हो?” उसने जवाब में कहा था, कि 'यही तो साधना और भजन है।” सविस्मय प्रश्न किया था, “यह रसोई बनाना, फूल चुनना, माला गूँथना, दूध ओंटाना- क्या इसी को साधना कहती हो?” उसने उसी वक्त सिर हिलाकर जवाब देते हुए कहा था, “हाँ, हम इसी को साधना कहती हैं- हमारी और कोई भजन-साधना नहीं है।”आज पूरे दिन का हाल देखकर समझ गया कि उसकी बात का एक-एक अक्षर सच है। कहीं भी अतिरंजन या अत्युक्ति नहीं। दोपहर को जरा मौका पाकर बोला, “मैं जानता हूँ कमललता, कि तुम और सब जैसी नहीं हो। सच तो कहो, भगवान की प्रतीक यह पत्थर की मूर्ति...”वैष्णवी ने हाथ उठाकर मुझे रोक दिया और कहा, “प्रतीक क्या जी- वे तो साक्षात् भगवान हैं- ऐसी बात कभी जबान पर भी न लाना नये गुसाईं- “मेरी बातों से उसे जैसे बहुत शर्म आयी, न जाने मैं भी क्यों एक तरह से झेंप गया, फिर आहिस्ता-आहिस्ता बोल, “मैं तो नहीं जानता, इसीलिए पूछा था कि क्या वाकई तुम सब यह सोचती हो कि इस पत्थर की मूर्ति में ही भगवान की शक्ति और चेतना है उसका...”मेरी यह बात भी पूरी न हो सकी। वह बोल उठी, “सोचने जाँयेंगी ही क्यों जी, यह तो हमारे लिए प्रत्यक्ष है। तुम लोग संस्कारों के मोह नहीं तोड़ सके हो, इसीलिए यह सोचते हो कि रक्त-मांस के शरीर को छोड़कर और कहीं चैतन्य के रहने के लिए जगह नहीं है। पर यह क्यों? और यह भी कहती हूँ कि शक्ति और चैतन्य का तत्व क्या तुम लोग ही सब हजम कर चुके हो, जो यह कहोगे कि पत्थर में उसके लिए जगह नहीं है? होती है जी, होती है, भगवान को कहीं भी रहने में रुकावट नहीं होती, नहीं तो बताओ उन्हें भगवान ही क्यों कहेंगे?”तर्क की दृष्टि से ये बातें स्पष्ट भी नहीं और पूर्ण भी नहीं हैं। पर यह और कुछ तो है नहीं, यह तो उसका जीवन्त विश्वास है। उसके इस जोर और अकपट उक्ति के सामने मैं एकाएक न जाने कैसे सिटपिटा-सा गया, बहस करने- प्रतिवाद करने का साहस ही नहीं हुआ, इच्छा भी नहीं हुई। बल्कि सोचा, सच तो है, पत्थर हो या और कुछ लेकिन इतने परिपूर्ण विश्वास से वह अपने को अगर पूर्णत: समर्पित न कर पाती तो वर्ष के बाद वर्ष, और दिन के बाद दिन यह अविछिन्न सेवा करते रहने की शक्ति उसे मिलती कैसे? इस तरह सीधे, निश्चिन्त और निर्भय होकर खड़े होने का अवलम्बन कहाँ से मिलता? ये शिशु तो हैं नहीं, बच्चों के खेल के इस मिथ्या अभिनय से दुबिधाग्रस्त मन दो दिन में ही थककर गिन जाता? पर ऐसा तो नहीं हुआ बल्कि भक्ति और प्रेम की अखण्ड एकाग्रता में इनके आत्मनिवेदन का आनन्दोत्सव बढ़ता ही जा रहा है। इस जीवन में पाने की दृष्टि से वह क्या सब कुछ शून्य या सब कुछ भूल है- सब अपने को ठगना है?वैष्णव ने कहा, “क्यों गुसाईं, बात क्यों नहीं करते?”मैंने कहा, “सोच रहा हूँ।”“किसका सोच कर रहे हो?”“तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ।”“यह तो मेरा बड़ा सौभाग्य है।” कुछ देर बाद कहा, “फिर भी यहाँ रहना नहीं चाहते, न जाने कहाँ किस बर्मा देश में नौकरी करने जाना चाहते हो। नौकरी क्यों करोगे?”मैंने कहा, “मेरे पास मठ की जमीन-जायदाद तो है नहीं- अन्धभक्तों का दल भी नहीं- खाऊँगा क्या?”“भगवान देंगे।”मैंने कहा, “यह अत्यन्त दुराशा है। पर ऐसा तो नहीं लगता कि तुम सबका भी भगवान पर बहुत भरोसा है, नहीं तो भिक्षा के लिए क्यों जातीं।”वैष्णवी ने कहा, “जाती हूँ इसलिए कि देने के लिए वे हाथ बढ़ाये दरवाजे-दरवाजे खड़े हैं। नहीं तो हमारी गरज नहीं है। अगर होती तो नहीं जातीं। बिना खाये ही सूख-सूख मर जातीं, तो भी नहीं जातीं।”“कमललता, तुम्हारा देश कहाँ है?”“कल ही तो कहा था गुसाईं, मेरा घर पेड़ के नीचे है, मेरा देश गली-गली में है।”“तो पेड़ के नीचे और गली-गली में न रहकर मठ में किस लिए रहती हो?”“बहुत दिनों तक गली-गली में ही थी गुसाईं- अगर कोई संगी मिल जाय तो फिर एक बार गली को संबल बना लूँ।”मैंने कहा, “इस बात पर तो विश्वास नहीं होता। तुम्हें संगी-साथी की क्या कमी है कमललता? जिससे कहोगी वही राजी हो जायेगा।”वैष्णवी ने हँसते हुए कहा, “तुम्हीं से कहती हूँ नये गुसाईं- राजी होगे?”मैं भी हँसा। कहा, “हाँ, राजी हूँ। नाबालिग उम्र में जो यात्रा के दल से नहीं डरा, बालिग अवस्था में उसे वैष्णवी का क्या डर?”“यात्रा के दल में भी रहे थे?”“हाँ।”“तो गाना भी गा सकते हो?”“नहीं। मालिक ने इतनी दूर आगे बढ़ने ही नहीं दिया, इसके पहले ही जवाब दे दिया। यह नहीं कहा जा सकता कि तुम मालिक होती तो क्या करतीं।”वैष्णवी हँसने लगी। बोली, “मैं भी जवाब दे देती। इसे छोड़ो, अब हम में से एक के भी जाने पर काम चल जाएगा। इस देश में चाहे जैसे भी भगवान का नाम लेने पर भिक्षा का अभाव नहीं होता। चलो न गुसाईं, निकल पड़े। कह रहे थे कि वृन्दावन धाम कभी नहीं देखा है, चलो तुम्हें दिखला लाऊँ। बहुत दिन घर में बैठे-बैठे कटे, रास्ते का नशा जैसे फिर अपनी ओर खींचना चाहता है। सच, चलोगे नये गुसाईं?”अचानक उसके मुँह की ओर देखकर बहुत विस्मय हुआ। कहा, “हमारा परिचय हुए तो अभी चौबीस घण्टे भी नहीं हुए, मुझ पर इतना विश्वास कैसे हो गया?” वैष्णवी ने कहा, “ये चौबीस घण्टे सिर्फ एक पक्ष के लिए ही तो नहीं हैं गुसाईं, दोनों पक्षों के लिए हैं। मेरा विश्वास है कि रास्ते में प्रवास में भी तुम पर मेरा अविश्वास न होगा। कल पंचमी है, जाने का बड़ा अच्छा शुभ दिन है- चलो। और रास्ते के किनारे रेल का पथ तो है ही- अच्छा नहीं लगे तो लौट आना। मैं मना नहीं करूँगी।”एक वैष्णवी ने आकर खबर दी, “ठाकुरजी का प्रसाद कमरे में रख दिया गया है।” कमललता ने कहा, “चलो तुम्हारे कमरे में चलकर बैठें।”“मेरे कमरे में? अच्छी बात है।”और एक बार उसके मुँह की तरफ देखा। इस बार लेशमात्र भी सन्देह न रहा कि वह हँसी नहीं कर रही है। यह भी निश्चित है कि मैं उपलक्ष-मात्र हूँ, पर चाहे जिस कारण से हो, उसकी ऐसी हालत मालूम हुई कि वह चाहे जिस कारण से हो, यदि यहाँ के बन्धन तोड़कर भाग सके तो मानों उसकी जान में जान आ जाय- उसे एक क्षण का भी विलम्ब सहन नहीं हो रहा है।कमरे में आकर खाने बैठा। बहुत बढ़िया प्रसाद है। भागने का षडयन्त्र अच्छी तरह जम जाता, पर एक बहुत जरूरी काम से कोई कमललता को बुला ले गया। अत: अकेले ही मुँह बन्द किये हुए सेवा समाप्त करनी पड़ी। बाहर निकलने पर कोई भी नज़र नहीं आया, द्वारिकादास बाबाजी भी न जाने कहाँ चले गये। दो-तीन पुरानी वैष्णवियाँ घूम-फिर रही हैं- कल शाम को ठाकुर जी के कमरे के धुएँ में शायद ये ही अप्सरा जैसी लगी थीं, किन्तु आज दिन की तेज रोशनी में कल का वह अध्याकत्म सौन्दर्य-बोध उतना अटूट नहीं रहा। मन न जाने कैसा हो गया, सीधा आश्रम के बाहर चला आया। वही शैवालाच्छन्न शीर्णकाया मन्दस्रोता सुपरिचित नदी और वही लता-गुल्म-कंटकाकीर्ण तटभूमि, वही सर्पसंकुल सुदृढ़ बेंतों का कुंज और सुविस्तृत बेणुवन।बहुत दिनों के अनभ्यास के कारण शरीर सनसनाने लगा, कहीं दूसरी जगह जाने की सोच ही रहा था कि एक आदमी जो कहीं छिपा बैठा था, अब उठा और नजदीक आकर खड़ा हो गया। पहले तो आश्चर्य हुआ कि इस जगह भी आदमी हो सकता है। उसकी उम्र मेरे बराबर ही होगी, और दस वर्ष ज्यादा होना भी असम्भव नहीं है। ठिंगना, दुबला-पतला, शरीर का रंग बहुत ज्यादा काला नहीं है, पर मुँह का नीचे का हिस्सा जैसे बहुत ही छोटा है। ऑंखों की दोनों भौहें भी वैसी ही अस्वाभाविक रूप में विस्तीर्ण हैं। वस्तुत:, इतनी बड़ी, घनी और मोटी भौंहें भी मनुष्य की होती हैं, यह ज्ञान मुझे इसके पहले न था। दूर से ही सन्देह हुआ कि प्रकृति ने मजाक में होठों के बदले कपाल पर एक जोड़ी मोटी मूँछें तो नहीं चिपका दी हैं। गले में तुलसी की मोटी माला है, वेशभूषादि भी बहुत कुछ वैष्णवों जैसी है, पर जितनी मैली है उतनी ही जीर्ण।“महाशयजी!”“चौंककर खड़े होते हुए मैंने पूछा, “क्या आज्ञा है?”“क्या यह जान सकता हूँ कि आप यहाँ कब आये हैं?”“जान सकते हैं। कल शाम को आया हूँ।”“रात को अखाड़े में शायद थे?”“हाँ, था।”“ओ:!”नीरवता में ही कुछ क्षण कटे। पैर बढ़ाने की कोशिश करते ही उस आदमी ने कहा, “आप तो वैष्णव नहीं हैं, भले आदमी हैं- अखाड़े में आपको रहने दिया?”मैंने कहा, “यह तो वे ही जानें। उन्हीं से पूछिए।”“ओ:, शायद कमललता ने रहने के लिए कहा होगा?”“हाँ।”“ओ:, जानते हैं उसकी असली नाम क्या है? उषांगिनी। मकान सिलहट में है किन्तु दिखती है कलकत्ते जैसी। मेरा घर भी सिलहट में है। गाँव का नाम है महमूदपुर। उसके स्वभाव-चरित्र के बारे में कुछ सुनेंगे?”मैंने कहा, “नहीं।” पर उस आदमी के हाव-भाव देखकर इस बार सचमुच ही विस्मित हो उठा। प्रश्न किया, “कमललता के साथ आपका कोई सम्बन्ध है?”“है क्यों नहीं!”“वह क्या?”क्षणभर इधर-उधर कर वह आदमी एकाएक गरज उठा, “क्यों, क्या झूठ है? वह मेरी घरवाली होती है। उसके बाप ने खुद हमारी कण्ठी-बदली की थी। इसके गवाह हैं।”न जाने क्यों मुझे विश्वास नहीं हुआ। पूछा, “आपकी जाति क्या है?”“हम द्वादश तेली हैं।”“और कमललता की?”प्रत्युत्तर में वह अपनी वह मोटी भौंहों की जोड़ी घृणा से कुंचित कर बोला, “वह कलवार है- उनके पानी से हम पैर भी नहीं धोते। एक बार उसे बुला सकते हैं?”“नहीं। अखाड़े में सब जा सकते हैं, इच्छा हो तो आप भी जा सकते हैं।” कुछ नाराज होकर वह बोला, “जाऊँगा साहब, जाऊँगा। दरोगा को पैसे खिला दिये हैं, प्यादे साथ लेकर झोंटा पकड़कर बाहर खींच लाऊँगा। बाबाजी के बाबा भी नहीं बचा सकेंगे! साला, रास्कल कहीं का!”मैं और वाक्य व्यय न करके आगे चलने लगा। वह पीछे से कर्कश कंठ से बोला, “इसमें आपका क्या नुकसान था? जाकर अगर एक बार बुला देते तो क्या शरीर का कुछ क्षय हो जाता? ओह-भले आदमी!”अब पीछे घूमकर देखने का साहस नहीं हुआ। पीछे कहीं गुस्से को न रोक पाऊँ और इस अति दुर्बल आदमी के शरीर पर हाथ न छोड़ बैठूँ, इस डर से कुछ तेजी के साथ ही मैंने प्रस्थान किया। ऐसा लगने लगा कि वैष्णवी के भाग जाने का हेतु शायद यहीं कहीं सम्बद्ध है।मन खराब हो गया था। ठाकुरजी के कमरे में न तो खुद गया और न कोई बुलाने ही आया। कमरे के भीतर एक चौकी पर कई- एक वैष्णव ग्रंथावलियाँ बड़े यत्न से रक्खी थीं। उन्हीं में से एक को हाथ में लेकर और प्रदीप को सिरहाने रखकर बिछौने पर लेट गया। वैष्णव-धर्मशास्त्र के अध्यलयन के लिए नहीं, सिर्फ वक्त गुजारने के लिए। बार-बार क्षोभ के साथ सिर्फ एक ही बात का खयाल आने लगा, कमललता जो गयी सो फिर लौटकर नहीं आयी! ठाकुरजी की संध्याय-आरती यथारीति शुरू हुई, उसका मधुर कण्ठ बार-बार कानों में सुनाई पड़ने लगा और घूम-फिरकर यही खयाल मन में आने लगा कि उस वक्त से कमललता ने मेरी कोई खोज-खबर ही नहीं ली! और वह मोटी भौंहों वाला आदमी? क्या उसकी शिकायत में कुछ भी सत्य नहीं है?और भी एक बात है। गौहर कहाँ है? उसने भी तो आज मेरी कोई खोज खबर नहीं ली। सोचा था कि कुछ दिन- पूँटू के विवाहवाले दिन तक, यहीं गुजार दूँगा, पर अब यह नहीं होगा। शायद कल ही कलकत्ते रवाना हो जाना पड़े।शनै: शनै: आरती और कीर्तन समाप्त हो गया। कलवाली वही वैष्णवी आकर बड़े यत्न से प्रसाद रख गयी, पर जिसकी राह देख रहा था उसके दर्शन नहीं मिले। बाहर लोगों की बातचीत और आने-जाने की आवाज भी क्रमश: शान्त हो गयी। यह सोचकर कि अब उसके आने की सम्भावना नहीं है, भोजन किया और हाथ-मुँह धोकर दीप बुझा सो गया।शायद उस वक्त बहुत रात थी, कानों में भनक पड़ी, “नये गुसाईं!”जागकर उठ बैठा। अन्धकार में खड़ी कमललता आहिस्ता-आहिस्ता बोली, “आयी नहीं, इसलिए शायद मन-ही-मन बहुत दु:खी हो रहे हैं- क्यों नये गुसाईं?”कहा, “हाँ, दुखी हुआ हूँ।”क्षणभर के लिए वैष्णवी चुप रही, फिर बोली, “जंगल में वह आदमी तुमसे क्या कह रहा था?”“तुमने देखा था क्या?”“हाँ।”“कह रहा था कि वह तुम्हारा पति है- अर्थात्, तुम्हारे सामाजिक आचारों के मुताबिक तुम्हारी उसकी कंठी-बदल हुई है।”“तुमने विश्वास किया?”“नहीं, नहीं किया।”क्षणभर के लिए फिर मौन रहकर वैष्णवी ने कहा, “उसने मेरे स्वभाव और चरित्र के बारे में कुछ इशारा नहीं किया?”“किया था।”“और मेरी जातिका?”“हाँ, उसका भी।”वैष्णवी ने कुछ ठहरकर कहा, “सुनोगे मेरे बचपन का इतिहास? शायद तुम्हें घृणा हो जाय।”“तो रहने दो, मैं नहीं सुनना चाहता।”“क्यों?”“उससे क्या फायदा कमललता? तुम मुझे बहुत भली लगी हो। यहाँ से कल चला जाऊँगा और शायद फिर कभी हम लोगों की मुलाकात ही न हो। तब मेरे इस भले लगने को निरर्थक ही नष्ट करने से क्या फायदा होगा, बताओ?”इस बार वैष्णवी बहुत देर तक मौन रही। यह समझ में न आया कि अन्धकार में चुपचाप खड़ी वह क्या कर रही है। पूछा, “क्या सोच रही हो?”“सोच रही हूँ कि कल तुम्हें नहीं जाने दूँगी।”“तो फिर कब जाने दोगी?”“जाने कभी न दूँगी। पर अब बहुत रात हो गयी, सो जाओ। मसहरी अच्छी तरह से लगी हुई है न?”“क्या पता, शायद लगी है।”वैष्णवी ने हँसकर कहा, “शायद लगी है? वाह, खूब हो।” यह कह उसने करीब आकर अन्धकार में ही हाथ बढ़ाकर बिछौने के चारों छोरों की परीक्षा कर ली और कहा, “सोओ गुसाईं, मैं जाती हूँ।” यह कहकर वह दबे पैरों बाहर निकल गयी और बाहर से बहुत ही सावधानी के साथ दरवाजा भी बन्द कर गयी।

अध्याय 16 इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मनुष्य को सदुपदेश देने से कोई फायदा नहीं होता- सत्-परामर्श पर कोई जरा भी ध्या न नहीं देता। लेकिन चूँकि यह सत्य है, इसलिए दैवात् इसका व्यतिक्रम भी होता है। इसकी एक घटना सुनाता हूँ। बाबा ने दाँत निकालकर आशीर्वाद दिया और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ प्रस्थान किया। पूँटू ने भी बहुत सारी पद-धूलि लेकर आदेश का पालन किया। पर उनके चले जाने के बाद मेरे परिताप की सीमा न रही। मन विद्रोही होकर सिर्फ तिरस्कार करने लगा कि ये कौन होते हैं जिन्हें विदेश में नौकरी कर अनेक कष्टों से संचित किया हुआ धन दे दोगे? सनकीपन में कुछ कह दिया तो क्या उसका यह मतलब है कि दाता कर्ण बनना ही पड़ेगा? न जाने कहाँ की इस लड़की ने बिना माँगे ही ट्रेन में पेड़े और दही खिलाकर मुझे तो अच्छा फन्दे में फाँसा! एक फन्दे को काटते हुए एक दूसरे फन्दे में फँस गया। बचने का उपाय सोचते हो दिमाग गर्म हो गया, और उस निरीह लड़की के प्रति क्रोध और विरक्ति की सीमा न रही। और यह शैतान बाबा! मनाने लगा कि वह अब घर न पहुँच सके, रास्ते में ही सर्दी-गर्मी से मर जाय। पर यह आशा भित्तिहीन है। अच्छी तरह जानता हूँ ...